जानें पुंसवन संस्कार की संपूर्ण विधि और वैदिक महत्व
हिन्दू धर्मशास्त्र में अंकित सभी 16 संस्कारों में पुंसवन संस्कार को दूसरा संस्कार माना जाता है। हिन्दू कर्मकांड के अनुसार यूँ तो कुल 32 संस्कार होते हैं लेकिन इनमें से केवल 16 संस्कारों को ही महत्वपूर्ण माना गया है। शिशु के माँ के गर्भ में आने के तीन माह बाद ही पुंसवन संस्कार संपन्न करवाया जाता है। प्राचीन काल में शिशु का जन्म केवल पति-पत्नी के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं होता था, बल्कि संतान पैदा करना एक सामाजिक दायित्व भी होता था। इसलिए उस समय लोग सभी 16 संस्कारों का पालन करते थे, जिनमें से एक पुंसवन संस्कार भी है। आज हम आपको इस लेख के जरिये पुंसवन संस्कार का महत्व और इसकी सही विधि के बारे में बताने जा रहे हैं। आइए अब जानते हैं पुंसवन कर्म से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्यों और उसके महत्व के बारे में।
पुंसवन संस्कार को संपन्न करने का सही समय
हिन्दू धर्म के सभी संस्कारों में से पुंसवन संस्कार दूसरा संस्कार माना जाता है। इस संस्कार को शिशु के माता के गर्भ में आने के तीन माह के बाद ही संपन्न करवाया जाता है। इस संस्कार को विशेष रूप से महिला के गर्भवती होने के महज तीन माह के बाद ही इसलिए संपन्न किया जाता है क्योंकि पैदा होने से तीन महीने के बाद शिशु के मस्तिष्क का विकास होना प्रारंभ हो जाता है।
पुंसवन कर्म का विशेष महत्व
हिन्दू धर्म में पुंसवन कर्म विशेषरूप से एक स्वस्थ्य और तंदुरुस्त बच्चे की चाह में किया जाता है। मान्यता अनुसार माता के गर्भ में आने के तक़रीबन तीन महीने तक शिशु के लिंग की पहचान नहीं की जा सकती, इसलिए इससे पहले ही पुंसवन संस्कार संपन्न करवाना उचित माना जाता है। इस संस्कार का उद्देश्य विशेष रूप से गर्भ में आने वाले शिशु की रक्षा करना होता है। इसके अलावा कई लोग पुंसवन संस्कार पुत्र प्राप्ति और स्वस्थ्य संतान प्राप्ति के लिए भी करते हैं। इसके साथ ही इस संस्कार का उद्देश्य शिशु के शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास की कामना करना भी होता है। इस दौरान पति-पत्नी भगवान से आग्रह करते हैं कि वे शिशु में अच्छे संस्कारों की स्थापना कर, कुसंस्कारों से उसे छुटकारा दिलाए और बच्चे को अपना आशीर्वाद दें।
पुंसवन संस्कार की विधि
- ओषधि अवघ्राण
पुंसवन संस्कार के दौरान सबसे पहले एक विशेष प्रकार की औषधि गर्भवती महिला के नासिका छिद्र से उसके अंदर पहुँचाई जाती हैं। इस प्रक्रिया के दौरान गिलोय वृक्ष के तने से कुछ बूँदे निकालकर मंत्रोउच्चारण के साथ गर्भवती महिला की नासिका छिद्र पर लगाया जाता है। गिलोय के रस को खासतौर से कीटाणुरहित और रोगनाशक माना जाता है। इस संस्कार को करते समय विशेष रूप से गिलोय के रस को औषधि के रूप में किसी कटोरे में लेकर गर्भवती स्त्री को दिया जाता है। इस दौरान संस्कार में उपस्थित लोग विशेष रूप से “ॐ अदभ्यः सम्भृतः पृथिव्यै रसाच्च, विश्वकर्मणः संवर्त्तताग्रे। तस्य त्वष्टा विदधद्रूपमेति, तन्मर्त्यस्य देवत्वमाजानमग्रे। “…(-31.17) मंत्र का उच्चारण करते हैं। मान्यता है कि मंत्रोउच्चारण के बीच गर्भवती स्त्री अपने दाहिने हाथ से औषधि को अपनी नासिका के ऊपर लगाकर श्वास को अंदर खींचें। जिस दौरान, होने वाले शिशु के पिता सहित परिवार के अन्य सभी सदस्य भी अपना दाहिना हाथ गर्भवती स्त्री के पेट पर रखें और उपरोक्त मन्त्र का जाप करते हुए ओषधि अवघ्राण की क्रिया को संपन्न करें तो इससे शिशु को भगवान अच्छा स्वास्थ्य प्रदान करते हैं।
- गर्भ पूजन
शास्त्रों में गर्भ को पूज्य माना गया है, क्योंकि माता के गर्भ के माध्यम से जो जीव मनुष्य रूपी संसार का हिस्सा बनना चाहता है उसे खासतौर पर ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता है।
- गर्भ में मौजूद शिशु को संस्कारित करने के लिए माता सहित परिवार के अन्य सदस्यों विशेष उपासना करें।
- गर्भवती स्त्री खासतौर से इस दौरान आराम और सेहतमंद भोजन ग्रहण करें और साथ ही शिशु के सर्वांगीण विकास की कामना भी करें।
- माना जाता है कि अगर गर्भवती स्त्री गायत्री मंत्र का जाप रोज करें तो भगवान उसकी संतान पर कृपा बरसाते हैं।
- इसी बात को ध्यान में रखते हुए और पुंसवन संस्कार में गर्भ पूजन की प्रक्रिया के समय गर्भवती स्त्री के परिवार के सभी सदस्य और परिजन हाथ में फूल और अक्षत लेकर मंत्रोउच्चारण के साथ गर्भ में मौजूद शिशु के अच्छे स्वास्थ्य और सद्भाव की कामना करें।
“ॐ सुपर्णोसि गुरुत्माँस्त्रिवृते शिरो, गायत्रं चक्षुबृहद्रथन्तरे पक्षौ। स्तोम आत्मा छंदा स्यढाणि यजु षि नाम। साम ते तनूर्वामदेव्यं, यज्ञायज्ञियं पुच्छं धिष्ण्याः शफाः। सुपर्णोसि गरुत्मान दिवं गच्छ स्वः पत। …(-12.4)”
- इसके बाद उन सभी फूल और अक्षतों को एकत्रित करके गर्भवती स्त्री को दें। जिसका स्पर्श महिला अपने पेट से करके उसे वापिस प्लेट में रख दें।
- अश्रावस्तना
पुंसवन संस्कार के दौरान अश्रावस्तना क्रिया में विशेष रूप से माता के गर्भ में आने वाले शिशु के संपूर्ण विकास के लिए उचित वातावरण की कामना की जाती है।
इस दौरान परिजन दैवीय शक्तियों को आश्वस्त करते हैं कि उन्होनें जिस ज़िम्मेदारी के साथ शिशु को माता की गर्भ में भेजा है, उसका निर्वहन वो पूरी श्रद्धा भाव के साथ करें।
- इस क्रम में सबसे पहला आश्वासन गर्भवती स्त्री देती है कि वो ना केवल अपने खान पान का संपूर्ण ध्यान रखेगी, बल्कि व्यर्थ कामों में समय ना बर्बाद कर गर्भ में पल रहे शिशु को अच्छे संस्कार देने का भरपूर प्रयास करेगी।
इसके अलावा गर्भवती स्त्री को इस बात का आश्वासन देना भी अनिवार्य होता है कि, वो शिशु के गर्भ में रहने के दौरान हर प्रकार के ईर्ष्या, क्रोध, दोष और अन्य प्रकार के सभी विकारों से खुद को दूर रखेगी और शिशु के उज्जवल भविष्य की कामना में ही अपना ज्यादातर समय देगी।
- इस क्रम में दूसरा आश्वासन, होने वाले शिशु के पिता और परिवार के अन्य परिजन देते हैं। चूँकि गर्भवती स्त्री के खून और मांस से ही शिशु का शरीर बनता है और जन्म के बाद भी कुछ माह तक माता अपना दूध पिलाकर शिशु का पालन पोषण करती है। लिहाज़ा माता तो अपने सभी दायित्वों का पालन भली-भाँती करती है, लेकिन अब पिता के साथ ही परिवार के अन्य सदस्यों को भी आश्वासन देना होता है कि वो गर्भ में पल रहे शिशु को सभी सामाजिक कुरीतियों से दूर रखेंगे और शिशु के विकास में सहायक रहेंगे।
इस क्रिया के दौरान सबसे पहले गर्भवती स्त्री अपने दायें हाथ को पेट पर रखती है और उसके बाद पिता एवं परिवार के अन्य सदस्य भी अपना दाहिना हाथ गर्भवती स्त्री के पेट पर रखकर दैवीय शक्ति को इस मंत्रोउच्चारण के द्वारा शिशु के उचित विकास के लिए आश्वस्त करते हैं।
“ॐ यत्ते सुशीमे हृदये हितमन्तः प्रजापतौ। मन्येहं मां तद्विद्वांसं, माहं पौत्रमघनिन्याम। …(-आश्र्व.गृ.सू.1.13 )”
- विशेष आहुति
इस संस्कार में उपयुक्त क्रियान्वयन के लिए विशेष आहुति का आयोजन किया जाता है। भारतीय संस्कृति में यज्ञ को बेहद महत्वूर्ण माना गया है। और यज्ञ को पवित्र बनाने के लिए जिस प्रकार आहुति दी जाती हैं, ठीक उसी प्रकार मनुष्य जीवन के हर एक चरण को उन आहुतियों के समान ही माना गया है। इस विशेष आहुति के लिए घर पर ही चावल की खीर बनाई जाती है, जिसका इस्तेमाल खासतौर से यज्ञ में आहुति के लिए किया जाता है।
इस दौरान गायत्री मंत्र के साथ परिजन भगवान से प्रार्थना करते हुए आहुति देते हैं। जिसके बाद इस मंत्र का जप करते हुए खीर की पांच आहुतियाँ दी जाती है।
“ॐ धातादधातु दाशुषे प्राचीं जीवतुमक्षिताम। वयं देवस्य धीमहि सुमतिं वाजिनीवतः स्वाहा। इदं धात्रे इदं न मम। “ …(-आश्र्व.गृ.सू.1.14 )”
- चरु प्रदान
विशेष आहुति के लिए बनाई खीर को चरु प्रदान क्रिया के दौरान गर्भवती स्त्री को दिया जाता है। क्योंकि यज्ञ में प्रयोग किये गए भोज्य पदार्थ को दैवीय शक्तियों से परिपूर्ण माना है।
इसी लिए पुंसवन संस्कार के बाद सबसे पहले गर्भवती स्त्री को यज्ञ में बचा प्रसाद ही ग्रहण करना चाहिए। गर्भाधान के बाद गर्भवती स्त्री के लिए सात्विक भोजन ग्रहण करना बेहद अहम माना जाता है।
इसके साथ ही कहा जाता है कि गर्भवती स्त्री को वहीं भोजन ग्रहण करना चाहिए जिसका भोग पहले ईश्वर को लगाया जा चूका हो। चरु प्रदान क्रिया के दौरान विशेष आहुति के लिए बनाई गयी खीर प्रसाद के रूप में सबस पहले गर्भवती स्त्री को दी जाती।
गर्भवती स्त्री इस मंत्र का जाप करते हुए उस प्रसाद रुपी खीर को मस्तक पर लगाकर, भगवान का आशीर्वाद मांगते हुए उसे इस कामना के साथ ग्रहण करें कि प्रसाद रुपी खीर दिव्य शक्तियों से परिपूर्ण है।
“ॐ पयः पृथिव्यां पय ओषधीषु, पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः। पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम। “(-यजु.18.36.)”
- आशीवर्चन
ये क्रिया विशेष रूप से पुंसवन संस्कार की समाप्ति के लिए आयोजित की जाती है। इस क्रम में सभी क्रिया समाप्त होने के बाद गर्भवती स्त्री को पुरोहित और परिवार के बड़े बुजुर्ग मंत्रोउच्चारण के साथ स्त्री के आँचल में फल-फूल आदि डालें।
गर्भवती स्त्री भी श्रद्धापूर्वक उन फल-फूलों को स्वीकारकरें और अपने पति के साथ सभी बड़े बुजुर्गों और आचार्य का आशीर्वाद लें।
अंत में गर्भवती स्त्री पर पुष्पवर्षा की जाती है। इसके साथ ही पुंसवन संस्कार का आयोजन प्रसाद ग्रहण कर समाप्त हो जाता है।
पुंसवन संस्कार की कर्म अवधि
- शास्त्रों अनुसार गर्भ के दुसरे महीने से पुंसवन कर्म करना चाहिए |
- यदि इस संस्कार को पुष्य नक्षत्र में आयोजित किया जाएं तो परिणाम अति-उत्तम मिलते हैं।
- कई लोग अच्छे फल की प्राप्ति हेतु पुंसवन कर्म लगातार 12 रात्रि तक करते हैं।
- सम तिथियाँ या युग्म तिथियाँ अर्थात 2-4-6-8 आदि में पुंसवन कर्म शुरू करना शुभ माना गया है।
हम आशा करते हैं कि हिन्दू धर्म में वर्णित सभी 16 संस्कारों में से एक पुंसवन संस्कार पर आधारित हमारा ये लेख आपके लिए उपयोगी साबित होगा।