Bhagavad Gita: मन की शांति और ज्ञान प्राप्ति के लिए भगवद गीता का करें पाठ
भगवद गीता (Bhagavad Gita) में दी गई शिक्षाओं को अमृत तुल्य माना जाता है। यह पुस्तक मूल रूप से महाभारत का एक अंग है जिसमें भगवान कृष्ण अपने ज्ञान से अर्जुन के मन की दुविधाओं को दूर करते हैं। गीता में दी गई शिक्षाएं आज भी प्रासंगिक हैं और हर व्यक्ति को इस पुस्तक का अध्ययन अवश्य करना चाहिए। आज अपने इस लेख में हम गीता में दी गई कुछ महत्वपूर्ण शिक्षाओं के बारे में बात करेंगे।
हिंदू धार्मिक ग्रंथों में गीता का स्थान
भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिये गए उपदेशों को श्रीमद्भगवदगीता के नाम से जाना जाता है। यह पुस्तक हिंदू धर्म में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। हिंदू धर्म में गीता का स्थान वही है जो धर्मसूत्रों और उपनिषदों का है। जिन शिक्षाओं के बारे में उपनिषदों में वर्णन मिलता है वह गीता में भी उपलब्ध हैं। गीता का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि यह न केवल सन्यांसी बल्कि गृहस्थ लोगों के लिए भी उचित ज्ञान उपलब्ध कराती है। उपनिषदों और ब्रह्मासूत्रों के ज्ञान को इस पुस्तक में बहुत ही सरलता से समझाया गया है।
भगवद गीता में योग की शिक्षा
भगवान कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि, ‘योग: कर्मसु कौशलम’ अर्थात व्यक्ति कर्म तो करे लेकिन बंधन में न बंधे। गीता में दी गई यह शिक्षा आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी प्राचीन काल में। योग के जरिये भगवद गीता (Bhagavad Gita) में व्यक्ति को मुक्ति के मार्ग की ओर जाने के भी कई रास्ते बताए गए हैं। इसमें कर्मयोग, ज्ञान योग, भक्ति योग के बारे में भी समझाया गया है। संसार में रहकर संसार के बंधनों से मुक्त होने की बात श्रीमद भगवत गीता में कई जगह पर मिलती है। यह पवित्र पुस्तक व्यक्ति के मन पर जमी धूल को साफ करने का कार्य करती है।
भगवत गीता (Bhagwat Gita) के श्लोक जीवन को देते हैं सकारात्मक दिशा
भगवद गीता में 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं। इन श्लोकों में जन्म-मृत्यु, कर्म, धर्म और मानव जीवन के विभिन्न प्रश्नों के उत्तर मिलते हैं। गीता में दिए गए कुछ श्लोक अर्थ सहित नीचे दिए गए हैं।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
अर्थ- गीता के इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि, हे अर्जुन कर्म तुम्हारा अधिकार है लेकिन फल की चिंता करना तुम्हारा अधिकार नहीं है। इसलिए फल की इच्छा छोड़कर कर्म करो।
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय |
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||
अर्थ- इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि सफल और असफल होने की आसक्ति त्यागकर समभाव होकर अपने कर्मों को करो। इस समता की भावना को ही योग कहा जाता है।
दुरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धञ्जय
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ||
अर्थ- भगवान कृष्ण भगवद गीता के इस श्लोक में कहते हैं कि, हे अर्जुन बुद्धि, योग और चैतन्यता से बुरे कर्मों से दूर होकर समभाव से ईश्वर की शरण को प्राप्त करो। जो लोग अपने अच्छे कर्मों को भोगने की अभिलाषा करते हैं वह लालची हैं।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥
अर्थ- इस श्लोक में कृष्ण आत्मा की अमरता को बताते हुए कहते हैं कि, आत्मा को न आग जला सकती है न पानी भिगो सकता है। इसे न हवा सुखा सकती है और नाही यह शस्त्रों से काटी जा सकती है। यह आत्मा अविनाशी और अमर है।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
अर्थ- कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि, धरती पर जब भी धर्म का नाश होता है और अधर्म का विकास होता है तब मैं धर्म की रक्षा और अधर्म का नाश करने के लिए अवतार लेता हूं।
श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥
अर्थ- भगवान कृष्ण कहते हैं कि हे पार्थ, ईश्वर में श्रद्धा रखने वाले लोग अपनी इंद्रियों को वश में करके ज्ञा को उपलब्ध होते हैं और ऐसे ज्ञानी पुरुष परम शांति को प्राप्ति करते हैं।
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
अर्थ- भगवद गीता (Bhagavad Gita) के इस श्लोक में भगवान कृष्ण कहते हैं कि, हे अर्जुन सारे कर्म प्रकृति के गुणों के अनुसार ही किये जाते हैं। जो मनुष्य यह सोचता है कि मैं करने वाला हूं उसका अंत:करण घमंड से भर जाता है और ऐसा मनुष्य अज्ञानी होता है।
भगवद गीता पाठ: गीता के पाठ से सुधारें अपना जीवन
भगवद गीता (Bhagavad Gita) के निरंतर पाठ से व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त होता है। जीवन के सच्चे स्वरूप को गीता के अध्ययन के बाद व्यक्ति समझ जाता है। इस पुस्तक में ज्ञान का सागर है और इसलिए इसे भाष्य भी कहा जाता है। हिंदू परंपरा में भाष्य उस ग्रंथ को कहा जाता है जिसपर टिकाएं की जाती हैं। भगवद गीता हमें संसार में रहकर भी मुक्ति प्रदान करने की शिक्षाएं देती है। यह सामाजिक समानता और स्वविकास का उपदेश भी देती है। योग के विभिन्न पक्षों को इस पुस्तक में समेटा गया है। आध्यात्मिक उत्थान के लिए भी यह पुस्तक अत्यंत उपयोगी है। यह कर्म पर जोर देती है लेकिन साथ ही यह भी संदेश देती है कि कर्म करते हुए किसी भी तरह के बंधन में व्यक्ति को नहीं बंधना चाहिए। बंधनों से मुक्त होकर और समानता के साथ मनुष्य को अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए।
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