।। ॐ नमः शिवाय ।।
शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर
【श्रीरुद्र संहिता】
【द्वितीय खण्ड】
आठवां अध्याय
"काम की हार"
सूत जी बोले ;– हे ऋषियो! जब इस प्रकार प्रजापति ब्रह्माजी ने कहा, तब उनके वचनों को सुनकर नारद जी आनंदित होकर बोले- हे ब्रह्मन्! मैं आपको बहुत धन्यवाद देता हूं कि आपने इस दिव्य कथा को मुझे सुनाया है। हे प्रभु! अब आप मुझे संध्या के विषय में और बताइए कि विवाह के बाद उन्होंने क्या किया? क्या उन्होंने दुबारा तप किया या नहीं?
सूत जी बोले ;- इस प्रकार नारद जी ने ब्रह्माजी से पूछा। उन्होंने यह भी पूछा कि जब कामदेव रति के साथ विवाह करके वहां से चले गए और दक्ष आदि सभी मुनि वहां से चले गए, संध्या भी तपस्या के लिए वहां से चली गईं, तब वहां पर क्या हुआ?
ब्रह्माजी बोले ;- हे श्रेष्ठ नारद! तुम भगवान शिव के परम भक्त हो, तुम उनकी लीला को अच्छी प्रकार जानते हो। पूर्वकाल में जब मैं मोह में फंस गया तब भगवान शिव ने मेरा मजाक उड़ाया, तब मुझे बड़ा दुख हुआ। मैं भगवान शिव से ईर्ष्या करने लगा। मैं दक्ष मुनि के यहां गया। देवी रति और कामदेव भी वहीं थे। मैंने उन्हें बताया कि शिवजी ने किस प्रकार मेरा मजाक उड़ाया था। मैंने पुत्रों से कहा कि तुम ऐसा प्रयत्न करो जिससे महादेव शिव किसी कमनीय कांति वाली स्त्री से विवाह कर लें। मैंने प्रभु शिव को मोहित करने के लिए कामदेव और रति को तैयार किया। कामदेव ने मेरी आज्ञा को मान लिया।
कामदेव बोले ;- हे ब्रह्माजी! मेरा अस्त्र तो सुंदर स्त्री ही है। अतः आप भगवान शिव के लिए किसी परम सुंदरी की सृष्टि कीजिए। यह सुनकर मैं चिंता में पड़ गया। मेरी तेज सांसों से पुष्पों से सजे बसंत का आरंभ हुआ। बसंत और मलयानल ने कामदेव की सहायता की । इनके साथ कामदेव ने शिवजी को मोहने की चेष्टा की, पर सफल नहीं हुए। मैंने मरुतगणों के साथ पुनः उन्हें शिवजी के पास भेजा। बहुत प्रयत्न करने पर भी वे सफल नहीं हो पाए।
अतः मैंने बसंत आदि सहचरों सहित रति को साथ लेकर शिवजी को मोहित करने को कहा। फिर कामदेव प्रसन्नता से रति और अन्य सहायकों को साथ लेकर शिवजी के स्थान को चले गए।
【श्रीरुद्र संहिता】
【द्वितीय खण्ड】
नवां अध्याय
"ब्रह्मा का शिव विवाह हेतु प्रयत्न"
ब्रह्माजी बोले ;-- काम ने प्राणियों को मोहित करने वाला अपना प्रभाव फैलाया। बसंत ने उसका पूरा सहयोग किया। रति के साथ कामदेव ने शिवजी को मोहित करने के लिए अनेक प्रकार के यत्न किए। इसके फलस्वरूप सभी जीव और प्राणी मोहित हो गए। जड़-चेतन समस्त सृष्टि काम के वश में होकर अपनी मर्यादाओं को भूल गई। संयम का व्रत पालन करने वाले ऋषि-मुनि अपने कृत्यों पर पश्चाताप करते हुए आश्चर्यचकित थे कि उन्होंने कैसे अपने व्रत को तोड़ दिया। परंतु भगवान शिव पर उनका वश नहीं चल सका । कामदेव के सभी प्रयत्न व्यर्थ हो गए। तब कामदेव निराश हो गए और मेरे पास आए और मुझे
प्रणाम करके बोले ;- हे भगवन्! मैं इतना शक्तिशाली नहीं हूं, जो शिवजी को मोह सकूं। यह बात सुनकर मैं चिंता में डूब गया। उसी समय मेरे सांस लेने से बहुत से भयंकर गण प्रकट हो गए। जो अनेक वाद्य-यंत्रों को जोर-जोर से बजाने लगे और 'मारो-मारो' की आवाज करने लगे। ऐसी अवस्था देखकर कामदेव ने उनके विषय में मुझसे प्रश्न किया। तब मैंने उन गणों को 'मार' नाम प्रदान कर उन्हें कामदेव को सौंप दिया और बताया कि ये सदा तुम्हारे वश में रहेंगे। तुम्हारी सहायता के लिए ही इनका जन्म हुआ है। यह सुनकर रति और कामदेव बहुत प्रसन्न हुए।
काम ने कहा ;- प्रभु! मैं आपकी आज्ञा के अनुसार पुनः शिवजी को मोहित करने के लिए जाऊंगा परंतु मुझे यह लगता है कि मैं उन्हें मोहने में सफल नहीं हो पाऊंगा। साथ ही मुझे इस बात का भी डर है कि कहीं वे आपके शाप के अनुसार मुझे भस्म न कर दें। यह कहकर कामदेव रति, बसंत और अपने मारगणों को साथ लेकर पुनः शिवधाम को चले गए। कामदेव ने शिवजी को मोहित करने के लिए बहुत से उपाय किए परंतु वे परमात्मा शिव को मोहित करने में सफल न हो सके। फिर कामदेव वहां से वापस आ गए और मुझे अपने असफल होने की सूचना दी। मुझसे कामदेव कहने लगे कि हे ब्रह्मन्! आप ही शिवजी को मोह में डालने का उपाय करें। मेरे लिए उन्हें मोहना संभव नहीं है ।
【श्रीरुद्र संहिता】
【द्वितीय खण्ड】
दसवां अध्याय
"ब्रह्मा-विष्णु संवाद"
ब्रह्माजी बोले ;– नारद ! काम के चले जाने पर श्री महादेव जी को मोहित कराने का मेरा अहंकार गिरकर चूर-चूर हो गया परंतु मेरे मन में यही चलता रहा कि ऐसा क्या करूं, जिससे महात्मा शिवजी स्त्री ग्रहण कर लें। यह सोचते सोचते मुझे विष्णुजी का स्मरण हुआ। उन्हें याद करते ही पीतांबरधारी श्रीहरि विष्णु मेरे सामने प्रकट हो गए। मैंने उनकी प्रसन्नता के लिए उनकी बहुत स्तुति की। तब विष्णुजी मुझसे पूछने लगे कि मैंने उनका स्मरण कि उद्देश्य से किया था? यदि तुम्हें कोई दुख या कष्ट है तो कृपया मुझे बताओ मैं उस दुख को मिटा दूंगा।
तब मैंने उनसे कहा ;- हे केशव! यदि भगवान शिव किसी तरह पत्नी ग्रहण कर लें अर्थात विवाह कर लें तो मेरे सभी दुख दूर हो जाएंगे। मैं पुनः सुखी हो जाऊंगा। मेरी यह बात सुनकर भगवान मधुसूदन हंसने लगे और मुझ लोकस्रष्टा ब्रह्मा का हर्ष बढ़ाते हुए बोले हे ब्रह्माजी ! मेरी बातों को सुनकर आपके सभी भ्रमों का निवारण हो जाएगा। शिवजी ही सबके कर्ता और भर्ता हैं। वे ही इस संसार का पालन करते हैं। वे ही पापों का नाश करते हैं। भगवान शिव ही परब्रह्म, परेश, निर्गुण, नित्य, अनिर्देश्य, निर्विकार, अद्वितीय, अनंत और सबका अंत करने वाले हैं। वे सर्वव्यापी हैं। तीनों गुणों को आश्रय देने वाले, ब्रह्मा, विष्णु और महेश नाम से प्रसिद्ध रजोगुण, तमोगुण, सत्वगुण से दूर एवं माया से रहित हैं। भगवान शिव योगपरायण और भक्तवत्सल हैं।
हे विधे! जब भगवान शिव ने आपकी कृपा से हमें प्रकट किया था। उस समय उन्होंने हमें बताया था कि यद्यपि ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र तीनों मेरे ही अवतार होंगे परंतु रुद्र को मेरा पूर्ण रूप माना जाएगा। इसी प्रकार देवी उमा के भी तीन रूप होंगे। एक रूप का नाम लक्ष्मी होगा और वह श्रीहरि की पत्नी होंगी। दूसरा रूप सरस्वती का होगा और वे ब्रह्माजी की पत्नी होंगी। देवी सती उमा का पूर्णरूप होंगी। वे ही भावी रुद्र की पत्नी होंगी। ऐसा कहकर भगवान महेश्वर वहां से अंतर्धान हो गए। समय आने पर हम दोनों (ब्रह्मा-विष्णु) का विवाह देवी सरस्वती और देवी लक्ष्मी से हुआ।
भगवान शिव ने रुद्र के रूप में अवतार लिया। वे कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं। जैसा कि भगवान शिव ने बताया था कि रुद्र अवतार की पत्नी देवी सती होंगी, जो साक्षात शिवा रूप हैं। अतः तुम्हें उनके अवतरण हेतु प्रार्थना करनी चाहिए। अपने मनोरथ का ध्यान करते हुए देवी शिवा की स्तुति करो। वे देवेश्वरी प्रसन्न होने पर तुम्हारी सभी परेशानियों और बाधाओं को दूर कर देंगी। इसलिए तुम सच्चे हृदय से उनका स्मरण कर उनकी स्तुति करो। यदि शिवा प्रसन्न हो जाएंगी तो वे पृथ्वी पर अवतरित होंगी। वे इस लोक में किसी मनुष्य की पुत्री बनकर मानव शरीर धारण करेंगी। तब वे निश्चय ही भगवान रुद्र का वरण कर उन्हें पति रूप में प्राप्त करेंगी। तब तुम्हारी सभी इच्छाएं अवश्य ही पूर्ण होंगी। अतएव तुम प्रजापति दक्ष को यह आज्ञा दो कि वे तपस्या करना आरंभ करें। उनके तप के प्रभाव से ही पार्वती देवी सती के रूप में उनके यहां जन्म लेंगी। देवी सती ही महोदव को विवाह सूत्र में बांधेंगी। शिवा और शिवजी दोनों निर्गुण और परम ब्रह्मस्वरूप हैं और अपने भक्तों के पूर्णतः अधीन हैं। वे उनकी इच्छानुसार कार्य करते हैं।
ऐसा कहकर भगवान श्रीहरि विष्णु वहां से अंतर्धान हो गए। उनकी बातें सुनकर मुझे बड़ा संतोष हुआ क्योंकि मुझे मेरे दुखों और कष्टों का निवारण करने का उपाय मालूम हो गया था।
【श्रीरुद्र संहिता】
【द्वितीय खण्ड】
ग्यारहवां अध्याय
"ब्रह्माजी की काली देवी से प्रार्थना"
नारद जी बोले ;- पूज्य पिताजी! विष्णुजी के वहां से चले जाने पर क्या हुआ? ब्रह्माजी कहने लगे कि जब भगवान विष्णु वहां से चले गए तो मैं देवी दुर्गा का स्मरण करने लगा और उनकी स्तुति करने लगा। मैंने मां जगदंबा से यही प्रार्थना की कि वे मेरा मनोरथ पूर्ण करें। वे पृथ्वी पर अवतरित होकर भगवान शिव का वरण कर उन्हें विवाह बंधन में बांधें। मेरी अनन्य भक्ति-स्तुति से प्रसन्न हो योगनिद्रा चामुण्डा मेरे सामने प्रकट हुईं। उनकी कज्ज्ल सी कांति, रूप सुंदर और दिव्य था। वे चार भुजाओं वाले शेर पर बैठी थीं। उन्हें सामने देख मैंने उनको अत्यंत नम्रता से प्रणाम किया और उनकी पूजा-उपासना की। तब मैंने उन्हें बताया कि देवी! भगवान शिव रुद्र रूप में कैलाश पर्वत पर निवास कर रहे हैं। वे समाधि लगाकर तपस्या में लीन हैं। वे पूर्ण योगी हैं। भगवान रुद्र ब्रह्मचारी हैं और वे गृहस्थ जीवन में प्रवेश नहीं करना चाहते। वे विवाह नहीं करना चाहते। अतः आप उन्हें मोहित कर उनकी पत्नी बनना स्वीकार करें।
हे देवी! स्त्री के कारण ही भगवान शिव ने मेरा मजाक उड़ाया है और मेरी निंदा की है। इसलिए मैं भी उन्हें स्त्री के लिए आसक्त देखना चाहता हूं। देवी! आपके अलावा कोई भी इतना शक्तिशाली नहीं है कि वह भगवान शंकर को मोह में डाले। मेरा आपसे अनुरोध है कि आप प्रजापति दक्ष के यहां उनकी कन्या के रूप में जन्म लें और भगवान शिव का वरण कर उन्हें गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कराएं।
देवी चामुण्डा बोलीं ;- हे ब्रह्मा ! भगवान शिव तो परम योगी हैं। भला उनको मोहित करके तुम्हें क्या लाभ होगा? इसके लिए तुम मुझसे क्या चाहते हो? मैं तो हमेशा से ही उनकी दासी हु। उन्होंने अपने भक्तों का उद्धार करने के लिए ही रुद्र अवतार धारण किया है। यह कहकर वे शिवजी का स्मरण करने लगीं। फिर वे कहने लगीं कि यह तो सच है कि कोई भगवान शिव को मोहमाया के बंधनों में नहीं बांध सकता। इस संसार में कोई भी शिवजी को मोहित ' नहीं कर सकता। मुझमें भी इतनी शक्ति नहीं है कि उन्हें उनके कर्तव्य पथ से विमुख कर सकूं। फिर भी आपकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर मैं इसका प्रयत्न करूंगी जिससे भगवान शिव मोहित होकर विवाह कर लें। मैं सती रूप धारण कर पृथ्वी पर अवतरित होऊंगी। यह कहकर देवी वहां से अंतर्धान हो गई।
【श्रीरुद्र संहिता】
【द्वितीय खण्ड】
बारहवां अध्याय
"दक्ष की तपस्या"
नारद जी ने पूछा ;- हे ब्रह्माजी! उत्तम व्रत का पालन करने वाले प्रजापति दक्ष ने तपस्या करके देवी से कौन-सा वरदान प्राप्त किया? और वे किस प्रकार दक्ष की कन्या के रूप में जन्मीं?
ब्रह्माजी बोले ;- हे नारद! मेरी आज्ञा पाकर प्रजापति दक्ष क्षीरसागर के उत्तरी तट पर चले गए। वे उसी तट पर बैठकर देवी उमा को अपनी पुत्री के रूप में प्राप्त करने के लिए, उन्हें हृदय से स्मरण करते हुए तपस्या करने लगे। मन को एकाग्र कर प्रजापति दक्ष दृढ़ता से कठोर व्रत का पालन करने लगे। उन्होंने तीन हजार दिव्य वर्षों तक घोर तपस्या की। वे केवल जल और हवा ही ग्रहण करते थे। तत्पश्चात देवी जगदंबा ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिए । कालिका देवी अपने सिंह पर विराजमान थीं। उनकी श्यामल कांति व मुख अत्यंत मोहक था। उनकी चार भुजाएं थीं। वे एक हाथ में वरद, दूसरे में अभय, तीसरे में नीलकमल और चौथे हाथ में खड्ग धारण किए हुए थीं। उनके दोनों नेत्र लाल थे और केश लंबे व खुले हुए थे। देवी का स्वरूप बहुत ही मनोहारी था। उत्तम आभा से प्रकाशित देवी को दक्ष और उनकी पत्नी ने श्रद्धापूर्वक नमस्कार किया। उन्होंने देवी की श्रद्धाभाव से स्तुति की।
दक्ष बोले ;- हे जगदंबा! भवानी! कालिका! चण्डिके! महेश्वरी! मैं आपको नमस्कार करता हूं। मैं आपका बहुत आभारी हूं, जो आपने मुझे दर्शन दिए हैं। हे देवी! मुझ पर प्रसन्न होइए।
ब्रह्माजी ने कहा ;- हे नारद! देवी जगदंबा ने स्वयं ही दक्ष के मन की इच्छा जान ली थी।
वे बोलीं ;- दक्ष! मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। तुम अपने मन की इच्छा मुझे बताओ। मैं तुम्हारे सभी दुखों को अवश्य दूर करूंगी। तुम अपनी इच्छानुसार वरदान मांग सकते हो। जगदंबा की यह बात सुनकर प्रजापति दक्ष बहुत प्रसन्न हुए और देवी को प्रणाम करने लगे।
दक्ष बोले ;- हे देवी! आप धन्य हैं। आप ही प्रसन्न होने पर मनोवांछित फल देने वाली हैं। हे देवी! यदि आप मुझे वर देना चाहती हैं तो मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें और मेरी इच्छा पूर्ण करें। हे जगदंबा, मेरे स्वामी शिव ने रुद्र अवतार धारण किया है परंतु अब तक आपने कोई अवतार धारण नहीं किया है। आपके सिवा कौन उनकी पत्नी होने योग्य है।
अतः हे देवी! आप मेरी पुत्री के रूप में धरती पर जन्म लें और भगवान शिव को अपने रूप लावण्य से मोहित करें। हे जगदंबा! आपके अलावा कोई भी शिवजी को कभी मोहित नहीं कर सकता। इसलिए आप हर मोहिनी अर्थात भगवान को मोहने वाली बनकर संपूर्ण जगत का हित कीजिए। यही मेरे लिए वरदान है।
दक्ष का यह वचन सुनकर जगदंबिका हंसने लगीं और मन में भगवान शिव का स्मरण कर बोलीं ;- हे प्रजापति दक्ष! तुम्हारी पूजा-आराधना से मैं प्रसन्न हूं।
तुम्हारे वर के अनुसार मैं तुम्हारी पुत्री के रूप में जन्म लूंगी। तत्पश्चात बड़ी होकर मैं कठोर तप द्वारा महादेव जी को प्रसन्न कर, उन्हें पति रूप में प्राप्त करूंगी। मैं उनकी दासी हूं। प्रत्येक जन्म में शिव शंभु ही मेरे स्वामी होते हैं। अतः मैं तुम्हारे घर में जन्म लेकर शिवा का अवतार धारण करूंगी। अब तुम घर जाओ। परंतु एक बात हमेशा याद रखना । जिस दिन तुम्हारे मन में मेरा आदर कम हो जाएगा उसी दिन मैं अपना शरीर त्यागकर अपने स्वरूप में लीन हो जाऊंगी।
यह कहकर देवी जगदंबिका वहां से अंतर्धान हो गईं तथा प्रजापति दक्ष सुखी मन से घर लौट आए।
【श्रीरुद्र संहिता】
【द्वितीय खण्ड】
तेरहवां अध्याय
"दक्ष द्वारा मैथुनी सृष्टि का आरंभ"
ब्रह्माजी कहते हैं ;— हे नारद! प्रजापति दक्ष देवी का वरदान पाकर अपने आश्रम में लौट आए। मेरी आज्ञा पाकर प्रजापति दक्ष मानसिक सृष्टि की रचना करने लगे परंतु फिर भी प्रजा की संख्या में वृद्धि होती न देखकर वे बहुत चिंतित हुए और मेरे पास आकर कहने लगे- हे प्रभो! मैंने जितने भी जीवों की रचना की है वे सभी उतने ही रह गए अर्थात उनमें कोई भी वृद्धि नहीं हो पाई। हे तात! मुझे कृपा कर ऐसा कोई उपाय बताइए जिससे वे जीव अपने आप बढ़ने लगें ।
ब्रह्माजी बोले ;- प्रजापति दक्ष ! मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनो। तुम त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की भक्ति करते हुए यह कार्य संपन्न करो। वे निश्चय ही तुम्हारा कल्याण करेंगे। तुम प्रजापति वीरण की परम सुंदर पुत्री असिक्नी से विवाह करो और स्त्री के साथ मैथुन-धर्म का आश्रय लेकर प्रजा बढ़ाओ। असिक्नी से तुम्हें बहुत सी संतानें प्राप्त होंगी। मेरी आज्ञा के अनुसार दक्ष ने वीरण की पुत्री असिक्नी से विवाह कर लिया। उनकी पत्नी के गर्भ से उन्हें दस हजार पुत्रों की प्राप्ति हुई। ये हर्यश्व नाम से जाने गए। सभी पुत्र धर्म के पथ पर चलने वाले थे। एक दिन अपने पिता दक्ष से उन्हें प्रजा की सृष्टि करने का आदेश मिला। तब इस उद्देश्य से तपस्या करने के लिए वे पश्चिम दिशा में स्थित नारायण सर नामक तीर्थ पर गए।
वहां सिंधु नदी व समुद्र का संगम हुआ है। उस पवित्र तीर्थ के जल के स्पर्श से उनका मन उज्ज्वल और ज्ञान से संपन्न हो गया। वे उसी स्थान पर प्रजा की वृद्धि के लिए तप करने लगे। नारद! इस बात को जानने के बाद तुम श्रीहरि विष्णु की इच्छा से उनके पास गए और बोले- दक्षपुत्र हर्यश्वगण! तुम पृथ्वी का अंत देखे बिना सृष्टि की रचना करने के लिए कैसे उद्यत हो गए?
ब्रह्माजी बोले ;- हर्यश्व बड़े ही बुद्धिमान थे। वे तुम्हारा प्रश्न सुनकर उस पर विचार करने लगे। वे सोचने लगे, कि जो उत्तम शास्त्ररूपी पिता के निवृत्तिपरक आदेश को नहीं समझता, वह केवल रजो गुण पर विश्वास करने वाला पुरुष सृष्टि निर्माण का कार्य कैसे कर सकता है? इस बात को समझकर वे नारद जी की परिक्रमा करके ऐसे रास्ते पर चले गए, जहां से वापस लौटना असंभव है।
जब प्रजापति दक्ष को यह पता चला कि उनके सभी पुत्र नारद से शिक्षा पाकर मेरी आज्ञा को भूलकर ऐसे स्थान पर चले गए, जहां से लौटा नहीं जा सकता, तो दक्ष इस बात से बहुत दुखी हुए। वे पुत्रों के वियोग को सह नहीं पा रहे थे। तब मैंने उन्हें बहुत समझाया और उन्हें सांत्वना दी। तब पुनः दक्ष की पत्नी असिक्नी के गर्भ से शबलाश्व नामक एक सहस्र पुत्र हुए। वे सभी अपने पिता की आज्ञा को पाकर पुनः तपस्या के लिए उसी स्थान पर चले गए, जहां उनके बड़े भाई गए थे। नारायण सरोवर के जल के स्पर्श से उनके सभी पाप नष्ट हो गए और मन शुद्ध हो गया। वे उसी तट पर प्रणव मंत्र का जाप करते हुए तपस्या करने लगे। तब नारद तुमने पुनः वही बातें, जो उनके भाइयों को कहीं थीं, उन्हें भी बता दीं और तुम्हारे दिखाए मार्ग के अनुसार वे अपने भाइयों के पथ पर चलते उर्ध्वगति को प्राप्त हुए। दक्ष को इस बात से बहुत दुख हुआ और वे दुख से बेहोश हो गए। जब प्रजापति दक्ष को ज्ञात हुआ कि यह सब नारद की वजह से हुआ है तो उन्हें बहुत क्रोध आया। संयोग से तुम भी उसी समय वहां पहुंच गए। तुम्हें देखते ही क्रोध के कारण वे तुम्हारी निंदा करने लगे और तुम्हें धिक्कारने लगे।
वे बोले ;- तुमने सिर्फ दिखाने के लिए ऋषियों का रूप धारण कर रखा है। तुमने मेरे पुत्रों को ठगकर उन्हें भिक्षुओं का मार्ग दिखाया है। तुमने लोक और परलोक दोनों के श्रेय का नाश कर दिया है। जो मनुष्य ऋषि, देव और पितृ ऋणों को उतारे बिना ही मोक्ष की इच्छा मन में लिए माता-पिता को त्यागकर घर से चला जाता है, संन्यासी बन जाता है वह अधोगति को प्राप्त हो जाता है। हे नारद! तुमने बार-बार मेरा अमंगल किया है। इसलिए मैं तुम्हें शाप देता हूं कि तुम कहीं भी स्थिर नहीं रह सकोगे। तीनों लोकों में विचरते हुए तुम्हारा पैर कहीं भी स्थिर नहीं रहेगा अर्थात तुम्हें ठहरने के लिए सुस्थिर ठिकाना नहीं मिलेगा। नारद! यद्यपि तुम साधुपुरुषों द्वारा सम्मानित हो, परंतु तुम्हें शोकवश दक्ष ने ऐसा शाप दिया, जिसे तुमने शांत मन से ग्रहण कर लिया और तुम्हारे मन में किसी प्रकार का विकार नहीं आया।
【श्रीरुद्र संहिता】
【द्वितीय खण्ड】
चौदहवां अध्याय
"दक्ष की साठ कन्याओं का विवाह"
ब्रह्माजी बोले ;- हे मुनिराज! दक्ष के इस रूप को जानकर मैं उसके पास गया। मैंने उसे शांत करने का बहुत प्रयत्न किया और सांत्वना दी। मैंने उसे तुम्हारा परिचय दिया। दक्ष को मैंने यह जानकारी भी दी कि तुम भी मेरे पुत्र हो। तुम मुनियों में श्रेष्ठ एवं देवताओं के प्रिय हो। तत्पश्चात प्रजापति दक्ष ने अपनी पत्नी से साठ सुंदर कन्याएं प्राप्त कीं। तब उनका धर्म आदि के साथ विवाह कर दिया। दक्ष ने अपनी दस कन्याओं का विवाह धर्म से, तेरह कन्याओं का ब्याह कश्यप मुनि से और सत्ताईस कन्याओं का विवाह चंद्रमा से कर दिया। दो दो भूतागिरस और कृशाश्व को और शेष चार कन्याओं का विवाह तार्क्ष्य के साथ कर दिया। इन सबकी संतानों से तीनों लोक भर गए । पुत्र-पुत्रियों की उत्पत्ति के पश्चात प्रजापति दक्ष ने अपनी पत्नी सहित देवी जगदंबिका का ध्यान किया। देवी की बहुत स्तुति की। प्रजापति दक्ष की सपत्नीक स्तुति से देवी जगदंबिका ने प्रसन्न होकर दक्ष की पत्नी के गर्भ से जन्म लेने का निश्चय किया। उत्तम मुहूर्त देखकर दक्ष पत्नी ने गर्भ धारण किया। उस समय उनकी शोभा बढ़ गई।
भगवती के निवास के प्रभाव से दक्ष पत्नी महामंगल रूपिणी हो गई। देवी को गर्भ में जानकर सभी देवी-देवताओं ने जगदंबा की स्तुति की। नौ महीने बीत जाने पर शुभ मुहूर्त में देवी भगवती का जन्म हुआ। उनका मुख दिव्य आभा से सुशोभित था। उनके जन्म के समय आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी और मेघ जल बरसाने लगे। देवता आकाश में खड़े मांगलिक ध्वनि करने लगे। यज्ञ की बुझी हुई अग्नि पुनः जलने लगी। साक्षात जगदंबा को प्रकट हुए देखकर दक्ष ने भक्ति भाव से उनकी स्तुति की।
स्तुति सुनकर देवी प्रसन्न होकर बोली ;- हे प्रजापते! तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर मैंने तुम्हारे घर में पुत्री के रूप में जन्म लेने का जो वर दिया था, वह आज पूर्ण हो गया है । यह कहकर उन्होंने पुनः शिशु रूप धारण कर लिया तथा रोने लगीं। उनका रोना सुनकर दासियां उन्हें चुप कराने हेतु वहां एकत्र हो गईं। जन्मोत्सव में गीत और अनेक वाद्य यंत्र बजने लगे। दक्ष ने वैदिक रीति से अनुष्ठान किया और ब्राह्मणों को दान दिया। उन्होंने अपनी पुत्री का नाम 'उमा' रखा। देवी उमा का पालन बहुत अच्छे तरीके से किया जा रहा था। वह बालकपन में बहुत सी लीलाएं करती थीं। देवी उमा इस प्रकार बढ़ने लगीं जैसे शुक्ल पक्ष में चंद्रमा की कला बढ़ती है। जब भी वे अपनी सखियों के बैठतीं, वे भगवान शिव की मूर्ति को ही चित्रित करती थीं। वे सदा प्रभु शिव के भजन गाती थीं। उन्हीं का स्मरण करतीं और भगवान शिव की भक्ति में ही लीन रहतीं।
【श्रीरुद्र संहिता】
【द्वितीय खण्ड】
पंद्रहवां अध्याय
"सती की तपस्या"
ब्रह्माजी बोले ;- हे नारद! एक दिन मैं तुम्हें लेकर प्रजापति दक्ष के घर पहुंचा। वहां मैंने देवी सती को उनके पिता के पास बैठे देखा। मुझे देखकर दक्ष ने आसन से उठकर मुझे नमस्कार किया। तत्पश्चात सती ने भी प्रसन्नतापूर्वक मुझे नमस्कार किया। हम दोनों वहां आसन पर बैठ गए। तब मैंने देवी सती को आशीर्वाद देते हुए कहा- सती! जो केवल तुम्हें चाहते हैं और तुम्हारी ही कामना करते हैं। तुम भी मन में उन्हीं को सोचती हो और उसी के रूप का स्मरण करती हो। उन्हीं सर्वज्ञ जगदीश्वर महादेव को तुम पति रूप में प्राप्त करो। वे ही तुम्हारे योग्य हैं। कुछ देर बाद दक्ष से विदा लेकर मैं अपने धाम को चल दिया। दक्ष को मेरी बातें सुनकर बड़ा संतोष एवं प्रसन्नता हुई। मेरे कथन से उनकी सारी चिंताएं दूर हो गईं। धीरे-धीरे सती ने कुमारावस्था पार कर ली और वे युवा अवस्था में प्रवेश कर गईं। उनका रूप अत्यंत मनोहारी था। उनका मुख दिव्य तेज से शोभायमान था। देवी सती को देखकर प्रजापति दक्ष को उनके विवाह की चिंता होने लगी। तब पिता के मन की बात जानकर देवी सती ने महादेव को पति रूप में पाने की इच्छा अपनी माता को बताई। उन्होंने अपनी माता से भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तपस्या करने की आज्ञा मांगी। उनकी माता ने आज्ञा देकर घर पर ही उनकी आराधना आरंभ करा दी।
आश्विन मास में नंदा अर्थात प्रतिपदा, षष्ठी और एकादशी तिथियों में उन्होंने भक्तिपूर्वक भगवान शिव का पूजन कर उन्हें गुड़, भात और नमक का भोग लगाया व नमस्कार किया। इसी प्रकार एक मास बीत गया। कार्तिक मास की चतुर्दशी को देवी सती ने मालपुओं और खीर से भगवान शिव को भोग लगाया और उनका निरंतर चिंतन करती रहीं।
मार्गशीर्ष : के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को वे तिल, जौ और चावल से शिवजी की आराधना करतीं और घी का दीपक जलातीं । पौष माह की शुक्ल पक्ष सप्तमी को पूरी रात जागरण कर सुबह खिचड़ी का भोग लगातीं । माघ की पूर्णिमा की रातभर वे शिव आराधना में लीन रहतीं और सुबह नदी में स्नान कर गीले वस्त्रों में ही पुनः पूजा करने बैठ जाती थीं। फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को जागरण कर शिवजी की विशेष पूजा करती थीं। उनका सारा समय शिवजी को समर्पित था। वे अपने दिन-रात शिवजी के स्मरण में ही बिताती थीं। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को वे ढाक के फूलों और दवनों से भगवान की पूजा करती थीं। वैशाख माह में वे सिर्फ तिलों को खाती थीं। वे नए जौ के भात से शिव पूजन करती थीं। ज्येष्ठ माह में वे भूखी रहतीं और वस्त्रों तथा भटकटैया के फूलों से शिव पूजन करती थीं। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को वे काले वस्त्रों और भटकटैया से रुद्रदेव का पूजन करती थीं। श्रावण मास में यज्ञोपवीत, वस्त्रों तथा कुश आदि से वे पूजन करती थीं।
भाद्रपद मास में विभिन्न फूलों व फलों से वे शिव को प्रसन्न करने की कोशिश करतीं। वे सिर्फ जल ही ग्रहण करती थीं। देवी सती हर समय भगवान शिव की आराधना में ही लीन रहती थीं। इस प्रकार उन्होंने दृढ़तापूर्वक नंदा व्रत को पूरा किया। व्रत पूरा करने के पश्चात वे शिवजी का ध्यान करने लगीं। वे निश्चित आसन में स्थित हो निरंतर शिव आराधना करती रहीं।
हे नारद! देवी सती की इस अनन्य भक्ति और तपस्या को अपनी आंखों से देखने मैं, विष्णु तथा अन्य सभी देवी-देवता और ऋषि-मुनि वहां गए। वहां सभी ने देवी सती को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और उनके सामने मस्तक झुकाए। सभी देवी-देवताओं ने उनकी तपस्या को सराहा। तब सभी देवी-देवता और ऋषि-मुनि मेरे (ब्रह्मा) और विष्णु सहित कैलाश पर्वत पर पहुंचे। वहां भगवान शिव ध्यानमग्न थे। हमने उनके निकट जाकर, दोनों हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया तथा उनकी स्तुति आरंभ कर दी।
हमने कहा प्रभो! आप परम शक्तिशाली हैं। आप ही सत्व, रज और तप आदि शक्तियों के स्वामी हैं। वेदत्रयी, लोकत्रयी आपका स्वरूप है। आप अपनी शरण में आए भक्तों की सदैव रक्षा करते हैं। आप सदैव भक्तों का उद्धार करते हैं। हे महादेव! हे महेश्वर! हम आपको नमस्कार करते हैं। आपकी महिमा जान पाना कठिन ही नहीं असंभव है। हम आपके सामने अपना मस्तक झुकाते हैं।
ब्रह्माजी बोले ;- नारद! इस प्रकार भगवान शिव-शंकर की स्तुति करके सभी देवता मस्तक झुकाकर शिवजी के सामने चुपचाप खडे़ हो गए।