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शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (तृतीय खण्ड) के इक्यावन वे अध्याय से पचपनवें अध्याय तक (From the fifty-first to the fifty-fifth chapter of the Shiva Purana Sri Rudra Samhita (3rd volume))

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

इक्यावनवाँ अध्याय 

"रति की प्रार्थना पर कामदेव को जीवनदान"

ब्रह्माजी बोले ;- हे नारद जी ! उस समय अनुकूल समय देखकर देवी रति भगवान शिव के निकट आकर बोलीं- हे दीनवत्सल भगवान शिव! आपको मैं प्रणाम करती हूं। देवी पार्वती का पाणिग्रहण करके आपने निश्चय ही लोकहित का कार्य किया है। देवी पार्वती को प्राणवल्लभा बनाने से आपके सौभाग्य में निश्चय ही वृद्धि हुई है। आपने तो पार्वती का वरण कर लिया है परंतु भगवन् मेरे पति कामदेव की क्या गलती थी? उन्होंने तो लोककल्याण वश सभी देवताओं की प्रार्थना मानकर आपके हृदय में पार्वती के प्रति आसक्ति पैदा करने हेतु ही कामबाणों का उपयोग किया था। उनका यह कार्य तो इस संसार को तारकासुर नामक भयानक और दुष्ट असुर से मुक्ति दिलाने के लिए प्रेरित करना था। वे तो स्वार्थ से दूर थे ? फिर क्यों आपने उन्हें अपनी क्रोधाग्नि से भस्म कर दिया?

हे देवाधिदेव महादेव जी! हे करुणानिधान! भक्तवत्सल ! अपने मन में काम को जगाकर मेरे पति कामदेव को पुनर्जीवित कर मेरे वियोग के कष्ट को दूर करें। आप तो सब की पीड़ा जानते हैं। मेरी पीड़ा को समझकर मेरे दुख को दूर करने में मेरी मदद कीजिए । भगवन्, आज जब सबके हृदय में प्रसन्नता है तो मेरा मन क्यों दुखी हो? मैं अपने पति के बिना कब तक ऐसे ही रहूं? भगवन्, आप तो दीनों के दुख दूर करने वाले हैं। अब आप अपनी कही बात को सच कर दीजिए । भगवन् इस त्रिलोक में आप ही मेरे इस कष्ट और दुख को दूर कर सकते हैं। प्रभो! मुझ पर दया कीजिए और मुझे भी सुखी करके आनंद प्रदान कीजिए। भगवन्! अपने विवाह के शुभ अवसर पर मुझे भी मेरे पति से हमेशा के लिए मिलाकर मेरी विरह-वेदना को कम कीजिए। महादेव जी! मेरे पति कामदेव को जीवित कर मुझ दीन-दासी को कृतार्थ कीजिए ।

ऐसा कहकर देवी रति ने अपने दुपट्टे की गांठ में बंधी अपने पति कामदेव के शरीर की भस्म को भगवान शिव के सामने रख दिया और जोर-जोर से रोते-रोते भगवान शिव शंकर से कामदेव को जीवित करने की प्रार्थना करने लगी। देवी रति को इस प्रकार रोते हुए देखकर वहां उपस्थित सरस्वती आदि देवियां भी रोने लगीं और सब भगवान शिव से कामदेव को जीवनदान देने की प्रार्थना करने लगीं।

इस प्रकार देवी रति के बार-बार प्रार्थना करने और स्तुति करने पर भगवान शिव प्रसन्न हो गए और उन्होंने रति के कष्टों को दूर करने का निश्चय कर लिया। शूलपाणि भगवान शिव की अमृतमयी दिव्य दृष्टि पड़ते ही उस भस्म में से सुंदर पहले जैसा वेष और रूप धारण किए कामदेव प्रकट हो गए। अपने प्रिय पति कामदेव को पहले की भांति सुंदर और स्वस्थ पाकर देवी रति की प्रसन्नता की कोई सीमा न रही। वे कामदेव को देखकर बहुत प्रसन्न हुईं और उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर भगवान शिव को नमस्कार किया और उनकी स्तुति करने लगीं ।

दोनों पति-पत्नी कामदेव और रति बार - बार भगवान शिव के चरणों में गिरकर उनका धन्यवाद करके उनकी स्तुति करने लगे। उनकी इस प्रकार की गई स्तुति से प्रसन्न होकर" 

भगवान शिव बोले ;— हे काम और रति ! तुम्हारी इस स्तुति से मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है। मैं बहुत प्रसन्न हूं। तुम जो चाहो मनोवांछित वस्तु मांग सकते हो । भगवान शिव के ये वचन सुनकर कामदेव को बहुत प्रसन्नता हुई। 

उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर और सिर झुकाकर कहा ;- हे भगवन्! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो पूर्व में मेरे द्वारा किए गए अपराध को क्षमा कर दीजिए और मुझे वरदान दीजिए कि आपके भक्तों से मेरा प्रेम हो और आपके चरणों में मेरी भक्ति हो।

कामदेव के वचन सुनकर भगवान शंकर बहुत प्रसन्न हुए और बोले 'तथास्तु' जैसा तुम चाहते हो वैसा ही होगा । मैं तुम पर प्रसन्न हूं। तुम अपने मन से भय निकाल दो। अब तुम भगवान श्रीहरि विष्णु के पास जाओ। तत्पश्चात कामदेव ने भगवान शिव को नमस्कार किया और वहां से बाहर चले गए। उन्हें जीवित देखकर सभी देवता बहुत प्रसन्न हुए और बोले कि कामदेव आप धन्य हैं। महादेव जी ने आपको जीवनदान दे दिया।

तब कामदेव को आशीर्वाद देकर विष्णु पुनः अपने स्थान पर बैठ गए। उधर, भगवान शिव ने अपने पास बैठी देवी पार्वती के साथ भोजन किया और अपने हाथों से उनका मुंह मीठा किया। तत्पश्चात शैलराज की आज्ञा लेकर शिवजी पुनः जनवासे में चले गए। जनवासे में पहुंचकर शिवजी ने मुझे, विष्णुजी और वहां उपस्थित सभी मुनिगणों को प्रणाम किया। तब सब देवता शिवजी की वंदना और अर्चना करने लगे। फिर मैंने, विष्णुजी और इंद्रादि ने शिव स्तुति की। सब ओर भगवान शिव की जय-जयकार होने लगी और मंगलमय वेद ध्वनि बजने लगीं। भगवान शिव की स्तुति करने के पश्चात उनसे विदा लेकर सभी देवता और ऋषि-मुनि अपने-अपने विश्राम स्थल की ओर चले गए।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

बावनवाँ अध्याय 

"भगवान शिव का आवासगृह में शयन"

ब्रह्माजी बोले ;- नारद! शैलराज हिमालय ने सभी बारातियों के भोजन की व्यवस्था करने हेतु सर्वप्रथम अपने घर के आंगन को साफ कराकर सुंदर ढंग से सजाया। तत्पश्चात गिरिराज हिमालय ने अपने पुत्रों मैनाक आदि को जनवासे में भेजकर भोजन करने हेतु सभी देवी देवताओं, साधु-संतों, ऋषि-मुनियों, शिवगणों, देवगणों सहित विष्णु और भक्तवत्सल भगवान शिव को भोजन के लिए आमंत्रित किया। तब सभी देवताओं को साथ लेकर सदाशिव भोजन करने के लिए पधारे। हिमालय ने पधारे हुए सभी देवताओं एवं भगवान शिव का बहुत आदर-सत्कार किया और उन्हें उत्तम आसनों पर बैठाया। अनेकों प्रकार के भोजन परोसे गए तथा गिरिराज ने सबसे भोजन ग्रहण करने की प्रार्थना की। सभी बारातियों ने तृप्ति के साथ भोजन किया तथा आचमन करके सब देवता विश्राम के लिए अपने-अपने विश्रामस्थल पर चले गए।

तब हिमालय प्रिया देवी की आज्ञा लेकर, नगर की स्त्रियों ने भगवान शिव को सुंदर सुसज्जित वासभवन में रत्नजड़ित सिंहासन पर सादर बैठाया। वहां उस भवन में सैकड़ों रत्नों के दीपक जल रहे थे। उनकी अद्भुत जगमगाहट से पूरा भवन आलोकित हो रहा था।

उस वास भवन को अनेकों प्रकार की सामग्रियों से सजाया और संवारा गया था। मोती, मणियों एवं श्वेत चंवरों से पूरे भवन को सजाया गया था। मुक्ता-मणियों की सुंदर बंदनवारें द्वार की शोभा बढ़ा रही थीं। उस समय वह वासभवन अत्यंत दिव्य, मनोहर और मन को उमंग-तरंग से आलोकित करने वाला लग रहा था। फर्श पर सुंदर बेल-बूटे बने थे। भवन को सुगंधित करने हेतु सुवासित द्रव्यों का प्रयोग किया गया था। जिसमें चंदन और अगर का प्रयोग प्रमुख रूप से था। उस वासभवन में देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा द्वारा बनाए गए कृत्रिम बैकुण्ठलोक, ब्रह्मलोक, इंद्रलोक तथा शिवलोक सभी के दर्शन एक साथ हो रहे थे, इन्हें देखकर भगवान शिव को बहुत प्रसन्नता हुई। वासभवन में बीचोंबीच एक सुंदर रत्नों से जड़ा अद्भुत पलंग था। उस पर महादेव जी ने सोकर रात बिताई। दूसरी ओर हिमालय ने अपने बंधु-बांधवों को भोजन कराने के उपरांत बचे हुए सारे कार्य पूर्ण किए।

प्रातःकाल चारों ओर पुनः शिव विवाह का अनोखा उत्सव होने लगा। अनेकों प्रकार के सुरीले वाद्य यंत्र बजने लगे। मंगल ध्वनि होने लगी। सभी देवता अपने-अपने वाहनों को तैयार करने लगे। सभी की तैयारियां पूर्ण हो जाने के पश्चात भगवान श्रीहरि विष्णु ने धर्म को भगवान शिव के पास भेजा। तब धर्म सहर्ष भगवान शिव के पास वासभवन में गए। उस समय करुणानिधान भगवान शिव सोए हुए थे। यह देखकर योगशक्ति संपन्न धर्म ने भगवान शिव को प्रणाम करके"

 उनकी स्तुति की और बोले ;– हे महेश्वर! हे महादेव! मैं भगवान श्रीहरि विष्णु की आज्ञा से यहां आया हूं। हे भगवन्! उठिए और जनवासे में पधारिए। वहां सभी देवता और ऋषि-मुनि आपकी ही प्रतीक्षा कर रहे हैं। प्रभु वहां पधारकर हम सबको कृतार्थ करिए।

धर्म के वचन सुनकर सदाशिव बोले ;- हे धर्मदेव ! आप जनवासे में वापस जाइए । मैं अतिशीघ्र जनवासे में आ रहा हूं। भगवान शिव के ये वचन सुनकर धर्म ने भगवान शिव को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा लेकर पुनः जनवासे की ओर चले गए। उनके जाने के पश्चात भगवान शिव तैयार होकर जैसे ही चलने लगे, हिमालय नगरी की स्त्रियां उनके चरणों के दर्शन हेतु आ गईं और मंगलगान करने लगीं। तब महादेव जी ने गिरिराज हिमालय और मैना से आज्ञा ली और जनवासे की ओर चल दिए। वहां पहुंचकर महादेव जी ने मुझे और विष्णुजी सहित सभी ऋषि-मुनियों को प्रणाम किया। तब सब देवताओं सहित मैंने और विष्णुजी ने शिवजी की वंदना और स्तुति की।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

तिरेपनवाँ अध्याय 

"बारात का ठहरना और हिमालय का बारात को विदा करना "

ब्रह्माजी बोले ;- जब करुणानिधान भगवान शिव जनवासे में पधार गए तो हम सब मिलकर कैलाश लौट चलने की बातें करने लगे। तभी वहां पर पर्वतराज हिमालय पधारे और सभी को भोजन का निमंत्रण देकर वहां से चले गए। तब सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों और अन्य बारातियों को साथ लेकर भगवान शिव, मैं और श्रीहरि विष्णु भोजन ग्रहण करने हेतु नियत स्थान पर पहुंचे। वहां द्वार पर स्वयं शैलराज खड़े थे। उन्होंने सर्वप्रथम महादेव जी के चरणों को धोया और उन्हें अंदर सुंदर आसन पर बैठाया। तत्पश्चात शैलराज ने मेरे, श्रीहरि, देवराज इंद्र सहित सभी मुनियों के चरण धोए और यथायोग्य आसनों पर हम सबको आदरपूर्वक बैठाया। वहां शैलराज हिमालय अपने पुत्रों एवं बंधु-बांधवों सहित कार्य में लगे हुए थे। उन्होंने हमारे सामने अनेक स्वादिष्ट व्यंजन परोसे और हमसे ग्रहण करने के लिए कहा। तब सभी ने आनंदपूर्वक आचमन और भोजन किया। तब गिरिराज बोले- हे देवेश्वर ! आपके दर्शनों से हम आनंदित हुए हैं। आपसे एक प्रार्थना करते हैं कि आप बारातियों के साथ कुछ दिन और निवास करें। इस प्रकार शैलराज भगवान शिव से कुछ दिन और रुकने का आग्रह करने लगे। 

उनकी यह बात सुनकर भगवान शिव बोले ;- हे शैलेंद्र ! आप धन्य हैं। आपकी कीर्ति महान है। आप धर्म की साक्षात मूर्ति हैं। इस त्रिलोक में आपके समान कोई और नहीं है। तब देवताओं कहा- हे पर्वतराज! आपके दरवाजे पर परब्रह्म परमात्मा भगवान शिव स्वयं अपने दासों के साथ पधारे हैं और आपने उन्हें सब प्रकार से प्रसन्न किया है। पूजकर तब शैलराज हिमालय ने दोनों हाथ जोड़कर भगवान शिव से प्रार्थना करके कहा कि भगवन्, मुझ पर कृपा करके आप कुछ दिन और यहां रुककर मेरा आतिथ्य ग्रहण करें । गिरिराज के बहुत कहने पर भगवान शिव ने वहां ठहरने के लिए अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। तब सब हिमालय से आज्ञा लेकर अपने-अपने ठहरने के स्थान पर चले गए। तीसरे दिन, गिरिराज हिमालय ने सबको आदरपूर्वक दान दिया और उनका सत्कार किया। चौथे दिन, विधिपूर्वक चतुर्थी कर्म किया गया क्योंकि इसके बिना विवाह को पूर्ण नहीं माना जाता । जैसे ही विधि अनुसार चतुर्थी कर्म पूरा हुआ, चारों ओर मंगल ध्वनि बजने लगी। महान उत्सव होने लगा। नगर की स्त्रियां मंगल गीत गाने लगीं। कुछ तो प्रसन्न होकर नाचने भी लगीं।

पांचवें दिन सब देवताओं ने गिरिराज हिमालय से कहा कि हे पर्वतराज! आपने हमारा बहुत आदर सत्कार किया है। हम सब भगवान शिव के विवाह के लिए यहां पधारे थे। आपके सहयोग से शिव-पार्वती का विवाह आनंदपूर्वक, हर्षोल्लास के साथ संपन्न हो गया है। 

अतः अब आप हमें यहां से जाने की आज्ञा प्रदान करें परंतु गिरिराज हिमालय स्नेहपूर्वक बोले ;— हे भगवान शिव! ब्रह्माजी! श्रीहरि विष्णु, देवराज इंद्र! अपनी प्रिय पुत्री पार्वती के कठिन तप के कारण ही आज मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है कि जगत के कर्ता, पालक, संहारक सहित सभी देवता और महान ऋषि-मुनि एक साथ मेरे घर की शोभा बढ़ाने आए हैं। आप सबकी एक साथ सेवा करने का जो शुभ अवसर मुझे प्राप्त हुआ है, उसका पूरा आनंद आप मुझे उठाने दीजिए। 

हे देवाधिदेव! अपने इस तुच्छ भक्त पर इतनी सी कृपा और कर दीजिए इस प्रकार पर्वतों के राजा हिमालय ने अनेकानेक तरीके से सब देवताओं सहित शिवजी की बहुत अनुनय-विनय की और इस प्रकार उन्हें हठपूर्वक कुछ दिन और रोक लिया। हिमालय ने सबका बहुत सेवा-सत्कार किया। उन्होंने सभी का विशेष खयाल रखा। सभी की आवश्यकताओं का पूरा ध्यान रखा जाता। शैलराज ने देवताओं के लिए हर संभव सुविधा उपलब्ध कराई। इस प्रकार खूब आदर-सत्कार करके सबका मन जीत लिया।

जब बहुत दिन बीत गए तब देवताओं ने शैलराज हिमालय के पास सप्तऋषियों को भेजा ताकि वे देवी मैना और उनके पति पर्वतराज हिमालय को बारात विदा करने के लिए तैयार करें। तब वे सप्तऋषि प्रसन्न हृदय से शैलराज हिमालय के पास पहुंचे और उनके भाग्य की सराहना करने लगे कि आपके अहोभाग्य हैं, जो स्वयं भगवान शिव आपके दामाद बने । पर्वतराज! आपने अपनी पुत्री पार्वती को शास्त्रों एवं वेदों के अनुसार भगवान शिव की पत्नी बनाकर उन्हें सौंप दिया है। कन्यादान तभी पूर्ण माना जाता है, जब कन्या को बारात के साथ विदा कर दिया जाता है। इसलिए आप भी सहर्ष देवी पार्वती को भगवान शिव के साथ सादर विदा कर दीजिए तभी कन्यादान की रस्म पूरी होगी। तब मैना और उनके पति गिरिराज हिमालय बारात को विदा करने के लिए राजी हो गए।

जब भगवान शिव और सभी देवता और ऋषि-मुनि विदा लेकर कैलाश पर्वत की ओर चलने लगे तब देवी मैना जोर-जोर से रोने लगीं और बोलीं ;- हे कृपानिधान भगवान शिव ! मेरी पुत्री पार्वती का ध्यान रखिएगा। मेरी पुत्री आपकी परम भक्त है। सोते-जागते वह सिर्फ आपके चरणों का ही ध्यान करती है। आप सदा उसके हृदय में विराजमान रहते हैं। आपके गुणगान करते वह नहीं थकती और आपकी निंदा कतई सुन नहीं सकती। यदि मेरी बच्ची से जाने-अनजाने में कोई अपराध हो जाए तो उसे क्षमा कर दीजिएगा। आप तो भक्तवत्सल हैं, करुणानिधान हैं। मेरी पुत्री पर अपनी कृपादृष्टि बनाए रखिएगा। ऐसा कहकर मैना ने अपनी पुत्री भगवान शिव को सौंप दी। कितने आश्चर्य की बात है कि प्रत्येक माता-पिता इस बात को जानते हैं कि बेटियां धान के पौधे की तरह होती हैं, वे जहां जन्मती हैं, वहां वृद्धि को प्राप्त नहीं होती हैं, फिर भी उसकी विदाई के समय वे दुखी होते हैं, अनजाने ही अपनी आंखों से आंसुओं की झड़ी कैसे लग जाती है।

अपनी प्रिय पुत्री पार्वती के वियोग को सोचते ही वे मूर्च्छित होकर जमीन पर गिर पड़ीं। तब उनके मुंह पर जल की बूंदें डालकर उन्हें होश में लाया गया। तब सदाशिव ने देवी मैना को अनेकों प्रकार से समझाया ताकि वे अपना दुख भूल जाएं। फिर कुछ समय के लिए मैना और पार्वती को अकेला छोड़कर भगवान शिव सब देवताओं व अपने गणों के साथ हिमालय से आज्ञा लेकर चल दिए । हिमालय नगरी के एक सुंदर बगीचे में बैठकर वे सब प्रसन्नतापूर्वक भगवान शिव की प्राणवल्लभा पत्नी देवी पार्वती के आगमन की बांट संजोए उनकी प्रतीक्षा करने लगे। वे शिवगण प्रसन्नतापूर्वक प्रभु महादेव जी की जय-जयकार कर रहे थे।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

चौवनवाँ अध्याय 

"पार्वती को पतिव्रत धर्म का उपदेश"


ब्रह्माजी बोले ;– हे मुनिश्रेष्ठ नारद! जब शैलराज हिमालय और देवी मैना से आज्ञा लेकर भगवान शिव सभी देवताओं और ऋषि-मुनियों सहित अन्य देवगणों व शिवगणों को साथ लेकर उस स्थान से बाहर चले गए, तब सप्तऋषियों ने कहा कि हे शैलराज! अपनी पुत्री को शीघ्र ही भगवान शिव के साथ भेजने की कृपा करें। यह सुनकर हिमालय बहुत व्याकुल हो गए। उन्होंने देवी मैना से पार्वती को भेजने के लिए कहा। देवी मैना ने वैदिक रीति का पालन करते हुए अपनी पुत्री का सुंदर वस्त्रों और आभूषणों से शृंगार किया। उस समय मैना ने एक ब्राह्मण पत्नी को बुलाकर पतिव्रत धर्म की शिक्षा देने के लिए कहा।

ब्राह्मण पत्नी ने वहां आकर पार्वती को शिक्षा देते हुए कहा ;- हे पार्वती! इस सुंदर संसार में नारी विशेष पूजनीय मानी जाती है। जो स्त्रियां पतिव्रत का पालन करती हैं, वे धन्य हैं। वे दोनों कुलों को पवित्र करती हैं। उनके दर्शन मात्र पाप नष्ट हो जाते हैं। जो पति को साक्षात ईश्वर मानकर उसकी सेवा-सुश्रूषा करती हैं, वे स्त्रियां इस लोक में आनंद प्राप्त कर सद्गति को प्राप्त करती हैं और अपने दोनों कुलों को तार देती हैं। सावित्री, लोपामुद्रा, अरुंधती, शांडिली, शतरूपा, अनसूया, लक्ष्मी, स्वधा, सती, संज्ञा, सुमति, श्रद्धा, मैना और स्वाहा आदि नारियां साध्वी कहलाती हैं। वे अपने पातिव्रत्य धर्म के कारण ब्रह्मा, विष्णु और शिव की भी पूजनीय हैं। इसलिए स्त्री को सदैव अपने पति की आज्ञा का पालन करना चाहिए। पतिव्रता स्त्री पति के भोजन कर लेने के बाद ही भोजन करे। जब तक वह खड़ा हो खुद भी न बैठे। पति के सो जाने के बाद ही सोए और उसके उठने से पहले उठ जाए। क्रोधित होने पर या अत्यधिक प्रसन्नता होने पर भी अपने पति का नाम न लें। पति के बुलाने पर सभी कामों को छोड़कर पति के पास चली जाएं। उसकी हर आज्ञा को अपना धर्म मानकर उसका पालन करे। कभी वह प्रवेश द्वार पर खड़ी न हो। बिना किसी कार्य के किसी के घर न जाए और जाने पर बिना कहे कदापि न बैठे। अपने घर की वस्तुएं किसी को न दे। पतिव्रता स्त्री को वस्त्रों और आभूषणों से विभूषित होकर ही अपना मुख पति को दिखाना चाहिए। जब पति घर से बाहर या परदेश गया हो तो उन दिनों में पतिव्रता स्त्री को सजना संवरना नहीं चाहिए। पति के सेवन की चीजें ठीक समय पर जब उसे आवश्यकता हो, तुरंत दे दे। अपना हर कार्य चतुराई और होशियारी से करे। अपने पति की हर आज्ञा का पालन करना ही पतिव्रता स्त्री का परम धर्म होता है। पति की आज्ञा लिए बिना पत्नी को कहीं भी नहीं जाना चाहिए, यहां तक कि तीर्थस्थान जैसे पुण्यस्थलों पर भी नहीं। पति के चरणों को धोकर उसको पीने से ही पत्नी का तीर्थ स्नान पूरा हो जाता है। पति द्वारा छोड़े गए जूठे भोजन को पत्नी को प्रसाद समझकर खाना चाहिए।

देवता, पितरों, अतिथियों या भिखारियों को भोजन का भाग देकर ही भोजन करना चाहिए। व्रत तथा उपवास रखने से पूर्व पति की आज्ञा अवश्य लें अन्यथा व्रत का पुण्य नहीं मिलता। किसी चीज को पाने के लिए अपने पति से झगड़ा कदापि न करें। सुख से आरामपूर्वक बैठे हुए या सोते समय पति को कभी भी न उठाएं। यदि पति किसी बात के कारण दुखी हो, धनहीन हो, बीमार हो या वृद्ध हो गया हो तो भी उसका परित्याग न करे । रजस्वला होने पर तीन दिन तक अपने पति के सामने न जाए। उसे अपना मुख न दिखाए। जब तक स्नान करके शुद्ध न हो जाए, तब तक पति से कोई बात न करे। शुद्ध होकर सर्वप्रथम अपने पति का ही दर्शन करे।

उत्तम पतिव्रत का पालन करने वाली स्त्री को सुहाग का प्रतीक मानी जाने वाली वस्तुओं जैसे सिंदूर, हल्दी, रोली, काजल, चूड़ियां, मंगलसूत्र, पायल, बिछुए, नाक की लौंग, कान के कुंडलों को सदैव धारण करना चाहिए। जो स्त्रियां सुहाग की निशानी मानी जाने वाली इन वस्तुओं को हर वक्त धारण किए रहती हैं, उनके पति की आयु में वृद्धि होती है। पतिव्रता स्त्री को कभी भी छिनाल, कुलटा आदि भाग्यहीन स्त्रियों के साथ नहीं रहना चाहिए अर्थात उनसे मित्रता नहीं करनी चाहिए। पति से लड़ने वाली एवं उससे वैर भाव रखने वाली स्त्री को सहेली न बनाएं। कभी भी अकेली न रहें। वस्त्रहीन होकर स्नान न करें। सदा पति के कहे अनुसार चलें। पति की इच्छा होने पर ही रमण करें। उसकी हर इच्छा को ही अपनी इच्छा समझें। पति के हंसने पर हंसे और उसके दुखी होने पर दुखी हों।

पतिव्रता स्त्री के लिए उसका पति ही उसका आराध्य होना चाहिए। ब्रह्मा, विष्णु और शिव से अधिक उसे अपने पति को महत्व देना चाहिए। अपने पति को शिव स्वरूप मानकर उसे पूजना चाहिए। पति के साथ लड़ने वाली स्त्री कुतिया या सियारिन के रूप में जन्म लेती है। पति जिस स्थान पर बैठा हो, उससे ऊंचे स्थान पर न बैठे। किसी की भी निंदा न करे। सबसे मीठे वचन बोले। पति स्त्री की जिंदगी में सबसे अधिक महत्वपूर्ण होता है। इसलिए उसका सदैव पूजन करे। नारी को अपने पति को ही देवता, गुरु, धर्म, तीर्थ एवं व्रत समझकर उसकी आराधना करनी चाहिए पति से कभी दुर्वचन न कहे। सास, ससुर, जेठ, जिठानी, गुरुओं सहित सभी बड़ों का आदर करे। उनके सामने कभी ऊंचा न बोले और न हंसे। बाहर से पति के आने पर आदरपूर्वक उसके चरण धोए जो मूढ़ बुद्धि नारियां अपने पति को त्यागकर व्यभिचार करती हैं अथवा दुष्ट पुरुषों के सान्निध्य में रहती हैं वे उल्लू का जन्म लेती हैं। पति से हीन नारी सदा के लिए अपवित्र हो जाती है। तीर्थ स्नान करने पर भी वह अपवित्र रहती है। 

  जिस घर में पतिव्रता नारी का वास होता है, उसके पति, पिता और माता तीनों के कुल तर जाते हैं। वे सीधे स्वर्गलोक की शोभा बढ़ाते हैं। इसके विपरीत जो स्त्रियां पर पुरुषों की ओर आकर्षित होकर अपने मार्ग से भटक जाती हैं वे अपने साथ-साथ अपने कुल का भी नाश करती हैं। पतिव्रता नारी के स्पर्श होने मात्र से ही वहां की भूमि पावन और पापों का नाश करने वाली हो जाती है। सूर्य, चंद्रमा तथा वायुदेव भी पवित्रता हेतु नारी का स्पर्श करते हैं, ताकि वे दूसरों को पवित्र कर सकें। पतिव्रता पत्नी ही गृहस्थ आश्रम की नींव है, सुखों का भंडार है, वही धर्म को पाने का एकमात्र रास्ता है तथा वही परिवार की वंश बेल को आगे बढ़ाने वाली है।

भगवान विश्वनाथ में अटूट भक्तिभाव रखने वाले शिव भक्तों को ही पतिव्रता नारियों की प्राप्ति होती है। पत्नी से ही पति का अस्तित्व होता है। एक-दूसरे के बिना दोनों का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता। पत्नी के बिना पति देवयज्ञ, पितृ यज्ञ और अतिथि यज्ञ आदि कोई भी यज्ञ अकेले संपन्न नहीं कर सकता। पतिव्रता नारियों को पवित्र पावनी गंगा के समान पवित्र माना जाता है। उसके दर्शनों से ही सबकुछ पवित्र हो जाता है। पति-पत्नी का संबंध अटूट है। 

पति प्रणव है और पत्नी वेद की ऋचा, एक तप है तो एक क्षमा पत्नी द्वारा किए अच्छे कर्मों का फल है पति हे गिरिजानंदिनी! शास्त्रों में पतिव्रता नारियों को चार प्रकार का बताया गया है उत्तमा, मध्यमा, निकृष्टा और अतिनिकृष्टा । ये पतिव्रता स्त्रियों के भेद हैं। जो स्त्रियां स्वप्न में भी सिर्फ अपने पति का ही स्मरण करती हैं, ऐसी स्त्रियां 'उत्तमा' पतिव्रता कहलाती हैं। जो स्त्रियां प्रत्येक पुरुष को पिता भाई एवं पुत्र के रूप में देखती हैं, वह 'मध्यमा' पतिव्रता कहलाती हैं। जिसके मन में धर्म और लोकलाज का भय रहता है और इस कारण वह सदैव धर्म का पालन करती है, वह 'निकृष्टा' पतिव्रता कहलाती हैं। जो स्त्री अपने पति से डरकर या कुल के बदनाम होने के डर से व्यभिचार से दूर रहती है वह स्त्री 'अतिनिकृष्टा' पतिव्रता कहलाती है। ये चारों प्रकार की पतिव्रता स्त्रियां पावन, पवित्र और समस्त पापों का नाश करने वाली कही जाती हैं। मुनि अत्रि की पत्नी अनसूया ने अपने पतिव्रत के प्रभाव से त्रिदेवों ब्रह्मा, विष्णु और शिव को शिशु बना दिया था। यही नहीं उन्होंने मरे हुए एक ब्राह्मण को अपने सतीत्व के बल से जीवित कर दिया था।

हे गिरिजानंदिनी! मैंने पतिव्रता स्त्री की सभी विशेषताएं और गुण तुम्हें बता दिए हैं। अब आप इसी के अनुरूप ही आचरण किया करें। अपने पति की हर आज्ञा को सर्वोपरि मानकर उसका पालन करें। पति को खुश रखने से ही सभी मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है। आप तो जगदंबा का रूप हैं और आपके पति तो साक्षात भगवान शिव हैं। आपको यह सब बताकर कोई लाभ नहीं, क्योंकि आप तो यह सब जानती ही हैं और इसका उत्तम पालन भी करेंगी। आपके विषय में तो सोचकर ही स्त्रियां पवित्र एवं पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली हो जाती हैं। इसलिए मुझे अधिक कुछ कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। मुझे विश्वास है कि आप उत्तम पतिव्रत धर्म का पालन करके संसार की अन्य स्त्रियों के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करेंगी।

ऐसा कहकर वह ब्राह्मण पत्नी चुप हो गई । उनसे पतिव्रत धर्म का उपदेश सुनकर देवी पार्वती ने बहुत हर्ष का अनुभव किया। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर ब्राह्मण पत्नी को नमस्कार किया तथा उत्तम धर्म के विषय में ज्ञान देने के लिए उनका धन्यवाद दिया। देवी पार्वती ने अपने आचरण से सभी उपस्थित परिजनों को शिक्षा दी कि भले ही कोई कितना भी जानकार क्यों न हो, उसे अपनी परंपराओं का आदरपूर्वक पालन करना चाहिए। जो अहंकार के कारण लोकधर्म का परित्याग करता है, उसका अपयश होता है तथा वह अपनी संतानों को पथभ्रष्ट करता है।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

पचपनवाँ अध्याय 

"बारात का विदा होना तथा शिव-पार्वती का कैलाश पर निवास"


ब्रह्माजी बोले ;— हे नारद! इस प्रकार ब्राह्मणी ने देवी पार्वती को पतिव्रत धर्म की शिक्षा देने के उपरांत महारानी मैना से कहा कि हे महारानी ! आपकी आज्ञा के अनुसार मैंने आपकी पुत्री को पतिव्रत धर्म एवं उसके पालन के विषय में बता दिया। अब आप इसकी व तैयारी कीजिए। देवी मैना ने पार्वती को अपने हृदय से लगा लिया और जोर-जोर से रोने लगीं। अपनी माता को इस प्रकार रोते देख पार्वती की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी। पार्वती और मैना को रोता देख सभी देवताओं की पत्नियां एवं वहां उपस्थित सभी नारियां भावविह्वल हो उठीं। तभी पर्वतराज हिमालय अपने पुत्रों मैनाक, मंत्रियों के साथ वहां आए और मोह के कारण अपनी पुत्री पार्वती को गले से लगाकर रोने लगे। गिरिजा की मां, भाभियां तथा वहां उपस्थित सभी स्त्रियां रो रही थीं। तब तत्वज्ञानियों और मुनियों तथा पुरोहितों ने अध्यात्म ज्ञान द्वारा सबको समझाया तथा यह भी बताया कि उपस्थित शुभमुहूर्त ही बारात विदा करनी चाहिए।

ऋषि-मुनियों के समझाने से भावनाओं का सागर थमा। तब पार्वती ने भक्ति-भाव से अपने माता-पिता, भाइयों एवं गुरुजनों के चरण स्पर्श कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया तथा पुनः रोने लगीं। तब सबने प्रेमपूर्वक उन्हें चुप कराया। शैलराज हिमालय ने अपनी पुत्री पार्वती के बैठने के लिए एक सुंदर रत्नों से जड़ी हुई पालकी मंगवाई। ब्राह्मण पत्नियों ने उन्हें उस पालकी में बैठाया। सभी ने उन्हें ढेरों आशीष और शुभकामनाएं दीं। शैलराज हिमालय और मैना ने उन्हें अनेक दुर्लभ वस्तुएं उपहार स्वरूप भेंट कीं। देवी पार्वती ने हाथ जोड़कर सबको विनम्रतापूर्वक नमस्कार किया और उनकी पालकी वहां से चल दी। प्रेम के वशीभूत होकर उनके पिता हिमालय और भाई भी उनकी पालकी के साथ-साथ चल दिए। कुछ देर बाद वे उस स्थान पर पहुंचे जहां शिवजी अन्य बारातियों के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। हिमालय ने नम्रतापूर्वक वहां उपस्थित भगवान शिव, ब्रह्मा, विष्णु सहित सभी श्रेष्ठजनों को नमस्कार किया और अपनी पुत्री को शिवजी को सौंप दिया। तत्पश्चात हम सबसे विदा लेकर वे हिमालयपुरी लौट गए। जब शैलराज हिमालय अपने नगर को लौट गए। तब हम सब भी कैलाश पर्वत की ओर चल दिए। भगवान शिव और पार्वती के विवाह हो जाने पर सभी की प्रसन्नता की कोई सीमा न रही। 

सभी उत्साहपूर्वक चलने लगे। महादेवजी के शिवगण नाचते-कूदते, गाते-बजाते अपने स्वामी के परम पावन निवास की ओर बढ़ रहे थे। मैं और श्रीहरि विष्णुजी भी शिवजी के विवाह होने से प्रसन्न थे। उधर, देवराज इंद्र के हर्ष की कोई सीमा नहीं थी। वह सोच रहे थे कि शिव-पार्वती के विवाह से उनके कष्टों और दुखों में अवश्य कमी होगी। उन्हें इस बात का यकीन हो गया था कि अब जल्द ही उन्हें और सब देवताओं को तारकासुर नामक भयंकर दैत्य से मुक्ति अवश्य मिलेगी। भगवान शिव भी हर्ष का अनुभव कर रहे थे, उन्हें उनके जन्म जन्म की प्रेयसी पार्वती पुनः पत्नी रूप में प्राप्त हो गई थी। इस प्रकार प्रसन्नतापूर्वक आनंद में मगन होकर सभी कैलाश पर्वत की ओर जा रहे थे। उस समय सभी दिशाओं से पुष्प वर्षा हो रही थी, मंगल ध्वनि बज रही थी और मंगल गान गाए जा रहे थे।

इस प्रकार यात्रा करते हुए सभी कैलाश पर्वत पर पहुंचे। 

वहां पहुंचकर भगवान शिव ने पार्वती से कहा ;— हे देवेश्वरी! आप सदा से ही मेरी प्रिया हैं। आप पूर्व जन्म में मुझसे बिछुड़ गई थीं। सब देवताओं की कृपा से आज हम पुनः एक हो गए हैं। आज आपको पुनः अपने पास विराजमान पाकर मैं बहुत प्रसन्न हूं। हम दोनों का साथ तो जन्म-जन्मांतरों से है । शिव शिवा के बिना और शिवा शिव के बिना अधूरी हैं। आज मुझे पुनः अपनी प्राणवल्लभा मिल गई हैं।

प्रभु शिव की इन प्यारी बातों को सुनकर देवी पार्वती का मुख लज्जा से लाल हो गया। उनके बड़े-बड़े सुंदर नेत्र झुक गए और वे धीरे से बोलीं- हे नाथ! आपकी हर एक बात मुझे स्मरण है। मेरे जीवन में सबकुछ आप ही हैं। आज आपने अपनी इस दासी को अपने चरणों में जगह देकर बहुत बड़ा उपकार किया है। मैं आपको पति के रूप में पाकर धन्य हो गई हूं ।

देवी पार्वती के उत्तम मधुर वचनों को सुनकर भगवान शिव मुस्कुरा दिए। तत्पश्चात भगवान शिव ने सभी देवताओं को स्वादिष्ट भोजन कराया एवं उन्हें सुंदर उपहार भेंट स्वरूप दिए। भोजन करने के बाद सभी देवता एवं ऋषि-मुनि भगवान शिव के पास आए और उन्हें प्रणाम कर उनकी स्तुति करने लगे और शिव-पार्वती से आज्ञा लेकर अपने-अपने धाम चले गए। तब मैंने और श्रीहरि ने भी चलने के लिए आज्ञा मांगी तो शिवजी ने हमें प्रणाम किया। तब मैंने और विष्णुजी ने हृदय से लगाकर उन्हें आशीर्वाद दिया। फिर हम भी अपने-अपने लोकों को चले गए।

हम सबके कैलाश पर्वत से चले जाने के बाद भगवान शिव अपनी प्राणवल्लभा पार्वती के साथ आनंदपूर्वक वहां निवास करने लगे। भगवान शिव के गण शिव-पार्वती की भक्तिपूर्वक आराधना करने लगे। नारद! इस प्रकार मैंने तुम्हें भगवान शिव-पार्वती के विवाह का पूर्ण विवरण सुनाया। यह उत्तम कथा शोक का नाश करने वाली, आनंद, धन और आयु की वृद्धि करने वाली है। जो मनुष्य सच्चे मन से प्रतिदिन इस प्रसंग को पढ़ता अथवा सुनता है, वह शिवलोक को प्राप्त कर लेता है। इस कथा समस्त रोगों का नाश होता है तथा सभी विघ्न बाधाएं दूर हो जाती हैं। यह कथा यश, पुत्र, पौत्र आदि मनोवांछित वस्तु प्रदान करने वाली तथा मोक्ष प्रदान करने वाली है। सभी शुभ अवसरों और मंगल कार्यों के समय इस कथा का पठन अथवा श्रवण करने से समस्त कार्यों की सिद्धि होती है। इसमें कोई संशय नहीं है । यह सर्वथा सत्य है।

॥ श्रीरुद्र संहिता तृतीय खण्ड (पार्वती खंड) संपूर्ण ॥

                    ॥ श्रीरुद्र संहिता चतुर्थ खण्ड प्रारंभ ॥

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