।। ॐ नमः शिवाय ।।
शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर
【विद्येश्वर संहिता】
पहला अध्याय
"प्रयाग में सूतजी से मुनियों का तुरंत पापनाश करने वाले साधन के विषय में प्रश्न"
"जो आदि से लेकर अंत में हैं, नित्य मंगलमय हैं, जो आत्मा के स्वरूप को प्रकाशित करने वाले हैं, जिनके पांच मुख हैं और जो खेल-खेल में जगत की रचना, पालन और संहार तथा अनुग्रह एवं तिरोभावरूप पांच प्रबल कर्म करते हैं, उन सर्वश्रेष्ठ अजर-अमर उमापति भगवान शंकर का मैं मन ही मन चिंतन करता हूं।"
व्यास जी कहते हैं :- धर्म का महान क्षेत्र, जहां गंगा-यमुना का संगम है, उस पुण्यमय प्रयाग, जो ब्रह्मलोक का मार्ग है, वहां एक बार महातेजस्वी, महाभाग, महात्मा मुनियों ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया। उस ज्ञान यज्ञ का समाचार सुनकर पौराणिक-शिरोमणि व्यास जी के शिष्य सूत जी वहां मुनियों के दर्शन के लिए आए। सूत जी का सभी मुनियों ने विधिवत स्वागत व सत्कार किया तथा उनकी स्तुति करते हुए हाथ जोड़कर उनसे कहा- हे सर्वज्ञ विद्वान रोमहर्षण जी । आप बड़े भाग्यशाली हैं। आपने स्वयं व्यास जी के मुख से पुराण विद्या प्राप्त की है। आप आश्चर्यस्वरूप कथाओं का भंडार हैं। आप भूत, भविष्य और वर्तमान के ज्ञाता हैं। हमारा सौभाग्य है कि आपके दर्शन हुए। आपका यहां आना निरर्थक नहीं हो सकता। आप कल्याणकारी हैं।
उत्तम बुद्धि वाले सूत जी ! यदि आपका अनुग्रह हो तो गोपनीय होने पर भी आप शुभाशुभ तत्व का वर्णन करें, जिससे हमारी तृप्ति नहीं होती और उसे सुनने की हमारी इच्छा ऐसे ही रहती है। कृपा कर उस विषय का वर्णन करें। घोर कलियुग आने पर मनुष्य पुण्यकर्म से दूर होकर दुराचार में फंस जाएंगे। दूसरों की बुराई करेंगे, पराई स्त्रियों के प्रति आसक्त होंगे। हिंसा करेंगे, मूर्ख, नास्तिक और पशुबुद्धि हो जाएंगे।
सूत जी ! कलियुग में वेद प्रतिपादित वर्ण आश्रम व्यवस्था नष्ट हो जाएगी। प्रत्येक वर्ण और आश्रम में रहने वाले अपने-अपने धर्मों के आचरण का परित्याग कर विपरीत आचरण करने में सुख प्राप्त करेंगे! इस सामाजिक वर्ण संकरता से लोगों का पतन होगा। परिवार टूट जाएंगे, समाज बिखर जाएगा। प्राकृतिक आपदाओं से जगह-जगह लोगों की मृत्यु होगी। धन का क्षय होगा। स्वार्थ और लोभ की प्रवृत्ति बढ़ जाएगी। ब्राह्मण लोभी हो जाएंगे और वेद बेचकर धन प्राप्त करेंगे। मद से मोहित होकर दूसरों को ठगेंगे, पूजा-पाठ नहीं करेंगे और ब्रह्मज्ञान से शून्य होंगे। क्षत्रिय अपने धर्म को त्यागकर कुसंगी, पापी और व्यभिचारी हो जाएंगे। शौर्य से रहित हो वे शूद्रों जैसा व्यवहार करेंगे और काम के अधीन हो जाएंगे। वैश्य धर्म से विमुख हो संस्कारभ्रष्ट होकर कुमार्गी, धनोपार्जन-परायण होकर नाप-तौल में ध्यान लगाएंगे। शूद्र अपना धर्म-कर्म छोड़कर अच्छी वेशभूषा से सुशोभित हो व्यर्थ घूमेंगे। वे कुटिल और ईर्ष्यालु होकर अपने धर्म के प्रतिकूल हो जाएंगे, कुकर्मी और वाद-विवाद करने वाले होंगे। वे स्वयं को कुलीन मानकर सभी धर्मों और वर्णों में विवाह करेंगे। स्त्रियां सदाचार से विमुख हो जाएंगी । वे अपने पति का अपमान करेंगी और सास-ससुर से लड़ेंगी। मलिन भोजन करेंगी। उनका शील स्वभाव बहुत बुरा होगा।
सूत जी ! इस तरह जिनकी बुद्धि नष्ट हो गई है और जिन्होंने अपने धर्म का त्याग कर दिया है, ऐसे लोग लोक-परलोक में उत्तम गति कैसे प्राप्त करेंगे ? इस चिंता से हम सभी व्याकुल हैं। परोपकार के समान कोई धर्म नहीं है। इस धर्म का पालन करने वाला दूसरों को सुखी करता हुआ, स्वयं भी प्रसन्नता अनुभव करता है । यह भावना यदि निष्काम हो, तो कर्ता का हृदय शुद्ध करते हुए उसे परमगति प्रदान करती है। हे महामुने! आप समस्त सिद्धांतों के ज्ञाता हैं। कृपा कर कोई ऐसा उपाय बताइए, जिससे इन सबके पापों का तत्काल नाश हो जाए।
व्यास जी कहते हैं :– उन श्रेष्ठ मुनियों की यह बात सुनकर सूत जी मन ही मन परम श्रेष्ठ भगवान शंकर का स्मरण करके उनसे इस प्रकार बोले
【विद्येश्वर संहिता】
दूसरा अध्याय
"शिव पुराण का परिचय और महिमा"
सूत जी कहते हैं :- साधु महात्माओ! आपने बहुत अच्छी बात पूछी है। यह प्रश्न तीनों लोकों का हित करने वाला है। आप लोगों के स्नेहपूर्ण आग्रह पर, गुरुदेव व्यास का स्मरण कर मैं समस्त पापराशियों से उद्धार करने वाले शिव पुराण की अमृत कथा का वर्णन कर रहा हूं। ये वेदांत का सारसर्वस्व है। यही परलोक में परमार्थ को देने वाला है तथा दुष्टों का विनाश करने वाला है। इसमें भगवान शिव के उत्तम यश का वर्णन है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष आदि पुरुषार्थों को देने वाला पुराण अपने प्रभाव की दृष्टि से वृद्धि तथा विस्तार को प्राप्त हो रहा है। शिव पुराण अध्ययन से कलियुग के सभी पापों में लिप्त जीव उत्तम गति को प्राप्त होंगे। इसके उदय से ही कलियुग का उत्पात शांत हो जाएगा। शिव पुराण को वेद तुल्य माना जाएगा। इसका प्रवचन सर्वप्रथम भगवान शिव ने ही किया था। इस पुराण के बारह खण्ड या भेद हैं।
ये बारह संहिताएं हैं :- (1) विद्येश्वर संहिता, (2) रुद्र संहिता, (3) विनायक संहिता, (4) उमा संहिता, (5) सहस्रकोटिरुद्र संहिता, ( 6 ) एकादशरुद्र संहिता, (7) कैलास संहिता, (8) शतरुद्र संहिता, (9) कोटिरुद्र संहिता, (10) मातृ संहिता, (11) वायवीय संहिता तथा (12) धर्म संहिता ।
विद्येश्वर संहिता में दस हजार श्लोक हैं। रुद्र संहिता, विनायक संहिता, उमा संहिता और मातृ संहिता प्रत्येक में आठ-आठ हजार श्लोक हैं। एकादश रुद्र संहिता में तेरह हजार, कैलाश संहिता में छः हजार, शतरुद्र संहिता में तीन हजार, कोटिरुद्र संहिता में नौ हजार, सहस्रकोटिरुद्र संहिता में ग्यारह हजार, वायवीय संहिता में चार हजार तथा धर्म संहिता में बारह हजार श्लोक हैं।
मूल शिव पुराण में कुल एक लाख श्लोक हैं परंतु व्यास जी ने इसे चौबीस हजार श्लोकों में संक्षिप्त कर दिया है। पुराणों की क्रम संख्या में शिव पुराण का चौथा स्थान है, जिसमें सात संहिताएं हैं।
पूर्वकाल में भगवान शिव ने सौ करोड़ श्लोकों का पुराणग्रंथ ग्रंथित किया था। सृष्टि के आरंभ में निर्मित यह पुराण साहित्य अधिक विस्तृत था। द्वापर युग में द्वैपायन आदि महर्षियों ने पुराण को अठारह भागों में विभाजित कर चार लाख श्लोकों में इसको संक्षिप्त कर दिया । इसके उपरांत व्यास जी ने चौबीस हजार श्लोकों में इसका प्रतिपादन किया।
यह वेदतुल्य पुराण विद्येश्वररुद्र संहिता, शतरुद्र संहिता, कोटिरुद्र संहिता, उमा संहिता, कैलाश संहिता और वायवीय संहिता नामक सात संहिताओं में विभाजित है। यह सात संहिताओं वाला शिव पुराण वेद के समान प्रामाणिक तथा उत्तम गति प्रदान करने वाला है। इस निर्मल शिव पुराण की रचना भगवान शिव द्वारा की गई है तथा इसको संक्षेप में संकलित करने का श्रेय व्यास जी को जाता है। शिव पुराण सभी जीवों का कल्याण करने वाला, सभी पापों का नाश करने वाला है। यही सत्पुरुषों को कल्याण प्रदान करने वाला है। यह तुलना रहित है तथा इसमें वेद प्रतिपादित अद्वैत ज्ञान तथा निष्कपट धर्म का प्रतिपादन है। शिव पुराण श्रेष्ठ मंत्र-समूहों का संकलन है तथा यही सभी के लिए शिवधाम की प्राप्ति का साधन है। समस्त पुराणों में सर्वश्रेष्ठ शिव पुराण ईर्ष्या रहित अंतःकरण वाले विद्वानों के लिए जानने की वस्तु है। इसमें परमात्मा का गान किया गया है। इस अमृतमयी शिव पुराण को आदर से पढ़ने और सुनने वाला मनुष्य भगवान शिव का प्रिय होकर परम गति को प्राप्त कर लेता है।
【विद्येश्वर संहिता】
तीसरा अध्याय
"श्रवण, कीर्तन और मनन साधनों की श्रेष्ठता"
व्यास जी कहते हैं :— सूत जी के वचनों को सुनकर सभी महर्षि बोले- भगवन् आप वेदतुल्य, अद्भुत एवं पुण्यमयी शिव पुराण की कथा सुनाइए ।
सूत जी ने कहा :- हे महर्षिगण! आप कल्याणमय भगवान शिव का स्मरण करके, वेद के सार से प्रकट शिव पुराण की अमृत कथा सुनिए। शिव पुराण में भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का गान किया गया है। जब सृष्टि आरंभ हुई, तो छः कुलों के महर्षि आपस में वाद-विवाद करने लगे कि अमुक वस्तु उत्कृष्ट है, अमुक नहीं। जब इस विवाद ने बड़ा रूप धारण कर लिया तो सभी अपनी शंका के समाधान के लिए सृष्टि की रचना करने वाले अविनाशी ब्रह्माजी के पास जाकर हाथ जोड़कर कहने लगे- हे प्रभु! आप संपूर्ण जगत को धारण कर उनका पोषण करने वाले हैं। प्रभु! हम जानना चाहते हैं कि संपूर्ण तत्वों से परे परात्पर पुराण पुरुष कौन हैं?
ब्रह्माजी ने कहा :- ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और इंद्र आदि से युक्त संपूर्ण जगत समस्त भूतों एवं इंद्रियों के साथ पहले प्रकट हुआ है। वे देव महादेव ही सर्वज्ञ और संपूर्ण हैं। भक्ति से ही इनका साक्षात्कार होता है। दूसरे किसी उपाय से इनका दर्शन नहीं होता। भगवान शिव में अटूट भक्ति मनुष्य को संसार-बंधन से मुक्ति दिलाती है। भक्ति से उन्हें देवता का कृपाप्रसाद प्राप्त होता है। जैसे अंकुर से बीज और बीज से अंकुर पैदा होता है। भगवान शंकर का कृपाप्रसाद प्राप्त करने के लिए आप सब ब्रह्मर्षि धरती पर सहस्रों वर्षों तक चलने वाले विशाल यज्ञ करो। यज्ञपति भगवान शिव की कृपा से ही विद्या के सारतत्व साध्य-साधन का ज्ञान प्राप्त होता है।
शिवपद की प्राप्ति साध्य और उनकी सेवा ही साधन है तथा जो मनुष्य बिना किसी फल की कामना किए उनकी भक्ति में डूबे रहते हैं, वही साधक हैं। कर्म के अनुष्ठान से प्राप्त फल को भगवान शिव के श्रीचरणों में समर्पित करना ही परमेश्वर की प्राप्ति का उपाय है तथा यही मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र साधन है। साक्षात महेश्वर ने ही भक्ति के साधनों का प्रतिपादन किया है। कान से भगवान के नाम, गुण और लीलाओं का श्रवण, वाणी द्वारा उनका कीर्तन तथा मन में उनका मनन शिवपद की प्राप्ति के महान साधन हैं तथा इन साधनों से ही संपूर्ण मनोरथों की सिद्ध होती है। जिस वस्तु को हम प्रत्यक्ष अपनी आंखों के सामने देख सकते हैं, उसकी तरफ आकर्षण स्वाभाविक है परंतु जिस वस्तु को प्रत्यक्ष रूप से देखा नहीं जा सकता उसे केवल सुनकर और समझकर ही उसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न किया जाता है । अतः श्रवण पहला साधन है। श्रवण द्वारा ही गुरु मुख से तत्व को सुनकर श्रेष्ठ बुद्धि वाला विद्वान अन्य साधन कीर्तन और मनन की शक्ति व सिद्धि प्राप्त करने का यत्न करता है। मनन के बाद इस साधन की साधना करते रहने से धीरे-धीरे भगवान शिव का संयोग प्राप्त होता है और लौकिक आनंद की प्राप्ति होती है।
भगवान शिव की पूजा, उनके नामों का जाप तथा उनके रूप, गुण, विलास के हृदय में निरंतर चिंतन को ही मनन कहा जाता है। महेश्वर की कृपादृष्टि से उपलब्ध इस साधन को ही प्रमुख साधन कहा जाता है।
【विद्येश्वर संहिता】
चौथा अध्याय
"सनत्कुमार-व्यास संवाद"
सूत जी कहते हैं :- हे मुनियो! इस साधन का माहात्म्य बताते समय मैं एक प्राचीन वृत्तांत का वर्णन करूंगा, जिसे आप ध्यानपूर्वक सुनें।
बहुत पहले की बात है, पराशर मुनि के पुत्र मेरे गुरु व्यासदेव जी सरस्वती नदी के तट पर तपस्या कर रहे थे। एक दिन सूर्य के समान तेजस्वी विमान से यात्रा करते हुए भगवान सनत्कुमार वहां जा पहुंचे। मेरे गुरु ध्यान में मग्न थे। जागने पर अपने सामने सनत्कुमार जी को देखकर वे बड़ी तेजी से उठे और उनके चरणों का स्पर्श कर उन्हें अर्घ्य देकर योग्य आसन पर विराजमान किया। प्रसन्न होकर सनत्कुमार जी गंभीर वाणी में बोले – मुनि तुम सत्य का चिंतन करो । सत्य तत्व का चिंतन ही श्रेय प्राप्ति का मार्ग है। इसी से कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है। यही कल्याणकारी है। यह जब जीवन में आ जाता है, तो सब सुंदर हो जाता है। सत्य का अर्थ है- सदैव रहने वाला । इस काल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह सदा एक समान रहता है ।
सनत्कुमार जी ने महर्षि व्यास को आगे समझाते हुए कहा, महर्षे! सत्य पदार्थ भगवान शिव ही हैं। भगवान शंकर का श्रवण, कीर्तन और मनन ही उन्हें प्राप्त करने के सर्वश्रेष्ठ साधन हैं। पूर्वकाल में मैं दूसरे अनेकानेक साधनों के भ्रम में पड़ा घूमता हुआ तपस्या करने मंदराचल पर जा पहुंचा। कुछ समय बाद महेश्वर शिव की आज्ञा से सबके साक्षी तथा शिवगणों के स्वामी नंदिकेश्वर वहां आए और स्नेहपूर्वक मुक्ति का साधन बताते हुए बोले भगवान शंकर का श्रवण, कीर्तन और मनन ही मुक्ति का स्रोत है। यह बात मुझे स्वयं देवाधिदेव भगवान शिव ने बताई है। अतः तुम इन्हीं साधनों का अनुष्ठान करो ।
व्यास जी से ऐसा कहकर अनुगामियों सहित सनत्कुमार ब्रह्मधाम को चले गए। इस प्रकार इस उत्तम वृत्तांत का संक्षेप में मैंने वर्णन किया है।
ऋषि बोले :- सूत जी! आपने श्रवण, कीर्तन और मनन को मुक्ति का उपाय बताया है,
किंतु जो मनुष्य इन तीनों साधनों में असमर्थ हो, वह मनुष्य कैसे मुक्त हो सकता है ? किस कर्म के द्वारा बिना यत्न के ही मोक्ष मिल सकता है?
【विद्येश्वर संहिता】
पाचवाँ अध्याय
"शिवलिंग का रहस्य एवं महत्व"
सूत जी कहते हैं :– हे शौनक जी! श्रवण, कीर्तन और मनन जैसे साधनों को करना प्रत्येक के लिए सुगम नहीं है। इसके लिए योग्य गुरु और आचार्य चाहिए। गुरुमुख से सुनी गई वाणी मन की शंकाओं को दग्ध करती है। गुरुमुख से सुने शिव तत्व द्वारा शिव के रूप-स्वरूप के दर्शन और गुणानुवाद में रसानुभूति होती है। तभी भक्त कीर्तन कर पाता है। यदि ऐसा कर पाना संभव न हो, तो मोक्षार्थी को चाहिए कि वह भगवान शंकर के लिंग एवं मूर्ति की स्थापना करके रोज उनकी पूजा करे। इसे अपनाकर वह इस संसार सागर से पार हो सकता है। संसार सागर से पार होने के लिए इस तरह की पूजा आसानी से भक्तिपूर्वक की जा सकती है। अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य के अनुसार धनराशि से शिवलिंग या शिवमूर्ति की स्थापना कर भक्तिभाव से उसकी पूजा करनी चाहिए। मंडप, गोपुर, तीर्थ, मठ एवं क्षेत्र की स्थापना कर उत्सव का आयोजन करना चाहिए तथा पुष्प, धूप, वस्त्र, गंध, दीप तथा पुआ और तरह-तरह के भोजन नैवेद्य के रूप में अर्पित करने चाहिए। श्री शिवजी ब्रह्मरूप और निष्कल अर्थात कला रहित भी हैं और कला सहित भी मनुष्य इन दोनों स्वरूपों की पूजा करते हैं। शंकर जी को ही ब्रह्म पदवी भी प्राप्त है। कलापूर्ण भगवान शिव की मूर्ति पूजा भी मनुष्यों द्वारा की जाती है और वेदों ने भी इस तरह की पूजा की आज्ञा प्रदान की है।
सनत्कुमार जी ने पूछा :- हे नंदिकेश्वर ! पूर्वकाल में उत्पन्न हुए लिंग बेर अर्थात मूर्ति की उत्पत्ति के संबंध में आप हमें विस्तार से बताइए।
नंदिकेश्वर ने बताया :– मुनिश्वर ! प्राचीन काल में एक बार ब्रह्मा और विष्णु के मध्य युद्ध हुआ तो उनके बीच स्तंभ रूप में शिवजी प्रकट हो गए। इस प्रकार उन्होंने पृथ्वीलोक का संरक्षण किया। उसी दिन से महादेव जी का लिंग के साथ-साथ मूर्ति पूजन भी जगत में प्रचलित हो गया। अन्य देवताओं की साकार अर्थात मूर्ति पूजा होने लगी, जो कि अभीष्ट फल प्रदान करने वाली थी। परंतु शिवजी के लिंग और मूर्ति, दोनों रूप ही पूजनीय हैं।
【विद्येश्वर संहिता】
छठा अध्याय
"ब्रह्मा-विष्णु युद्ध"
नंदिकेश्वर बोले :– पूर्व काल में श्रीविष्णु अपनी पत्नी श्री लक्ष्मी जी के साथ शेष-शय्या पर शयन कर रहे थे। तब एक बार ब्रह्माजी वहां पहुंचे और विष्णुजी को पुत्र कहकर पुकारने लगे -पुत्र उठो! मैं तुम्हारा ईश्वर तुम्हारे सामने खड़ा हूं। यह सुनकर विष्णुजी को क्रोध आ गया। फिर भी शांत रहते हुए वे बोले - पुत्र ! तुम्हारा कल्याण हो । कहो अपने पिता के पास कैसे आना हुआ? यह सुनकर ब्रह्माजी कहने लगे- मैं तुम्हारा रक्षक हूं। सारे जगत का पितामह हूं। सारा जगत मुझमें निवास करता है | तू मेरी नाभि कमल से प्रकट होकर मुझसे ऐसी बातें कर रहा है। इस प्रकार दोनों में विवाद होने लगा। तब वे दोनों अपने को प्रभु कहते-कहते एक-दूसरे का वध करने को तैयार हो गए। हंस और गरुड़ पर बैठे दोनों परस्पर युद्ध करने लगे। ब्रह्माजी के वक्षस्थल में विष्णुजी ने अनेकों अस्त्रों का प्रहार करके उन्हें व्याकुल कर दिया। इससे कुपित हो ब्रह्माजी ने भी पलटकर भयानक प्रहार किए। उनके पारस्परिक आघातों से देवताओं में हलचल मच गई। वे घबराए और त्रिशूलधारी भगवान शिव के पास गए और उन्हें सारी व्यथा सुनाई। भगवान शिव अपनी सभा में उमा देवी सहित सिंहासन पर विराजमान थे और मंद-मंद मुस्करा रहे थे ।
【विद्येश्वर संहिता】
सातवाँ अध्याय
"शिव निर्णय"
महादेव जी बोले :– पुत्रो ! मैं जानता हूं कि तुम ब्रह्मा और विष्णु के परस्पर युद्ध से बहुत दुखी हो। तुम डरो मत, मैं अपने गणों के साथ तुम्हारे साथ चलता हूं। तब भगवान शिव अपने नंदी पर आरूढ़ हो, देवताओं सहित युद्धस्थल की ओर चल दिए। वहां छिपकर वे ब्रह्मा-विष्णु के युद्ध को देखने लगे। उन्हें जब यह ज्ञात हुआ कि वे दोनों एक-दूसरे को मारने की इच्छा से माहेश्वर और पाशुपात अस्त्रों का प्रयोग करने जा रहे हैं तो वे युद्ध को शांत करने के लिए महाअग्नि के तुल्य एक स्तंभ रूप में ब्रह्मा और विष्णु के मध्य खड़े हो गए । महाअग्नि के प्रकट होते ही दोनों के अस्त्र स्वयं ही शांत हो गए। अस्त्रों को शांत होते देखकर ब्रह्मा और विष्णु दोनों कहने लगे कि इस अग्नि स्वरूप स्तंभ के बारे में हमें जानकारी करनी चाहिए। दोनों ने उसकी परीक्षा लेने का निर्णय लिया। भगवान विष्णु ने शूकर रूप धारण किया और उसको देखने के लिए नीचे धरती में चल दिए। ब्रह्माजी हंस का रूप धारण करके ऊपर की ओर चल दिए । पाताल में बहुत नीचे जाने पर भी विष्णुजी को स्तंभ का अंत नहीं मिला। अतः वे वापस चले आए। ब्रह्माजी ने आकाश में जाकर केतकी का फूल देखा। वे उस फूल को लेकर विष्णुजी के पास गए । विष्णु ने उनके चरण पकड़ लिए। ब्रह्माजी के छल को देखकर भगवान शिव प्रकट हुए।
विष्णुजी की महानता से शिव प्रसन्न होकर बोले - हे विष्णुजी! आप सत्य बोलते हैं। अतः मैं आपको अपनी समानता का अधिकार देता हूं।
【विद्येश्वर संहिता】
आठवाँ अध्याय
"ब्रह्मा का अभिमान भंग"
नंदिकेश्वर बोले :– महादेव जी ब्रह्माजी के छल पर अत्यंत क्रोधित हुए। उन्होंने अपने त्रिनेत्र (तीसरी आंख) से भैरव को प्रकट किया और उन्हें आज्ञा दी कि वह तलवार से ब्रह्माजी को दंड दें। आज्ञा पाते ही भैरव ने ब्रह्माजी के बाल पकड़ लिए और उनका पांचवां सिर काट दिया । ब्रह्माजी डर के मारे कांपने लगे। उन्होंने भैरव के चरण पकड़ लिए तथा क्षमा मांगने लगे। इसे देखकर श्रीविष्णु ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि आपकी कृपा से ही ब्रह्माजी को पांचवां सिर मिला था। अतः आप इन्हें क्षमा कर दें। तब शिवजी की आज्ञा पाकर ब्रह्मा को भैरव ने छोड़ दिया। शिवजी ने कहा तुमने प्रतिष्ठा और ईश्वरत्व को दिखाने के लिए छल किया है। इसलिए मैं तुम्हें शाप देता हूं कि तुम सत्कार, स्थान व उत्सव से विहीन रहोगे। ब्रह्माजी को अपनी गलती का पछतावा हो चुका था। उन्होंने भगवान शिव के चरण पकड़कर क्षमा मांगी और निवेदन किया कि वे उनका पांचवां सिर पुनः प्रदान करें।
महादेव जी ने कहा :– जगत की स्थिति को बिगड़ने से बचाने के लिए पापी को दंड अवश्य देना चाहिए, ताकि लोक मर्यादा बनी रहे। मैं तुम्हें वरदान देता हूं कि तुम गणों के आचार्य कहलाओगे और तुम्हारे बिना यज्ञ पूर्ण न होंगे।
फिर उन्होंने केतकी के पुष्प से कहा - अरे दुष्ट केतकी पुष्प ! अब मेरी पूजा के अयोग्य रहोगे। तब केतकी पुष्प बहुत दुखी हुआ और उनके चरणों में गिरकर माफी मांगने लगा। तब महादेव जी ने कहा- मेरा वचन तो झूठा नहीं हो सकता। इसलिए तू मेरे भक्तों के योग्य होगा। इस प्रकार तेरा जन्म सफल हो जाएगा।
【विद्येश्वर संहिता】
नवाँ अध्याय
"लिंग पूजन का महत्व"
नंदिकेश्वर कहते हैं :- ब्रह्मा और विष्णु भगवान शिव को प्रणाम कर चुपचाप उनके दाएं बाएं भाग में खड़े हो गए। उन्होंने पूजनीय महादेव जी को श्रेष्ठ आसन पर बैठाकर पवित्र वस्तुओं से उनका पूजन किया। दीर्घकाल तक स्थिर रहने वाली वस्तुओं को 'पुष्प वस्तु' तथा अल्पकाल तक टिकने वाली वस्तुओं को 'प्राकृत वस्तु' कहते हैं। हार, नूपुर, कियूर, किरीट, मणिमय कुंडल, यज्ञोपवीत, उत्तरीय वस्त्र, पुष्पमाला, रेशमी वस्त्र, हार, मुद्रिका, पुष्प, तांबूल, कपूर, चंदन एवं अगरु का अनुलेप, धूप, दीप, श्वेत छत्र, व्यंजन, ध्वजा, चंवर तथा अनेक दिव्य उपहारों द्वारा, जिनका वैभव वाणी और मन की पहुंच से परे था, जो केवल परमात्मा के योग्य थे, उनसे ब्रह्मा और विष्णु ने अपने स्वामी महेश्वर का पूजन किया। इससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने दोनों देवताओं से मुस्कराकर कहा
पुत्र! आज तुम्हारे द्वारा की गई पूजा से मैं बहुत प्रसन्न हूं। इसी कारण यह दिन परम पवित्र और महान होगा। यह तिथि 'शिवरात्रि' के नाम से प्रसिद्ध होगी और मुझे परम प्रिय होगी । इस दिन जो मनुष्य मेरे लिंग अर्थात निराकार रूप की या मेरी मूर्ति अर्थात साकार रूप की दिन-रात निराहार रहकर अपनी शक्ति के अनुसार निश्चल भाव से यथोचित पूजा करेगा, वह मेरा परम प्रिय भक्त होगा। पूरे वर्ष भर निरंतर मेरी पूजा करने पर जो फल मिलता है, वह फल शिवरात्रि को मेरा पूजन करके मनुष्य तत्काल प्राप्त कर लेता है। जैसे पूर्ण चंद्रमा का उदय समुद्र की वृद्धि का अवसर है, उसी प्रकार शिवरात्रि की तिथि मेरे धर्म की वृद्धि का समय है। इस तिथि को मेरी स्थापना का मंगलमय उत्सव होना चाहिए। मैं मार्गशीर्ष मास में आर्द्रा नक्षत्र से युक्त पूर्णमासी या प्रतिपदा को ज्योतिर्मय स्तंभ के रूप में प्रकट हुआ था। इस दिन जो भी मनुष्य पार्वती सहित मेरा दर्शन करता है अथवा मेरी मूर्ति या लिंग की झांकी निकालता है, वह मेरे लिए कार्तिकेय से भी अधिक प्रिय है। इस शुभ दिन मेरे दर्शन मात्र से पूरा फल प्राप्त होता है। यदि दर्शन के साथ मेरा पूजन भी किया जाए तो इतना अधिक फल प्राप्त होता है कि वाणी द्वारा उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
लिंग रूप में प्रकट होकर मैं बहुत बड़ा हो गया था। अतः लिंग के कारण यह भूतल 'लिंग स्थान' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जगत के लोग इसका दर्शन और पूजन कर सकें, इसके लिए यह अनादि और अनंत ज्योति स्तंभ अथवा ज्योतिर्मय लिंग अत्यंत छोटा हो जाएगा। यह लिंग सब प्रकार के भोग सुलभ कराने वाला तथा भोग और मोक्ष का एकमात्र साधन है। इसका दर्शन, स्पर्श और ध्यान प्राणियों को जन्म और मृत्यु के कष्ट से छुड़ाने वाला है। शिवलिंग के यहां प्रकट होने के कारण यह स्थान 'अरुणाचल' नाम से प्रसिद्ध होगा तथा यहां
बड़े-बड़े तीर्थ प्रकट होंगे। इस स्थान पर रहने या मरने से जीवों को मोक्ष प्राप्त होगा। मेरे दो रूप हैं— साकार और निराकार । पहले मैं स्तंभ रूप में प्रकट हुआ। फिर अपने साक्षात रूप में। ‘ब्रह्मभाव' मेरा निराकार रूप है तथा 'महेश्वरभाव' मेरा साक्षात रूप है। ये दोनों ही मेरे सिद्ध रूप हैं। मैं ही परब्रह्म परमात्मा हूं। जीवों पर अनुग्रह करना मेरा कार्य है । मैं जगत की वृद्धि करने वाला होने के कारण 'ब्रह्म' कहलाता हूं। सर्वत्र स्थित होने के कारण मैं ही सबकी आत्मा हूं। सर्ग से लेकर अनुग्रह तक जो जगत संबंधी पांच कृत्य हैं, वे सदा ही मेरे हैं।
मेरी ब्रह्मरूपता का बोध कराने के लिए पहले लिंग प्रकट हुआ। फिर अज्ञात ईश्वरत्व का साक्षात्कार कराने के लिए मैं जगदीश्वर रूप में प्रकट हो गया। मेरा सकल रूप मेरे ईशत्व का और निष्कल रूप मेरे ब्रह्मस्वरूप का बोध कराता है। मेरा लिंग मेरा स्वरूप है और मेरे सामीप्य की प्राप्ति कराने वाला है।
मेरे लिंग की स्थापना करने वाले मेरे उपासक को मेरी समानता की प्राप्ति हो जाती है तथा मेरे साथ एकत्व का अनुभव करता हुआ संसार सागर से मुक्त हो जाता है। वह जीते जी परमानंद की अनुभूति करता हुआ, शरीर का त्याग कर शिवलोक को प्राप्त होता है अर्थात मेरा ही स्वरूप हो जाता है । मूर्ति की स्थापना लिंग की अपेक्षा गौण है। यह उन भक्तों के लिए है, जो शिवतत्व के अनुशीलन में सक्षम नहीं हैं।
【विद्येश्वर संहिता】
दशवाँ अध्याय
"प्रणव एवं पंचाक्षर मंत्र की महत्ता"
ब्रह्मा और विष्णु ने पूछा :- प्रभो ! सृष्टि आदि पांच कृत्यों के लक्षण क्या हैं? यह हम दोनों को बताइए।
भगवान शिव बोले :- मेरे कर्तव्यों को समझना अत्यंत गहन है, तथापि मैं कृपापूर्वक तुम्हें बता रहा हूं। 'सृष्टि', 'पालन', 'संहार', 'तिरोभाव' और 'अनुग्रह' मेरे जगत संबंधी पांच कार्य हैं, जो नित्य सिद्ध हैं। संसार की रचना का आरंभ सृष्टि कहलाता है। मुझसे पालित होकर सृष्टि का सुस्थिर रहना उसका पालन है। उसका विनाश ही 'संहार' है । प्राणों के उत्क्रमण को 'तिरोभाव' कहते हैं। इन सबसे छुटकारा मिल जाना ही मेरा 'अनुग्रह' अर्थात 'मोक्ष' है। ये मेरे पांच कृत्य हैं। सृष्टि आदि चार कृत्य संसार का विस्तार करने वाले हैं। पांचवां कृत्य मोक्ष का है। मेरे भक्तजन इन पांचों कार्यों को पांच भूतों में देखते हैं। सृष्टि धरती पर, स्थिति जल में, संहार अग्नि में, तिरोभाव वायु में और अनुग्रह आकाश में स्थित है। पृथ्वी से सबकी सृष्टि होती है। जल से वृद्धि होती है। आग सबको जला देती है। वायु एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है और आकाश सबको अनुगृहीत करता है। इन पांचों कृत्यों का भार वहन करने के लिए ही मेरे पांच मुख हैं।
चार दिशाओं में चार मुख और इनके बीच में पांचवां मुख है। पुत्रो, तुम दोनों ने मुझे तपस्या से प्रसन्न कर सृष्टि और पालन दो कार्य प्राप्त किए हैं। इसी प्रकार मेरी 'विभूतिस्वरूप रुद्र' और 'महेश्वर' ने संहार और तिरोभाव कार्य मुझसे प्राप्त किए हैं परंतु मोक्ष मैं स्वयं प्रदान करता हूं। मैंने पूर्वकाल में अपने स्वरूपभूत मंत्र का उपदेश किया है, जो ओंकार रूप में प्रसिद्ध है। यह मंगलकारी मंत्र है। सर्वप्रथम मेरे मुख से ओंकार (ॐ) प्रकट हुआ जो मेरे स्वरूप का बोध कराता है। इसका स्मरण निरंतर करने से मेरा ही सदा स्मरण होता है।
मेरे उत्तरवर्ती मुख से अकार का, पश्चिम मुख से उकार का, दक्षिण मुख से मकार का, पूर्ववर्ती मुख से बिंदु का तथा मध्यवर्ती मुख से नाद का प्रकटीकरण हुआ है। इस प्रकार इन पांच अवयवों से ओंकार का विस्तार हुआ है। इन पांचों अवयवों के एकाकार होने पर प्रणव 'ॐ' नामक अक्षर उत्पन्न हुआ। जगत में उत्पन्न सभी स्त्री-पुरुष इस प्रणव-मंत्र में व्याप्त हैं। यह मंत्र शिव-शक्ति दोनों का बोधक है। इसी से पंचाक्षर मंत्र 'ॐ नमः शिवाय' की उत्पत्ति हुई है। यह मेरे साकार रूप का बोधक है। इस पंचाक्षर मंत्र से मातृका वर्ण प्रकट हुए हैं, जो पांच भेद वाले हैं। इसी से शिरोमंत्र सहित त्रिपदा गायत्री का प्राकट्य हुआ है। इस गायत्री से संपूर्ण वेद प्रकट हुए और उन वेदों से करोड़ों मंत्र निकले हैं। उन मंत्रों से विभिन्न कार्यों की सिद्धि होती है। इस पंचाक्षर प्रणव मंत्र से सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। इस मंत्र से भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त होते हैं।
नंदिकेश्वर कहते हैं :- जग दंबा उमा गौरी पार्वती के साथ बैठे महादेव ने उत्तरवर्ती मुख बैठे ब्रह्मा और विष्णु को परदा करने वाले वस्त्र से आच्छादित कर उनके मस्तक पर अपना हाथ रखकर धीरे-धीरे उच्चारण कर उन्हें उत्तम मंत्र का उपदेश दिया। तीन बार मंत्र का उच्चारण करके भगवान शिव ने उन्हें शिष्यों के रूप में दीक्षा दी । गुरुदक्षिणा के रूप में दोनों ने अपने आपको समर्पित करते हुए दोनों हाथ जोड़कर उनके समीप खड़े हो, जगद्गुरु भगवान शिव की इस प्रकार स्तुति करने लगे।
ब्रह्मा-विष्णु बोले :– प्रभो! आपके साकार और निराकार दो रूप हैं। आप तेज से प्रकाशित हैं, आप सबके स्वामी हैं, आप सर्वात्मा को नमस्कार है। आप प्रणव मंत्र के बताने वाले हैं तथा आप ही प्रणव लिंग वाले हैं। सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह आदि आपके ही कार्य हैं। आपके पांच मुख हैं, आप ही परमेश्वर हैं, आप सबकी आत्मा हैं, ब्रह्म हैं।
आपके गुण और शक्तियां अनंत हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं। इन पंक्तियों से स्तुति करते हुए गुरु महेश्वर को प्रसन्न कर ब्रह्मा और विष्णु ने उनके चरणों में प्रणाम किया।
महेश्वर बोले :– आर्द्रा नक्षत्र में चतुर्दशी को यदि इस प्रणव मंत्र का जप किया जाए तो यह अक्षय फल देने वाला है। सूर्य की संक्रांति में महा आर्द्रा नक्षत्र में एक बार किया प्रणव जप करोड़ों गुना जप का फल देता है। 'मृगशिरा' नक्षत्र का अंतिम भाग तथा 'पुनर्वसु' का शुरू का भाग पूजा, होम और तर्पण के लिए सदा आर्द्रा के समान ही है। मेरे लिंग का दर्शन प्रातः काल अर्थात मध्यान्ह से पूर्वकाल में करना चाहिए। मेरे दर्शन-पूजन के लिए चतुर्दशी तिथि उत्तम है। पूजा करने वालों के लिए मेरी मूर्ति और लिंग दोनों समान हैं। फिर भी मूर्ति की अपेक्षा लिंग का स्थान ऊंचा है। इसलिए मनुष्यों को शिवलिंग का ही पूजन करना चाहिए । लिंग का 'ॐ' मंत्र से और मूर्ति का पंचाक्षर मंत्र से पूजन करना चाहिए। शिवलिंग की स्वयं स्थापना करके या दूसरों से स्थापना करवाकर उत्तम द्रव्यों से पूजा करने से मेरा पद सुलभ होता है । इस प्रकार दोनों शिष्यों को उपदेश देकर भगवान शिव अंतर्धान हो गए।