Type Here to Get Search Results !

Shop Om Asttro

1 / 3
2 / 3

ad

शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (चतुर्थ खण्ड) के छठे अध्याय से दसवें अध्याय तक (From the sixth to the tenth chapter of the Shiva Purana Sri Rudra Samhita (4th volume))

  


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【श्रीरुद्र संहिता】

【चतुर्थ खण्ड

छठावाँ अध्याय 

"कार्तिकेय का अद्भुत चरित्र"

ब्रह्माजी बोले ;– नारद! इस प्रकार सभी अभीष्ट देवताओं से आशीर्वाद प्राप्त करके कुमार कार्तिकेय बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने सभी देवताओं का धन्यवाद व्यक्त किया। तत्पश्चात वे अपने सिंहासन पर जा तभी वहां एक ब्राह्मण दौड़ता हुआ आया। उस ब्राह्मण ने आकर कार्तिकेय को प्रणाम किया और उनके चरण पकड़ लिए और बोला- हे स्वामी! मैं आपकी शरण में आया हूं। मुझ पर कृपा करके मेरे कष्ट को दूर करें। तब कार्तिकेय ने उस ब्राह्मण को उठाया और आदरपूर्वक अपने पास बैठाकर उसके दुखी होने का कारण पूछा।

तब वह ब्राह्मण बोला ;- हे भगवन्! मैं अश्वमेध यज्ञ कर रहा हूं परंतु आज मेरा घोड़ा अपने बंधनों को तोड़कर कहीं चला गया है। हे प्रभु! मुझ पर कृपा करें और मेरे घोड़े को यथाशीघ्र ढूंढ़ दें, अन्यथा मेरा यज्ञ भंग हो जाएगा। यह कहकर वह ब्राह्मण पुनः कार्तिकेय के चरणों को पकड़कर रोने-गिड़गिड़ाने लगा। 

वह रोते-रोते बोला ;- आप पूरे ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं। आप सबकी सेवा करने को सदा तत्पर रहते हैं। आप सब देवताओं के स्वामी हैं और त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के पुत्र हैं।

इस प्रकार उस ब्राह्मण द्वारा की गई स्तुति को सुनकर कुमार कार्तिकेय बहुत प्रसन्न हुए। तब उन्होंने अपने वीर बलशाली प्रमुख गण वीरबाहु को बुलाकर उस घोड़े को जल्दी से जल्दी ढूंढ़ लाने की आज्ञा प्रदान की तथा यज्ञ को विधि-विधान के अनुसार पूर्ण कराने के लिए कहा। तब वीरबाहु ने कार्तिकेय को प्रणाम किया और ब्राह्मण के घोड़े को ढूंढ़ने के लिए निकल पड़ा। उसने पृथ्वीलोक पर हर जगह उस घोड़े को ढूंढ़ा। जिस व्यक्ति ने जो भी जानकारी दी उसके अनुसार वीरबाहु ने हर जगह उसकी तलाश की, परंतु वह असफल रहा। तब वह उस घोड़े की तलाश करने के लिए भगवान श्रीहरि विष्णु के लोक बैकुंठधाम गया। वहां जाकर वीरबाहु ने देखा कि एक घोड़े ने विष्णुलोक में बहुत आतंक मचा रखा था। में विष्णुलोक में वह घोड़ा खूब उपद्रव कर रहा था । कुमार कार्तिकेय के उस गण वीरबाहु ने तुरंत उस घोड़े को बंधक बना लिया और उसे पकड़कर अपने स्वामी कार्तिकेय के पास ले आया। तब स्वामी कार्तिकेय पूरे संसार का भार लेकर उस घोड़े पर चढ़कर बैठ गए और उस घोड़े को पूरे त्रिलोक की परिक्रमा करने का आदेश प्रदान किया। वह अद्भुत घोड़ा एक ही पल में तीनों लोकों की परिक्रमा करके लौट आया। तब कुमार कार्तिकेय उस घोड़े से उतरकर पुनः अपने आसन पर बैठ गए।

तब वह ब्राह्मण हाथ जोड़कर कार्तिकेय का धन्यवाद करने लगा और उनसे बोला कि प्रभु! आप यह घोड़ा मुझे सौंप दीजिए ताकि मैं अपना यज्ञ पूर्ण कर सकूं। तब कार्तिकेय मुस्कुराए और बोले- हे ब्राह्मण ! यह घोड़ा उत्तम है और यह वध के योग्य नहीं है। इसलिए आप इसे अपने साथ ले जाने के लिए न कहें। मैं आपके यज्ञ को पूर्ण होने का वरदान देता हूं। मेरे आशीर्वाद से आपका यज्ञ अवश्य सफल होगा।

【श्रीरुद्र संहिता】

【चतुर्थ खण्ड

सातवाँ अध्याय 

"भगवान शिव द्वारा कार्तिकेय को सौंपना"


ब्रह्माजी बोले ;- हे नारद! अपने पुत्र कार्तिकेय का अद्भुत पराक्रम देखकर भगवान शिव और देवी पार्वती बहुत प्रसन्न हुए । तब सब देवताओं सहित श्रीहरि विष्णु और देवराज इंद्र और मैं भी बहुत हर्षित हुए और "

भगवान शिव से बोले ;- हे देवाधिदेव! भगवन्! आप तो सर्वेश्वर हैं, सर्वज्ञाता हैं। संसार की सब घटनाएं आपकी इच्छा से ही घटती हैं। आप तो जानते ही हैं कि ब्रह्माजी द्वारा असुरराज तारक को दिए गए वर के अनुसार शिव पुत्र ही उसका वध करने में सक्षम होगा। इसलिए ही कुमार कार्तिकेय का जन्म हुआ है। प्रभु ! हम लोगों के कष्टों को दूर करके हमारे जीवन को सुखी करने के लिए आप अपने पुत्र कार्तिकेय को आज्ञा दीजिए कि वह तारकासुर का वध करे ।

यह कहकर सब देवता भगवान शिव की स्तुति करने लगे। तब भगवान शिव का हृदय हम सबकी प्रार्थना से द्रवित हो उठा। उन्होंने हमारी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया और अपने पुत्र कुमार कार्तिकेय को देवताओं को सौंप दिया। तब भगवान शिव ने अपने पुत्र कार्तिकेय को यह आज्ञा दी कि देवताओं की विशाल सेना का नेतृत्व करें और देवताओं के दुखों और संकटों को दूर करने के लिए तारकासुर का वध करें। अपने पिता भगवान शिव की यह आज्ञा पाकर स्वामी कार्तिकेय बहुत प्रसन्न हुए। तब उन्होंने हाथ जोड़कर अपनी माता पार्वती और पिता महादेव जी को प्रणाम किया और कहा कि हे माता! हे पिता ! आप मुझे विजयी होने का आशीर्वाद प्रदान करें। 

यह सुनकर भगवान शिव मुस्कुराए और बोले ;— कुमार ! निश्चय ही तुम अपने इस प्रथम युद्ध में अपने घोर शत्रु तारकासुर का वध करके विजयी होगे। हमारा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है।

इधर देवी पार्वती के हृदय में अपने प्रिय पुत्र के युद्ध में जाने की बात सुनकर ही पीड़ा होने लगी। वात्सल्य के कारण उनकी आंखों में आंसू आ गए थे। 

वे बहुत दुखी हुईं और कहने लगीं ;- हे नाथ! हे देवाधिदेव! मेरा पुत्र कार्तिकेय अभी बहुत छोटा है और वह तारकासुर महाबलशाली और शक्तिशाली है। उस दुष्ट ने अपनी दुष्टता से सभी देवताओं को भी परास्त कर दिया है। जब इतनी शक्तियों के स्वामी देवता उसका कुछ नहीं बिगाड़ सके तो मेरा यह नन्हा सा पुत्र भला कैसे उसको हरा सकता है। मेरा दिल मुझे कार्तिकेय को युद्ध में भेजने की आज्ञा नहीं देता है। मैं अपने पुत्र को अपने साथ रखना चाहती हूं। यह वचन सुनकर सभी देवताओं सहित भगवान शिव भी चिंतित हो गए। 

तब महादेव जी देवी पार्वती को समझाते हुए बोले ;— हे देवी! हे शिवा! आप सामान्य स्त्रियों की तरह क्यों व्यवहार कर रही हैं? यह मेरा और आपका पुत्र होने के कारण महाशक्तिशाली और वीर योद्धा है। देवताओं ने इसे अपनी अभीष्ट शक्तियां प्रदान की हैं। कार्तिकेय की जीत निश्चित है। कार्तिकेय का उत्पन्न होना तारकासुर के वध का प्रतीक है। आप व्यर्थ में चिंतित न हों और अपने पुत्र को खुशी खुशी तारक के वध के लिए भेजें। भगवान शिव के ऐसे वचन सुनकर देवी पार्वती को बहुत संतोष हुआ और उन्होंने कार्तिकेय को युद्ध में जाने की आज्ञा दे दी। तब सब देवताओं का भय दूर हुआ और उनमें प्रसन्नता की लहर दौड़ गई।

【श्रीरुद्र संहिता】

【चतुर्थ खण्ड

आठवाँ अध्याय 

"युद्ध का आरंभ"


ब्रह्माजी बोले ;– नारद! जब देवी पार्वती और भगवान शिव ने कुमार कार्तिकेय को युद्ध का नेतृत्व करने की आज्ञा प्रदान की, तो सभी देवता बहुत प्रसन्न हुए और एकत्र होकर उस पर्वत की ओर चल दिए। सिंहनाद करते हुए वे आगे बढ़ने लगे। उस समय कार्तिकेय सेना का नेतृत्व करते हुए सबसे आगे चल रहे थे। सब देवता मन में यही सोच रहे थे कि अब उन्हें तारकासुर नाम की मुसीबत से छुटकारा मिल जाएगा। जब तारकासुर को इस बात का पता चला कि देवताओं ने युद्ध की तैयारी पूरी कर ली है, तो तारकासुर ने भी तुरंत युद्ध की घोषणा कर दी। अपनी विशाल चतुरंगिणी सेना को लेकर तारक भी सिंहनाद करता हुआ देवताओं की ओर बढ़ने लगा। राक्षसों की सेना देखकर एक पल के लिए देवता घबरा गए। उसी समय आकाशवाणी हुई- हे देवगणो! तुम लोग भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय के नेतृत्व में युद्ध करने जा रहे हो। इसलिए तुम जरूर जीतोगे। तारकासुर कार्तिकेय के हाथों अवश्य मारा जाएगा।

उस आकाशवाणी को सुनकर सभी देवताओं का उत्साह बढ़ गया और उनका डर दूर हो गया। उस समय 'दुंदुभी' और अनेक प्रकार के बाजों की ध्वनि आकाश में गूंजने लगी। तब देवता और राक्षस युद्ध करने के लिए पृथ्वी और सागर के संगम पर पहुंचे। दोनों पक्षों में बड़ा भयानक युद्ध छिड़ गया। युद्ध की भयंकर गर्जना से पृथ्वी भी डोलने लगी। देवताओं की सेना का नेतृत्व शिवपुत्र कार्तिकेय कर रहे थे। उनके पीछे-पीछे देवराज इंद्र सहित देवताओं की विशाल सेना थी । कार्तिकेय उस समय इंद्रदेव के ऐरावत हाथी पर विराजमान थे। तब उन्होंने उस हाथी को छोड़दिया और रत्नों से जड़े सुंदर यान पर बैठ गए। उस सुंदर विमान पर प्रचेता ने सुंदर छत्र रखा। उस सुंदर विमान में बैठकर कार्तिकेय बहुत निराले और शोभा संपन्न लग रहे थे।

उसी समय देवताओं और असुरों में भयानक युद्ध प्रारंभ हो गया। पृथ्वी कांपने लगी और फल भर में खण्ड-मुण्डों में बदलने लगी। हजारों सैनिक, जो पराक्रम से लड़ रहे थे, कट कटकर और घायल होकर धरती पर गिरने लगे। चारों तरफ खून की नदियां बहने लगी थीं। ऐसा भयानक दृश्य देखकर बहुत से भूत-प्रेत और गीदड़-गीदड़ी उस मांस को खाने और खू पीने के लिए वहां आ गए। तभी महाबली तारकासुर ने विशाल सेना सहित देवताओं पर आक्रमण किया। देवराज इंद्र सहित अनेक देवताओं ने उसे रोकने का बहुत प्रयत्न किया परंतु असफल रहे और तारकासुर भयानक गर्जना करता हुआ आगे बढ़ता गया। चारों ओर भयानक शोर मचा हुआ था। आक्रमण करते समय सैनिक बड़े जोर-जोर से अपने मुंह से आवाज निकालते हुए आगे बढ़ रहे थे। देवताओं और राक्षसों का युद्ध बड़ा वीभत्स रूप ले चुका था। वहां भारी कोलाहल मचा हुआ था। तत्पश्चात देवताओं और असुरराज तारक के राक्षसगण आपस में द्वंद्व युद्ध करने लगे थे। एक-दूसरे को मारकर वे अपने को बहुत बलशाली समझ रहे थे। वे रे बल के साथ एक-दूसरे पर प्रहार करते। कोई किसी के हाथ तोड़ देता तो कोई पैर । दोनों सेनाएं अपने को पराक्रमी समझ रही थीं।

【श्रीरुद्र संहिता】

【चतुर्थ खण्ड

नवाँ अध्याय 

"तारकासुर की वीरता"

ब्रह्माजी बोले ;– नारद! इस प्रकार देवताओं और दानवों में बड़ा विनाशकारी युद्ध होने लगा। तारकासुर ने अपनी विशेष शक्ति चलाकर इंद्रदेव को घायल कर दिया। इसी प्रकार दानवों की सेना के वीर और बलवान राक्षसों ने देवताओं की सेना को बहुत नुकसान पहुंचाया। उन्होंने कई लोकपालों को युद्ध में हरा दिया और देवगणों को मार-मारकर भगाने लगे। असुर सैनिकों को देवताओं पर हावी होते देखकर असुर खुशी में झूम उठे और भयंकर गर्जना करने लगे। तब देवताओं की ओर से लड़ रहे वीरभद्र क्रोधित होकर तारकासुर के निकट पहुंचे। असुरों ने वीरभद्र को चारों ओर से घेर लिया। उन्होंने परस्पर पाश, खड्ग, फरसा और पट्टिश आदि आयुधों का प्रयोग किया। देवता और असुर आपस में गुत्थम गुत्था होकर लड़ने लगे।

तभी देवताओं की ओर से वीरभद्र तारकासुर से लड़ने लगे। वीरभद्र ने पूरी शक्ति से तारकासुर पर आक्रमण किया और उसको त्रिशूल के प्रहार से घायल कर दिया। घायल होकर तारक जमीन पर गिर पड़ा परंतु अगले ही पल उसने स्वयं को संभाल लिया और पुनः खड़े होकर वीरभद्र से युद्ध करने लगा। महाकौतुकी तारक ने भीषण मार से वीरभद्र को घायल करके वहां से भगा दिया। तत्पश्चात उसने वहां युद्ध कर रहे देवताओं को अपने क्रोध का निशाना बनाया। तारक देवताओं पर अपने बाणों की बरसात करने लगा। तारकासुर के इस अनायास बाणों की वर्षा से देवता भयभीत हो गए। तब स्वयं श्रीहरि विष्णु तारकासुर से लड़ने के लिए आगे आए। श्रीहरि ने गदा से तारकासुर पर ज्यों ही प्रहार किया उसने विशित्व बाण मारकर उसके दो टुकड़े कर दिए। तब क्रोधित होकर विष्णुजी ने शारंग धनुष उठाया और तारक को मारने के लिए बढ़े। तभी तारक ने प्रहार करके उन्हें गिरा दिया तो श्रीविष्णु ने गुस्से से सुदर्शन चक्र चला दिया।

नारद! तब मैंने कुमार कार्तिकेय के पास जाकर उनसे कहा कि मेरे दिए हुए वरदान के अनुसार तारकासुर का वध आपके श्रीहाथों से ही होगा। इसलिए कोई भी देवता तारक का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है। यह सुनकर कार्तिकेय रथ से नीचे उतर गए और पैदल ही तारक को मारने के लिए दौड़े। उनके हाथ में उनकी शक्ति थी, जो लपटों के समान चमकती हुई उल्का की तरह लग रही थी। 

छः मुख वाले कुमार कार्तिकेय को देखकर तारकासुर बोला ;- देवताओ! क्या यही बालक है तुम्हारा वीर, पराक्रमी कुमार, जो शत्रुओं का पल में विनाश कर देता है? यह कहकर तारकासुर जोर से अट्टहास करने लगा और बोला कि इस बालक के साथ तुम सभी को मार दूंगा। तुम इस बालक की मेरे हाथों हत्या कराओगे। ऐसा बोलते हुए भयानक गर्जना करता हुआ वह कुमार कार्तिकेय की ओर पलटा और बोला कि हे बालक! ये मूर्ख देवता तो व्यर्थ में तुझे बलि का बकरा बनाना चाहते हैं। पर मैं इतना कठोर नहीं हूं कि बिना किसी अपराध के एक मासूम बालक पर वार करूं । इसलिए जा तू भाग जा। मैं तेरे प्राणों को छोड़ देता हूं।

देवराज इंद्र और भगवान श्रीहरि विष्णु की निंदा करने से तारक द्वारा कमाया गया तपस्या का सारा पुण्य नष्ट हो गया था। तभी इंद्र ने उस पर वज्र का प्रहार किया, जिससे वह धरती पर गिर पड़ा। तब कुछ ही देर में तारकासुर पूरे उत्साह के साथ पुनः उठ खड़ा हुआ और अपने भीषण प्रहार से उसने देवराज इंद्र को घायल कर दिया और उन पर अपने पैर का प्रहार किया। यह देखकर देवता भयभीत हो गए और इधर-उधर भागने लगे। तभी श्रीहरि विष्णु ने इस स्थिति को संभालने के लिए तारकासुर पर अपना सुदर्शन चक्र चला दिया। चक्र ने तारकासुर को धराशायी कर दिया परंतु तारकासुर इतनी आसानी से हार मानने वाला नहीं था। वह अपनी पूरी शक्ति के साथ पुनः उठकर खड़ा हो गया। तब उसने अपनी प्रचंड शक्ति हाथ में लेकर भगवान विष्णु को ललकारा और उन्हें अपने भीषण प्रहार से घायल कर दिया। विष्णुजी मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े।

वहां का यह दृश्य देखकर सभी देवताओं में कोहराम मच गया। सब अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए इधर-उधर भागने लगे। सारी सेना तितर-बितर होने लगी। यह देख वीरभद्र ने तारकासुर पर आक्रमण किया। उसने त्रिशूल उठाया और तारकासुर पर वार किया, जिससे तारकासुर भूमि पर गिर पड़ा, किंतु उसी क्षण उठकर उसने वीरभद्र को अपनी शक्ति से घायल करके मूर्छित कर दिया और जोर-जोर से हंसने लगा।

【श्रीरुद्र संहिता】

【चतुर्थ खण्ड

दसवाँ अध्याय 

"तारकासुर वध"

ब्रह्माजी बोले ;- नारद ! यह सब देखकर कुमार कार्तिकेय को तारकासुर पर बड़ा क्रोध आया और वे अपने पिता भगवान शिव के श्रीचरणों का स्मरण कर अपने असंख्य गणों को साथ लेकर तारकासुर को मारने के लिए आगे बढ़े। यह देखकर सभी देवताओं में उत्साह की एक लहर दौड़ गई और वे प्रसन्न मन से कार्तिकेय की जय-जयकार का उद्घोष करने लगे। ऋषि-मुनियों ने अपनी वाणी से कुमार कार्तिकेय की स्तुति की। तत्पश्चात तारकासुर और कार्तिकेय का बड़ा भयानक, दुस्सह युद्ध हुआ। दोनों परमवीर और बलशाली एक-दूसरे पर भीषण प्रहार करने लगे। दोनों अनेक प्रकार के दांवपेचों का प्रयोग कर रहे थे। कार्तिकेय और तारकासुर के बीच मंत्रों से भी युद्ध हो रहा था। दोनों अपनी पूरी शक्ति और सामर्थ्य का प्रयोग एक-दूसरे को मारने के लिए कर रहे थे। इस भयानक युद्ध में दोनों ही घायल हो रहे थे। युद्ध भयानक रूप लेता जा रहा था। उस भीषण युद्ध को सब देवता, गंधर्व बैठकर देखने लगे। वह अद्भुत युद्ध अनायास ही सबके आकर्षण का केंद्र बन गया। हवा चलना भूल गई। सूर्य की किरणें ठहर गईं। यहां तक कि सभी पर्वत इस युद्ध को देखकर अत्यंत भयभीत हो उठे। वे शिव-पार्वती के इस पुत्र की रक्षा करने के लिए तुरंत उधर आ गए।

यह देखकर कार्तिकेय बोले ;- हे पर्वतो! आप कोई चिंता न करें। आज इस महापापी को मैं सबके सामने मौत के घाट उतारकर भय से मुक्ति दिलाऊंगा। जब कार्तिकेय पर्वतों से बात करने में निमग्न थे, उसी समय तारक ने अपनी शक्ति हाथ में लेकर उन पर धावा बोल दिया। उस शक्ति के प्रहार के आघात से शिवपुत्र कार्तिकेय भूमि पर गिर पड़े परंतु अगले ही क्षण वे अपनी पूरी शक्ति के साथ पुनः उठ खड़े हुए और लड़ने के लिए तैयार हो गए। कार्तिकेय ने अपने मन में अपने माता-पिता पार्वती जी व भगवान शिव को प्रणाम करके उनका आशीर्वाद लिया और अपनी प्रबल शक्ति से तारकासुर की छाती पर आघात किया। उसकी चोट से तारकासुर का शरीर विदीर्ण होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। सबके देखते ही देखते वह महाबली असुर पल भर में ढेर हो गया।

महाबली तारकासुर के मारे जाते ही चारों ओर कार्तिकेय की जय-जयकार गूंज उठी। तारकासुर के वध से सभी देवता बहुत प्रसन्न थे। तब अपने महाराज तारकासुर को मरा जानकर असुरों की विशाल सेना में भयानक कोलाहल मच गया। अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए सभी असुर इधर-उधर भाग रहे थे। देवताओं ने मिलकर सभी असुरों को मार गिराया। कुछ असुर डरकर मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए थे। तो बहुत से दैत्य और राक्षस हाथ जोड़कर कुमार कार्तिकेय की शरण में आ गए और उनसे क्षमा मांगने लगे। तब कुमार ने प्रेमपूर्वक उन्हें क्षमा कर दिया और उन दानवों को आदेश दिया कि वे सदैव के लिए पाताल में चले जाएं।

इस प्रकार तारकासुर के मारे जाने पर उसकी सारी सेना पल भर में नष्ट हो गई। यह देखकर देवराज इंद्र के साथ-साथ समस्त देवताओं और संसार के प्राणियों में खुशी की लहर दौड़ पड़ी। पूरा त्रिलोक आनंद में डूब गया। जैसे ही कुमार कार्तिकेय की विजय का समाचार भगवान शिव-पार्वती के पास पहुंचा वे तुरंत अपने गणों को साथ लेकर युद्ध स्थल पर पधारे। श्री पार्वती जी ने अपने प्राणप्रिय पुत्र को अपने हृदय से लगा लिया और अपनी गोद में बिठाकर बहुत देर तक उसे चूमती रहीं। तभी वहां पर पर्वतराज हिमालय भी पहुंच गए और उन्होंने अपनी पुत्री पार्वती, भगवान शिव और कार्तिकेय की स्तुति की। चारों दिशाओं से उन पर फूलों की वर्षा होने लगी। मंगल ध्वनि हर ओर गूंजने लगी। हर तरफ उनकी ही जय जयकार हो रही थी। देवताओं के स्वामी देवराज इंद्र ने अपने साथी देवताओं के साथ कुमार कार्तिकेय की हाथ जोड़कर स्तुति की। तत्पश्चात भगवान शिव अपनी पत्नी पार्वती को साथ लेकर शिवगणों सहित कैलाश पर्वत पर लौट गए।

Tags

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.