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शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (द्वितीय खण्ड) के इक्कीसवें अध्याय से पच्चीसवें अध्याय तक (From the twenty-first chapter to the twenty-fifth chapter of Shiv Purana Sri Rudra Samhita (second volume))

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【श्रीरुद्र संहिता】

【द्वितीय खण्ड

इक्कीसवां अध्याय 

"शिव-सती विहार"


नारद जी ने पूछा ;- हे पितामह ब्रह्माजी! शिवजी के विवाह के पश्चात सभी पधारे देवी देवताओं और ऋषि-मुनियों सहित श्रीहरि और आपको विदा करने के पश्चात क्या हुआ? हे प्रभु! इससे आगे की कथा का वर्णन भी आप मुझसे करें। यह सुनकर ब्रह्माजी ने मुस्कुराते हुए कहा- हे महर्षि नारद! सभी उपस्थित देवताओं को विवाहोपरांत भगवान शिव और देवी सती ने प्रसन्नतापूर्वक विदा कर दिया। तत्पश्चात देवी सती ने सभी शिवगणों को भी कुछ समय के लिए कैलाश पर्वत से जाने की आज्ञा प्रदान की। सभी शिवगणों ने महादेव जी को प्रणाम कर उनकी स्तुति की। तत्पश्चात उन्होंने भगवान शंकर से वहां से जाने की आज्ञा मांगी। आज्ञा देते हुए महादेव जी ने कहा- जाएं लेकिन मेरे स्मरण करने पर आप सभी तुरंत मेरे समक्ष उपस्थित हो जाएं। तब नंदी समेत सभी गण वहां भगवान शिव और देवी सती को अकेला छोड़कर कुछ समय के लिए कैलाश पर्वत से चले गए।

अब कैलाश पर्वत पर भगवान शिव सती के साथ अकेले थे। देवी सती भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त कर बहुत खुश थीं। बहुत कठिन तप के उपरांत ही उन्हें भगवान शिव का सान्निध्य मिल पाया था। यह सोचकर वह बहुत रोमांचित थीं। उधर देवी सती के अनुपम सौंदर्य को देखकर शिवजी भी मोहित हो चुके थे। वे भी देवी सती का साथ पाकर अपने को धन्य समझ रहे थे। एकांत पाकर शिवजी अपनी पत्नी सती के साथ कैलाश पर्वत के शिखर पर रमण करने लगे।

【श्रीरुद्र संहिता】

【द्वितीय खण्ड

बाईसवां अध्याय 

"शिव-सती का हिमालय गमन"


कैलाश पर्वत पर श्रीशिव और दक्ष कन्या सती के विविध विहारों का विस्तार से वर्णन करने के बाद ब्रह्माजी ने कहा,

नारद! एक दिन की बात है कि देवी सती भगवान शिव को प्रेमपूर्वक प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर खड़ी हो गईं। उन्हें चुपचाप खड़े देखकर भगवान शिव समझ गए कि देवी सती के मन में कुछ बात अवश्य है, जिसे वह कहना चाह रही हैं। तब उन्होंने मुस्कुराकर देवी सती से पूछा कि हे प्राणवत्सला ! कहिए आप क्या कहना चाहती हैं? यह सुनकर देवी सती बोलीं,

हे भगवन्! वर्षा ऋतु आ गई है। चारों ओर का वातावरण सुंदर व मनोहारी हो गया है। हे देवाधिदेव! मैं चाहती हूं कि कुछ समय हम कैलाश पर्वत से दूर पृथ्वी पर या हिमालय पर्वत पर जाकर रहें। वर्षा काल के लिए हम किसी योग्य स्थान पर चले जाएं और कुछ समय वहीं निवास करें। देवी सती की यह प्रार्थना सुनकर भगवान शिव हंसने लगे। हंसते हुए ही उन्होंने अपनी पत्नी सती से कहा कि प्रिये ! जहां पर मैं निवास करता हूं, वहां पर मेरी इच्छा के विरुद्ध कोई भी आ-जा नहीं सकता है। मेघ भी मेरी आज्ञा के बिना कैलाश पर्वत की ओर कभी नहीं आएंगे। वर्षा काल में भी मेघ सिर्फ नीचे की ओर ही घूमकर चले जाएंगे। हे प्रिये ! तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध कोई भी तुम्हें परेशान नहीं कर सकता। 

फिर भी यदि आप चाहती हैं तो हम हिमालय पर्वत पर चलते हैं। तत्पश्चात भगवान शिव अपनी पत्नी सती के साथ हिमालय पर चले गए। कुछ समय वहां प्रसन्नतापूर्वक विहार करने के पश्चात वे पुनः अपने निवास पर लौट आए।

【श्रीरुद्र संहिता】

【द्वितीय खण्ड

तेईसवां अध्याय 

"शिव द्वारा ज्ञान और मोक्ष का वर्णन"


ब्रह्माजी बोले ;- हे महर्षि नारद! भगवान शिव और सती के हिमालय से वापस आने के पश्चात वे पुनः पहले की तरह कैलाश पर्वत पर अपना निवास करने लगे। एक दिन देवी सती ने भगवान शिव को भक्तिभाव से नमस्कार किया और कहने लगीं- हे देवाधिदेव! महादेव! कल्याणसागर! आप सभी की रक्षा करते हैं। हे भगवन्! मुझ पर भी अपनी कृपादृष्टि कीजिए। प्रभु, आप परम पुरुष और सबके स्वामी हैं। आप रजोगुण, तमोगुण और सत्वगुण से दूर हैं। आपको पति रूप में पाकर मेरा जन्म सफल हो गया। हे करुणानिधान! आपने मुझे हर प्रकार का सुख दिया है तथा मेरी हर इच्छा को पूरा किया है परंतु अब मेरा मन तत्वों खोज करता है। मैं उस परम तत्व का ज्ञान प्राप्त करना चाहती हूं जो सभी को सुख प्रदान करने वाला है। जिसे पाकर जीव संसार के दुखों और मोह-माया से मुक्त हो जाता है और उसका उद्धार हो जाता है। प्रभु! मुझ पर कृपा कर आप मेरा ज्ञानवर्द्धन करें।

ब्रह्माजी बोले ;- मुने! इस प्रकार आदिशक्ति देवी सती ने जीवों के उद्धार के लिए भगवान शिव से प्रश्न किया। उस प्रश्न को सुनकर महान योगी, सबके स्वामी भगवान शिव प्रसन्नतापूर्वक बोले—हे देवी! हे दक्षनंदिनी! मैं तुम्हें उस अमृतमयी कथा को सुनाता हूं, जिसे सुनकर मनुष्य संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है। यही वह परमतत्व विज्ञान है जिसके उदय होने से मेरा ब्रह्मस्वरूप है। ज्ञान प्राप्त करने पर उस विज्ञानी पुरुष की बुद्धि शुद्ध हो जाती है। उस विज्ञान की माता मेरी भक्ति है। यह भोग और मोक्ष रूप को प्रदान करती है। भक्ति और ज्ञान सदा सुख प्रदान करता है। भक्ति के बिना ज्ञान और ज्ञान के बिना भक्ति की प्राप्ति नहीं होती है। हे देवी! मैं सदा अपने भक्तों के अधीन हूं। 

भक्ति दो प्रकार की होती है ,— सगुण और निर्गुण। शास्त्रों से प्रेरित और हृदय के सहज प्रेम से प्रेरित भक्ति श्रेष्ठ होती है परंतु किसी वस्तु की कामनास्वरूप की गई भक्ति, निम्नकोटि की होती है। हे प्रिये! मुनियों ने सगुणा और निर्गुणा नामक दोनों भक्तियों के नौ-नौ भेद बताए हैं। श्रवण, कीर्तन, स्मरण, सेवन, दास्य, अर्चन, वंदन, सख्य और आत्मसमर्पण ही भक्ति के अंग माने जाते हैं। जो एक स्थान पर स्थिरतापूर्वक बैठकर तन-मन को एकाग्रचित्त करके मेरी कथा और कीर्तन को प्रतिदिन सुनता है, इसे 'श्रवण' कहा जाता है। जो अपने हृदय में मेरे दिव्य जन्म-कर्मों का चिंतन करता है और उसका अपनी वाणी से उच्चारण करता है, इसे भजन रूप में गाना ही 'कीर्तन' कहा जाता है।

मेरे स्वरूप को नित्य अपने आस-पास हर वस्तु में तलाश कर मुझे सर्वत्र व्यापक मानना तथा सदैव मेरा चिंतन करना ही 'स्मरण' है। सूर्य निकलने से लेकर रात्रि तक (सूर्यास्त तक) हृदय और इंद्रियों से निरंतर मेरी सेवा करना ही 'सेवन' कहा जाता है। स्वयं को प्रभु का किंकर समझकर अपने हृदयामृत के भोग से भगवान का स्मरण 'दास्य' कहा जाता है।

अपने धन और वैभव के अनुसार सोलह उपचारों के द्वारा मनुष्य द्वारा की गई मेरी पूजा 'अर्चन' कहलाती है। मन, ध्यान और वाणी से मंत्रों का उच्चारण करते हुए इष्टदेव को नमस्कार करना 'वंदन' कहा जाता है। ईश्वर द्वारा किए गए फैसले को अपना हित समझकर उसे सदैव मंगल मानना ही 'सख्य' है। मनुष्य के पास जो भी वस्तु है वह भगवान की प्रसन्नता के लिए उनके चरणों में अर्पण कर उन्हें समर्पित कर देना ही 'आत्मसमर्पण' कहलाता है। भक्ति के यह नौ अंग भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। ये सभी ज्ञान के साधन मुझे प्रिय हैं।

मेरी सांगोपांग भक्ति ज्ञान और वैराग्य को जन्म देती है। इससे सभी अभीष्ट फलों की प्राप्ति होती है। मुझे मेरे भक्त बहुत प्यारे हैं। तीनों लोकों और चारों युगों में भक्ति के समान दूसरा कोई भी सुखदायक मार्ग नहीं है। कलियुग में, जब ज्ञान और वैराग्य का ह्रास हो जाएगा तब भी भक्ति ही शुभ फल प्रदान करने वाली होगी। मैं सदा ही अपने भक्तों के वश में रहता हूं। मैं अपने भक्तों की विपरीत परिस्थिति में सदैव सहायता करता हूं और उसके सभी कष्टों को दूर करता हूं। मैं अपने भक्तों का रक्षक हूं।

ब्रह्माजी बोले ;– नारद! देवी सती को भक्त और भक्ति का महत्व सुनकर बहुत प्रसन्नता हुई। उन्होंने भगवान शिव को प्रणाम किया और पुनः शास्त्रों के बारे में पूछा। वे यह जानना चाहती थीं कि सभी जीवों का उद्धार करने वाला, उन्हें सुख प्रदान करने वाला सभी साधनों का प्रतिपादक शास्त्र कौन-सा है? वे ऐसे शास्त्र का माहात्म्य सुनना चाहती थीं। सती का प्रश्न सुनकर शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक सब शास्त्रों के विषय में देवी सती को बताया। महेश्वर ने पांचों अंगों सहित तंत्रशास्त्र, यंत्रशास्त्र तथा सभी देवेश्वरों की महिमा का वर्णन किया। उन्होंने इतिहास की कथा भी सुनाई। पुत्र और स्त्री के धर्म की महिमा भी बताई। मनुष्यों को सुख प्रदान करने वाले वैद्यक शास्त्र तथा ज्योतिष शास्त्र का भी वर्णन किया। भगवान शिव ने भक्तों का माहात्म्य और राज धर्म भी बताया।

इसी प्रकार भगवान शिव ने सती को उनके पूछे सभी प्रश्नों का उत्तर देते हुए सभी कथाएं सुनाईं।

【श्रीरुद्र संहिता】

【द्वितीय खण्ड

चौबीसवां अध्याय 

"शिव की आज्ञा से सती द्वारा श्रीराम की परीक्षा"


नारद जी बोले ;– हे ब्रह्मन्! हे महाप्राज्ञ! हे दयानिधे! आपने मुझे भगवान शंकर तथा देवी सती के मंगलकारी चरित्र के बारे में बताया। हे प्रभु! मैं महादेव जी का सपत्नीक यश वर्णन सुनना चाहता हूं। कृपया अब मुझे आप यह बताइए कि तत्पश्चात शिवजी व सती ने क्या किया? उनके सभी चरित्रों का वर्णन मुझसे करें।

ब्रह्माजी ने कहा ;- मुने! एक बार की बात है कि सतीजी को अपने पति का वियोग प्राप्त हुआ। यह वियोग भी उनकी लीला का ही रूप था क्योंकि इनका परस्पर वियोग तो हो ही नहीं सकता है। यह वाणी और अर्थ के समान है, यह शक्ति और शक्तिमान है तथा चित्रस्वरूप है। सती और शिव तो ईश्वर हैं। वे समय-समय पर नई-नई लीलाएं रचते हैं।

सूत जी कहते हैं ;- महर्षियो! ब्रह्माजी की बात सुनकर नारद जी ने ब्रह्माजी से देवी सती और भगवान शिव के बारे में पूछा कि भगवान शिव ने अपनी पत्नी सती का त्याग क्यों किया? ऐसा किसलिए हुआ कि स्वयं वर देने के बाद भी उन्होंने देवी सती को छोड़ दिया? प्रजापति दक्ष ने अपने यज्ञ के आयोजन में भगवान शिव को निमंत्रण क्यों नहीं दिया? और यज्ञ स्थल पर भगवान शंकर का अनादर क्यों किया। उस यज्ञ में सती ने अपने शरीर का त्याग क्यों किया तथा इसके पश्चात वहां पर क्या हुआ? हे प्रभु! कृपा कर मुझे इस विषय में सविस्तार बताइए।

ब्रह्माजी बोले ;- हे महाप्राज्ञ नारद! मैं तुम्हारी उत्सुकता देखकर तुम्हारी सभी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए तुम्हें सारी बातें बताता हूं। ये सभी भगवान शिव की ही लीला है। उनका स्वरूप स्वतंत्र और निर्विकार है। देवी सती भी उनके अनुरूप ही हैं। एक समय की बात है, भगवान शिव अपनी प्राणप्रिया पत्नी सती के साथ अपनी सवारी नंदी पर बैठकर पृथ्वीलोक का भ्रमण कर रहे थे। घूमते-घूमते वे दण्डकारण्य में आ गए। उस वन में उन्होंने भगवान श्रीराम को उनके भ्राता लक्ष्मण के साथ जंगलों में भटकते हुए देखा। वे अपनी पत्नी सीता को खोज रहे थे, जिसे लंका का राजा रावण उठाकर ले गया था। वे जगह-जगह भटकते हुए उनका नाम पुकार कर उन्हें ढूंढ़ रहे थे। पत्नी के बिछुड़ जाने के कारण श्रीराम अत्यंत दुखी दिखाई दे रहे थे। उनकी कांति फीकी पड़ गई थी। भगवान शिव ने वन में राम जी को भटकते देखा परंतु उनके सामने प्रकट नहीं हुए। देवी सती को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। वे शिवजी से बोलीं

हे सर्वेश! हे करुणानिधान सदाशिव! हे परमेश्वर ! ब्रह्मा, विष्णु सहित सभी देवता आपकी ही सेवा करते हैं। आप सब के द्वारा पूजित हैं। वेदांत और शास्त्रों के द्वारा आप ही निर्विकार प्रभु हैं। हे नाथ! ये दोनों पुरुष कौन हैं? ये दोनों विरह व्यथा से व्याकुल रहते हैं। ये दोनों धनुर्धर वीर जंगलों में क्यों भटक रहे हैं? भगवन् इनमें ज्येष्ठ पुरुष की अंगकांति नीलकमल के समान श्याम है। आप उसे देखकर इतना आनंद विभोर क्यों हो रहे हैं? आपने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें प्रणाम क्यों किया? स्वामी कभी भक्त को प्रणाम नहीं करता। हे कल्याणकारी शिव! आप मेरे संशय को दूर कीजिए और मुझे इस विषय में बताइए। 

ब्रह्माजी बोले ;- नारद! कल्याणमयी आदिशक्ति देवी सती ने जब भगवान शिव से इस प्रकार प्रश्न पूछने आरंभ किए तो देवों के देव महादेव भगवान हंसकर बोले- देवी यह सभी तो पूर्व निर्धारित है। मैंने उन्हें दिए गए वरदान स्वरूप ही उन्हें नमस्कार किया था। ये दोनों भाई सभी वीरों द्वारा सम्मानित हैं। इनके शुभ नाम श्रीराम और लक्ष्मण हैं। ये सूर्यवंशी राजा दशरथ के पुत्र हैं। इनमें गोरे रंग के छोटे भाई साक्षात शेष के अंश हैं तथा उनका नाम लक्ष्मण है। बड़े भाई श्रीराम भगवान विष्णु का अवतार हैं। धरती पर इनका जन्म साधुओं की रक्षा और पृथ्वी वासियों के कल्याण के लिए ही हुआ है। भगवान शिव की ये बातें सुनकर सती को विश्वास नहीं हुआ। ऐसा विभ्रम भगवान शिव की माया के कारण ही हुआ था। जब भगवान शिव को यह ज्ञात हुआ कि देवी सती को उनकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ है तो वे अपनी पत्नी दक्षकन्या सती से बोले- देवी! यदि तुम्हें मेरी बातों पर विश्वास नहीं है तो तुम स्वयं श्रीराम की परीक्षा ले लो। जब तक तुम इस बात से आश्वस्त न हो जाओ कि वे दोनों पुरुष ही राम और लक्ष्मण हैं, और तुम्हारा मोह न नष्ट हो जाए, तब तक मैं यहीं बरगद के नीचे खड़ा हूं। तुम जाकर श्रीराम और लक्ष्मण की परीक्षा लो।

ब्रह्माजी बोले ;- हे महामुने नारद! अपने पति भगवान शिव के वचन सुनकर सती ने अपने पति का आदेश प्राप्त कर श्रीराम लक्ष्मण की परीक्षा लेने की ठान ली परंतु उनके मन में बार-बार एक ही विचार उठ रहा था कि मैं कैसे उनकी परीक्षा लूं। तब उनके मन में यह विचार आया कि मैं देवी सीता का रूप धारण कर श्रीराम के सामने जाती हूं। यदि वे साक्षात विष्णुजी का अवतार हैं, तो वे मुझे आसानी से पहचान लेंगे अन्यथा वे मुझे पहचान नहीं पाएंगे। ऐसा विचार कर उन्होंने सीता का वेश धारण कर लिया और रामजी के समक्ष चली गईं। सती ने ऐसा भगवान शिव की माया से मोहित होकर ही किया था। सती को सीता के रूप में देखकर, राम जी सबकुछ जान गए। वे हंसते हुए देवी सती को प्रणाम करके बोले

हे देवी सती! आपको मैं नमस्कार करता हूं। हे देवी! आप तो यहां हैं, परंतु त्रिलोकीनाथ भगवान शिव कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे हैं। बताइए देवी, आप इस निर्जन वन में अकेली क्या कर रही हैं? और आपने अपने परम सुंदर और कल्याणकारी रूप को त्यागकर यह नया रूप क्यों धारण किया है?

श्री रामचंद्र जी की बातें सुनकर देवी सती आश्चर्यचकित हो गईं। तब वे शिवजी की बातों का स्मरण कर तथा सच्चाई को जानकर बहुत शर्मिंदा हुईं और मन ही मन अपने पति भगवान शंकर के चरणों का स्मरण करती हुई बोलीं- हम अपने पति करुणानिधान भगवान शिव तथा अन्य पार्षदों के साथ पृथ्वी का भ्रमण करते हुए इस वन में आ गए थे। यहां आपको लक्ष्मण जी के साथ सीता की खोज में भटकते हुए देखकर भगवान शिव ने आपको प्रणाम किया और वहीं बरगद के पीछे खड़े हो गए। आपको वहां देख भगवान शिव आनंदित होकर आपकी महिमा का गान करने लगे। वे आपके दर्शनों से आनंदविभोर हो गए। मेरे द्वारा

इस विषय में पूछने पर जब उन्होंने मुझे बताया कि आप श्रीविष्णु का अवतार हैं तो मुझे इस पर विश्वास ही नहीं हुआ और मैं स्वयं आपकी परीक्षा लेने यहां आ गई। आपके द्वारा मुझे पहचान लेने से मेरा सारा भ्रम दूर हो गया है। हे श्रीहरि! अब मुझे आप यह बताइए कि आप भगवान शिव के भी वंदनीय कैसे हो गए? मेरे मन में यही एक संशय है। कृपया, आप मुझे इस विषय में बताकर मेरे संशय को दूर कर मुझे शांति प्रदान करें।

देवी सती के ऐसे वचन सुनकर श्रीराम प्रसन्न होते हुए तथा अपने मन में शिवजी का स्मरण करते हुए प्रेमविभोर हो उठे। वे प्रभु शिव के चरणों का चिंतन करते हुए मन में उनकी महिमा का वर्णन करने लगे।

【श्रीरुद्र संहिता】

【द्वितीय खण्ड

पच्चीसवां अध्याय 

"श्रीराम का सती के संदेह को दूर करना"


श्रीराम बोले ;– हे देवी सती! प्राचीनकाल की बात है। एक बार भगवान शिव ने अपने लोक में विश्वकर्मा को बुलाकर उसमें एक मनोहर गोशाला बनवाई, जो बहुत बड़ी थी। उसमें उन्होंने एक मनोहर विस्तृत भवन का भी निर्माण करवाया। उसमें एक दिव्य सिंहासन तथा एक दिव्य श्रेष्ठ छत्र भी बनवाया। यह बहुत ही अद्भुत और परम उत्तम था। तत्पश्चात उन्होंने सब ओर से इंद्र, देवगणों, सिद्धों, गंधर्वों, समस्त उपदेवों तथा नाग आदि को भी शीघ्र ही उस मनोहर भवन में बुलवाया। सभी वेदों और आगमों को, पुत्रों सहित ब्रह्माजी को, मुनियों, अप्सराओं सहित समस्त देवियों सहित सोलह नाग कन्याओं आदि सभी को उसमें आमंत्रित किया, जो कि अनेक मांगलिक वस्तुओं के साथ वहां आईं। संगीतज्ञों ने वीणा-मृदंग आदि बाजे बजाकर अपूर्व संगीत का गान किया।

इस प्रकार यह एक बड़ा समारोह और उत्सव था। राज्याभिषेक की सारी सामग्रियां एकत्रित हुईं और तीर्थों के जल से भरे घड़े मंगाए गए। अनेक दिव्य सामग्रियां भी गणों द्वारा मंगवाई गईं। फिर उच्च स्वरों में वेदमंत्रों का घोष कराया गया।

हे देवी! भगवान श्रीहरि विष्णु की उत्तम भक्ति से भगवान शिव सदा प्रसन्न रहते थे। उन्होंने बड़े प्रसन्न होकर श्रीहरि को बैकुंठ से बुलवाया और शुभ मुहूर्त में श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठाया। महादेव जी ने स्वयं अपने हाथों से उन्हें बहुत से आभूषण और अलंकार पहनाए । उन्होंने भगवान विष्णु के सिर पर मुकुट पहनाकर उनका अभिषेक किया। उस समय वहां अनेक मंगल गान गाए गए। तब भगवान शिव ने अपना सारा ऐश्वर्य, जो कि किसी के पास भी नहीं था, उन्हें प्रेमपूर्वक प्रदान किया। इसके पश्चात भगवान शंकर ने उनकी बहुत स्तुति की और जगतकर्ता ब्रह्माजी से बोले- हे लोकेश ! आज से श्रीहरि विष्णु मेरे वंदनीय हुए। यह सुनकर सभी देवता स्तब्ध रह गए। तब वे पुनः बोले कि आप सहित सभी देवी-देवता भगवान विष्णु को प्रणाम कर उनकी स्तुति करें तथा सभी वेद मेरे साथ-साथ श्रीविष्णु जी का भी वर्णन करें।

श्री रामचंद्र जी बोले ;- हे देवी! भगवान शिव अपने भक्तों के ही अधीन हैं। वे अत्यंत दयालु और कृपानिधान हैं। वे सदा ही भक्तों के वश में रहते हैं। इसलिए भगवान विष्णु की शिव भक्ति से प्रसन्न होकर भक्तवत्सल शिव ने यह सबकुछ किया तथा इसके उपरांत उन्होंने विष्णुजी के वाहन गरुड़ध्वज को भी प्रणाम किया। तत्पश्चात सभी देवी-देवताओं और ऋषि मुनियों ने भी श्रीहरि की सच्चे मन से स्तुति की। 

तब भगवान शिव ने विष्णुजी को बहुत से वरदान दिए तथा कहा - श्रीहरि! आप मेरी आज्ञा के अनुसार संपूर्ण लोकों के कर्ता, पालक और संहारक हों। धर्म, अर्थ और काम के दाता तथा बुरे अथवा अन्याय करने वाले दुष्टों को दंड तथा उनका नाश करने वाले हों। आप पूरे जगत में पूजित हों तथा सभी मनुष्य सदैव आपका पूजन करें। तुम कभी भी पराजित नहीं होगे। मैं तुम्हें इच्छा की सिद्धि, लीला करने की शक्ति और सदैव स्वतंत्रता का वरदान प्रदान करता हूं। हे हरे। जो तुमसे बैर रखेंगे उनको अवश्य ही दंड मिलेगा। मैं तुम्हारे भक्तों को भी मोक्ष प्रदान करूंगा तथा उनके सभी कष्टों का भी निवारण करूंगा। तुम मेरी बायीं भुजा से और ब्रह्माजी मेरी दायीं भुजा से प्रकट हुए हो। रुद्र देव, जो साक्षात मेरा ही रूप हैं, मेरे ही हृदय से प्रकट हुए हैं। हे विष्णो! आप सदा सबकी रक्षा करेंगे। मेरे धाम में तुम्हारा स्थान उज्ज्वल एवं वैभवशाली है। वह गोलोक नाम से जाना जाएगा। तुम्हारे द्वारा धारण किए गए सभी अवतार सबके रक्षक और मेरे परम भक्त होंगे। मैं उनका दर्शन करूंगा।

श्री रामचंद्र जी कहते हैं ;- देवी! श्रीहरि को अपना अखंड ऐश्वर्य सौंपकर भगवान शिव स्वयं कैलाश पर्वत पर रहते हुए अपने पार्षदों के साथ क्रीड़ा करते हैं। तभी भगवान लक्ष्मीपति विष्णु गोपवेश धारण करके आए और गोप-गोपी तथा गौओं के स्वामी बनकर प्रसन्नतापूर्वक विचरने लगे तथा जगत की रक्षा करने लगे। वे अनेक प्रकार के अवतार ग्रहण करते हुए जगत का पालन करने लगे। वे ही भगवान शिव की आज्ञा से चार भाइयों के रूप में प्रकट हुए। अब इस समय मैं (विष्णु) ही अवतार रूप में प्रकट होकर चार भाइयों में सबसे बड़ा राम हूं। दूसरे भरत हैं, तीसरे लक्ष्मण हैं और चौथे भाई शत्रुघ्न हैं। मैं अपनी माता के आदेशानुसार वनवास भोगने के लिए लक्ष्मण और सीता के साथ इस वन में आया था। किसी राक्षस ने मेरी पत्नी सीता का अपहरण कर लिया है और मैं यहां-वहां भटकता हुआ अपनी पत्नी को ही ढूंढ़ रहा हूं। सौभाग्यवश मुझे आपके दर्शन हो गए। अब निश्चय ही मुझे मेरे कार्य में सफलता मिलेगी। हे माता! आप मुझ पर कृपादृष्टि करें और मुझे यह वरदान दें कि मैं उस पापी राक्षस को मारकर अपनी पत्नी सीता को उसके चंगुल से मुक्त कर सकूं। मेरा यह महान सौभाग्य है कि मुझे आपके दर्शन प्राप्त हुए। मैं धन्य हो गया।

इस प्रकार देवी की अनेक प्रकार से स्तुति करके श्रीराम जी ने उन्हें अनेकों बार प्रणाम किया। श्रीराम की बातें सुनकर सती मन ही मन बहुत प्रसन्न हुईं और भक्तवत्सल भगवान शिव की स्तुति एवं चिंतन करने लगीं। अपनी भूल पर उन्हें लज्जा आ रही थी। वे उदास मन से शिवजी के पास चल दीं। वे रास्ते में सोच रही थीं कि मैंने अपने पति महादेव जी की बात न मानकर बहुत बुरा किया और श्रीराम जी के प्रति भी बुरे विचार अपने मन में लाई। अब मैं भगवान शिव को क्या उत्तर दूंगी? उन्हें अपनी करनी पर बहुत पश्चाताप हो रहा था। वे शिवजी के समीप गईं और चुपचाप खड़ी हो गईं। सती को इस प्रकार चुपचाप और दुःखी देखकर भगवान शंकर ने पूछा- देवी! आपने श्रीराम की परीक्षा किस प्रकार ली? यह प्रश्न सुनकर देवी सती चुपचाप सिर झुकाकर खड़ी हो गईं। उन्होंने शिवजी को कोई उत्तर नहीं दिया। वे असमंजस में थीं कि क्या उत्तर दें। लेकिन महायोगी शिव ने ध्यान से सारा विवरण जान लिया और उनका मन से त्याग कर दिया। भगवान शिव ने सोचा, अब यदि मैं सती को पहले जैसा ही स्नेह करूं तो मेरी प्रतिज्ञा भंग हो जाएगी। वेद धर्म के पालक शिवजी ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी करते हुए सती का मन से त्याग कर दिया। फिर सती से कुछ न कहकर वे कैलाश की ओर बढ़े। मार्ग में सबको, विशेषकर सती जी को सुनाने के लिए आकाशवाणी

हुई कि महायोगी शिव आप धन्य हैं। आपके समान तीनों लोक में कोई भी प्रतिज्ञा-पालक नहीं है। इस आकाशवाणी को सुनते ही देवी सती शांत हो गईं। उनकी कांति फीकी पड़ गई। तब उन्होंने भगवान शिव से पूछा

हे प्राणनाथ! आपने कौन सी प्रतिज्ञा की है? कृपया आप मुझे बताइए। परंतु भगवान शिव ने विवाह के समय भगवान विष्णु के समक्ष जो प्रतिज्ञा की थी, उसे सती को नहीं बताया। तब देवी सती ने भगवान शिव का ध्यान करके उन सभी कारणों को जान लिया, जिसके कारण भगवन् ने उनका त्याग कर दिया था। त्याग देने की बात जानकर देवी सती अत्यंत दुखी हो गईं। दुख बढ़ने के कारण उनकी आखों में आंसू आ गए और वह सिसकने लगीं। उनके मनोभावों को समझकर और देवी सती की ऐसी हालत देखकर भगवान शिव ने अपनी प्रतिज्ञा की बात उनके सामने नहीं कही। तब सती का मन बहलाने के लिए शिवजी उन्हें अनेकानेक कथाएं सुनाते हुए कैलाश की ओर चल दिए। कैलाश पर पहुंचकर, शिवजी अपने स्थान पर बैठकर समाधि लगाकर ध्यान करने लगे। सती ने दुखी मन से अपने धाम में रहना शुरू कर दिया।

भगवान शिव को समाधि में बैठे बहुत समय बीत गया। तत्पश्चात शिवजी ने अपनी समाधि तोड़ी। जब देवी सती को पता चला तो वे तुरंत शिवजी के पास दौड़ी चली आईं। वहां आकर उन्होंने शिवजी के चरणों में प्रणाम किया। भगवान शिव ने उन्हें अपने सम्मुख आसन दिया और उन्हें प्रेमपूर्वक बहुत सी कथाएं सुनाईं। इससे देवी सती का शोक दूर हो गया परंतु शिवजी ने अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ी। हे नारद ऋषि-मुनि आदि सभी शिव और सती की इन कथाओं को उनकी लीला का ही रूप मानते हैं क्योंकि वे तो साक्षात परमेश्वर हैं। एक-दूसरे के पूरक हैं। भला उनमें वियोग कैसे संभव हो सकता है। सती और शिव वाणी और अर्थ की भांति एक-दूसरे से मिले हुए हैं। उनमें वियोग होना असंभव है। उनकी इच्छाओं और लीलाओं से ही उनमें वियोग हो सकता है।

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