माँ शैलपुत्री दुर्गा के नौ रूपों में पहला रूप हैं जिनकी भक्तगण नवरात्रि पर्व में पूजा-अर्चना करते हैं। नवरात्र के नौ दिन दुर्गा माँ के नौ रूपों को समर्पित होते हैं और इस पावन पर्व के प्रथम दिन माँ शैलपुत्री की पूजा होती है।
शैलपुत्री पूजा मुहूर्त
देवी शैलपुत्री की पूजा से पहले घटस्थापना की प्रक्रिया होती है जिसको जानने के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करें –घटस्थापना मुहूर्त के नियम एवं पूजा विधि
शैलपुत्री का रूप
• माथे पर अर्ध चंद्र
• दाहिने हाथ में त्रिशूल
• बाएँ हाथ में कमल
• नंदी बैल की सवारी
शैलपुत्री का संस्कृत में अर्थ होता है ‘पर्वत की बेटी’। पौराणिक कथा के अनुसार माँ शैलपुत्री अपने पिछले जन्म में भगवान शिव की अर्धांगिनी (सती) और दक्ष की पुत्री थीं। एक बार जब दक्ष ने महायज्ञ का आयोजन कराया तो इसमें सारे देवताओं को निमंत्रित किया गया, परंतु भगवान शंकर को नहीं। उधर सती यज्ञ में जाने के लिए व्याकुल हो रही थीं। शिवजी ने उनसे कहा कि सारे देवताओं को निमंत्रित किया गया है लेकिन उन्हें नहीं; ऐसे में वहाँ जाना उचित नहीं है। सती का प्रबल आग्रह देखकर भगवान भोलेनाथ ने उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी।
सती जब घर पहुँचीं तो वहाँ उन्होंने भगवान शिव के प्रति तिरस्कार का भाव देखा। दक्ष ने भी उनके प्रति अपमानजनक शब्द कहे। इससे सती के मन में बहुत पीड़ा हुई। वे अपने पति का अपमान सह न सकीं और योगाग्नि द्वारा स्वयं को जलाकर भस्म कर लिया। इस दारुण दुःख से व्यथित होकर शंकर भगवान ने उस यज्ञ को विध्वंस कर दिया। फिर यही सती अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मीं और शैलपुत्री कहलाईं।
हिमालय के राजा का नाम हिमावत था और इसलिए देवी को हेमवती के नाम से भी जाना जाता है। माँ की सवारी वृष है तो उनका एक नाम वृषारुढ़ा भी है।
ज्योतिषीय पहलू
ज्योतिषी के अनुसार माँ शैलपुत्री चंद्रमा को दर्शाती हैं, इसलिए उनकी उपासना से चंद्रमा के द्वारा पड़ने वाले बुरे प्रभाव भी निष्क्रिय हो जाते हैं।
मंत्र
ॐ देवी शैलपुत्र्यै नमः॥
वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारुढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्॥
स्तुति: या देवी सर्वभूतेषु माँ शैलपुत्री रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥
मां शैलपुत्री की पूजा के लिए मंत्र
-ॐ देवी शैलपुत्र्यै नमः॥
-वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्। वृषारुढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्॥
सफेद मिठाई का भोग है माता को प्रिय
पूजा में देवी को लगाया जाने वाला भोग भी बेहद महत्व रखता है। इसीलिए भक्तों को भोग का ध्यान खासतौर पर रखना चाहिए। मां शैलपुत्री को सफेद वस्तु बहुत प्रिय है, इसलिए नवरात्रि के पहले दिन की पूजा में मां को सफेद वस्त्र और सफेद फूल अवश्य चढ़ाएं और साथ ही सफेद रंग की मिठाई का भोग भी लगाएँ। मां शैलपुत्री की सच्चे मन से आराधना करने पर मनोवांछित फल और कन्याओं को उत्तम वर की प्राप्ति होती है। शैल का मतलब होता है पत्थर और पत्थर को दृढ़ता की प्रतीक माना गया है। इसीलिए मां का यह स्वरूप जीवन में स्थिरता और दृढ़ता का प्रतीक माना जाता है। महिलाओं को खासतौर पर इनकी पूजा से विशेष फलों की प्राप्ति होती है।
माता शैलपुत्री का जन्म पर्वत राज हिमालय के घर हुआ था। इसी कारण से उन्हें शैलपुत्री के नाम से जाना जाता है। माता के स्वरूप की बात करें, तो उनके दाहिने हाथ में त्रिशूल व और बाएँ हाथ में कमल का फूल है। देवी के माथे पर अर्ध चंद्र सुशोभित है। नंदी बैल यानि वृषभ माता की सवारी है, इसलिए देवी शैलपुत्री को वृषारूढ़ा के नाम से भी जाना जाता है। माँ शैलपुत्री ही सती के नाम से भी जानी जाती हैं। माँ के इस रूप को करुणा और स्नेह का प्रतीक माना जाता है। ज्योतिष के अनुसार माँ शैलपुत्री चंद्रमा को दर्शाती हैं, इसलिए चंद्रमा की उपासना करने से इसके द्वारा व्यक्ति पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव निष्क्रिय हो जाते हैं।
क्यों पहले दिन की जाती है माँ शैलपुत्री की पूजा
शास्त्रों के अनुसार नवरात्रि के पहले दिन माता शैलपुत्री की पूजा इसलिए की जाती है, क्योंकि माँ शैलपुत्री पर्वतराज हिमालय की पुत्री हैं। हिमालय को पर्वतों का राजा माना जाता है, जो हमेशा अपने स्थान पर कायम रहता है। ऐसी मान्यता है कि, यदि कोई भक्त अपने आराध्य देवता या देवी के लिए ऐसी ही अडिग भावना रखे, तो उसे इसका भरपूर फल मिलता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए ही नवरात्रि के पहले दिन माँ शैलपुत्री की पूजा की जाती है।
माता शैलपुत्री की पवित्र कथा
एक बार राजा दक्ष प्रजापति के आगमन पर वहां मौजूद सभी लोग उनके स्वागत के लिए खड़े हुए, लेकिन भगवान शंकर अपने स्थान से नहीं उठे। राजा दक्ष को अपनी पुत्री सती के पति भगवान शिव की यह बात अच्छी नहीं लगी और उन्होंने इसे अपना अपमान समझ लिया। कुछ समय बाद दक्ष ने एक बार अपने निवास पर एक यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने सभी देवी-देवताओं को उस यज्ञ का निमंत्रण दिया, लेकिन अपने अपमान का बदला लेने के लिए राजा ने शिव जी को वहां आमंत्रित नहीं किया।
सती ने अपने पिता द्वारा आयोजित यज्ञ में जाने की इच्छा ज़ाहिर की। सती के आग्रह पर भगवान शंकर ने उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी। जब सती यज्ञ में पहुंचीं, तो केवल उनकी मां ने ही उन्हें स्नेह दिया। उनकी बहनों की बातें व्यंग्य और उपहास के भाव से भरी थी। सती के पिता दक्ष ने भरे यज्ञ में भगवान शंकर के लिए अपमानजनक शब्द और बहुत भला-बुरा कहा।
वहां मौजूद सती ने जब अपने पिता के द्वारा शिव जी के लिए कही गयी कठोर बातें सुनी, तो वह देवताओं से भरे यज्ञ में अपने पति का अपमान सहन नहीं कर पाई और यज्ञ वेदी मे कूदकर अपने प्राण त्याग दिए। सती का अगला जन्म शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में हुआ और वे शैलपुत्री कहलाईं। पार्वती और हेमवती भी देवी शैलपुत्री के अन्य नाम हैं। शैलपुत्री का विवाह भी भगवान शिव से हुआ था।