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शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (तृतीय खण्ड) के पहला अध्याय से पाचवाँ अध्याय तक (From the first chapter to the fifth chapter of Shiv Purana Sri Rudra Samhita (3rd volume))

 

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

पहला अध्याय 

"हिमालय विवाह"


नारद जी ने पूछा ;- हे पितामह ! अपने पिता दक्ष के यज्ञ में अपने शरीर का त्याग करने के बाद जगदंबा सती देवी कैसे हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मीं? उन्होंने किस प्रकार महादेव जी को पुनः पति रूप में प्राप्त किया? हे प्रभु! मुझ पर कृपा कर, मेरे इन प्रश्नों के उत्तर देकर मेरी जिज्ञासा शांत कीजिए। ब्रह्माजी उत्तर देते हुए बोले- हे मुनिश्रेष्ठ नारद! उत्तर दिशा की ओर हिमवान नामक विशाल पर्वत है। यह पर्वत तेजस्वी और समृद्ध है तथा दो रूपों में प्रसिद्ध है— पहला स्थावर और दूसरा जंगम। उस पर्वत पर रत्नों की खान है। इस पर्वत के पूर्वी और पश्चिमी भाग समुद्र से लगे हुए हैं। हिमवान पर्वत पर अनेक प्रकार के जीव-जंतु निर्भय होकर निवास करते हैं। हिम के विशाल भंडार पर्वत की शोभा बढ़ाते हैं। अनेक देवता, ऋषि-मुनि और सिद्ध पुरुष उस पर्वत पर निवास करते हैं। हिमवान पर्वत पवित्र और पावन है। अनेक ज्ञानियों और साधु-संतों की तपस्या इस स्थान पर सफल हुई है। भगवान शिव को यह पर्वत अत्यंत प्रिय है क्योंकि इस पर प्रकृति का हर रंग देखने को मिलता है।

एक बार की बात है, गिरिवर हिमवान ने अपने कुल की परंपरा को आगे बढ़ाने तथा धर्म की वृद्धि कर अपने पितरों को संतुष्ट करने के लिए विवाह करने के विषय में सोचा। जब हिमवान ने विवाह करने का पूरा मन बना लिया तब वे देवताओं के पास गए और उन देवताओं से बड़े संकोच के साथ अपने विवाह करने की इच्छा बताई। तब देवता प्रसन्न होकर अपने पितरों के पास गए और प्रणाम कर एक ओर खड़े हो गए। तब पितरों ने देवताओं के आने का कारण पूछा।

इस पर देवताओं ने कहा ;- हे पितरो! आपकी सबसे बड़ी पुत्री मैना मंगल स्वरूपिणी है। आप मैना का विवाह गिरिराज हिमवान से कर दें। इस विवाह से सभी को लाभ होगा। सबका मंगल होगा तथा साथ ही हमारे कुल में जन्मी इन कन्याओं में से कम से कम एक तो शाप-मुक्त हो जाएगी।

तब पितरों ने थोड़ा विचार करने के बाद इस विवाह की स्वीकृति प्रदान कर दी। पितरों ने प्रसन्नतापूर्वक बहुत बड़ा उत्सव रचाया और अपनी पुत्री मैना के साथ हिमवान का विवाह कर दिया। विवाह उत्सव में श्रीहरि विष्णु सहित सभी देवी-देवता सम्मिलित हुए थे। विवाहोपरांत सभी देवता प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने लोक को चले गए। हिमवान भी मैना के साथ अपने लोक को प्रस्थान कर गए।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

दूसरा अध्याय 

"पूर्व कथा"


नारद जी बोले ;- हे पितामह ! अब आप मैना की उत्पत्ति के बारे में बताइए। साथ ही कन्याओं को दिए शाप के बारे में मुझे बताकर, मेरी शंका का समाधान कीजिए नारद जी के ये प्रश्न सुनकर ब्रह्माजी मुस्कुराए और बोले - हे नारद! मेरे पुत्र दक्ष की साठ हजार पुत्रियां हुईं। जिनका विवाह कश्यपादि महर्षियों से हुआ। उनमें स्वधा नाम वाली कन्या का विवाह पितरों के साथ हुआ था। उनकी तीन पुत्रियां हुईं। वे बड़ी सौभाग्यशाली और साक्षात धर्म की मूर्ति थीं। उनमें पहली कन्या का नाम मैना, दूसरी का धन्या और तीसरी का कलावती था। ये तीनों कन्याएं पितरों की मानस पुत्रियां थीं अर्थात उनके मन से प्रकट हुई थीं। इन तीनों का जन्म माता की कोख से नहीं हुआ था। ये संपूर्ण जगत की वंदनीया हैं। इनके नामों का स्मरण और कीर्तन करके मनुष्य को सभी मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है। ये तीनों सारे जगत में मनुष्य एवं देवताओं से प्रेरित होती हैं। इनको 'लोकमाताएं' नाम से भी जाना जाता है। 

मुनिश्वर! एक बार मैना, धन्या और कलावती तीनों बहनें श्वेत द्वीप में • विष्णुजी के दर्शन करने के लिए गईं। वहां बहुत से लोग एकत्रित हो गए थे। उस स्थान पर मेरे पुत्र सनकादिक भी आए हुए थे। सबने विष्णुजी की बहुत स्तुति की। सभी सनकादिक को देखकर उनके स्वागत के लिए खड़े हो गए परंतु ये तीनों बहनें उनके स्वागत के लिए खड़ी नहीं हुई। उन्हें शिवजी की माया ने मोहित कर दिया था। तब इन बहनों के इस बुरे व्यवहार से वे क्रोधित हो गए और उन्होंने इन बहनों को शाप दे दिया। सनकादिक मुनि बोले कि तुम तीनों बहनों ने अभिमानवश खड़े होकर मेरा अभिवादन नहीं किया, इसलिए तुम सदैव स्वर्ग से दूर हो जाओगी और मनुष्य के रूप में ही पृथ्वी पर रहोगी। तुम तीनों मनुष्यों की ही स्त्रियां बनोगी। • तीनों साध्वी बहनों ने चकित होकर ऋषि का वचन सुना। तब अपनी भूल स्वीकार करके वे तीनों सिर झुकाकर सनकादिक मुनि के चरणों में गिर पड़ीं और उनकी अनेकों प्रकार से स्तुति करने लगीं। उन्होंने अनेकों प्रकार से क्षमायाचना की। तीनों कन्याएं, मुनिवर को प्रसन्न करने हेतु उनकी प्रार्थना करने लगीं। वे बोलीं कि हम मूर्ख हैं, जो हमने आपको प्रणाम नहीं किया। अब हम पर कृपा कर हमें स्वर्ग को पुनः प्राप्त करने का कोई उपाय बताइए। तब

सनकादिक मुनि बोले ;- हे पितरो की कन्याओ! हिमालय पर्वत हिम का आधार है। तुममें सबसे बड़ी मैना हिमालय की पत्नी होगी और इसकी कन्या का नाम पार्वती होगा। दूसरी कन्या धन्या, राजा जनक की पत्नी होगी और इसके गर्भ से महालक्ष्मी के साक्षात स्वरूप देवी सीता का जन्म होगा। इसी प्रकार तीसरी पुत्री कलावती राजा वृषभानु को पति रूप में प्राप्त करेगी और राधा की माता होने का गौरव प्राप्त करेगी। तत्पश्चात मैना व हिमालय अपनी पुत्री पार्वती के वरदान से कैलाश पद को प्राप्त करेंगे। धन्या और उनके पति राजा सीरध्वज जनक देवी सीता के पुण्यस्वरूप के कारण बैकुण्ठधाम को प्राप्त करेंगे। वृषभानु और कलावती अपनी पुत्री राधा के साथ गोलोक में जाएंगे। पुण्यकर्म करने वालों को निश्चय ही सुख की प्राप्ति होती है, इसलिए सदैव सत्य मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए। तुम पितरों की कन्या होने के कारण स्वर्ग भोगने के योग्य हो परंतु मेरा शाप भी अवश्य फलीभूत होगा। परंतु जब तुमने मुझसे क्षमा मांगी है, तो मैं तुम्हारे शाप के असर को कुछ कम अवश्य कर दूंगा।

धरती पर अवतीर्ण होने के पश्चात तुम साधारण मनुष्यों की भांति ही रहोगी, परंतु विवाह के पश्चात जब तुम्हें संतान की प्राप्ति हो जाएगी और तुम्हारी कन्याओं को यथायोग्य वर मिल जाएंगे और उनका विवाह हो जाएगा अर्थात तुम अपनी सभी जिम्मेदारियों को पूर्ण कर लोगी, तब भगवान श्रीहरि विष्णु के दर्शनों से तुम्हारा कल्याण हो जाएगा। मैना की पुत्री पार्वती कठिन तप के द्वारा शिव की प्राणवल्लभा बनेंगी। धन्या की पुत्री सीता दशरथ नंदन श्रीरामचंद्र जी को पति रूप में प्राप्त करेंगी। कलावती की पुत्री राधा श्रीकृष्ण के स्नेह में बंधकर उनकी प्रिया बनेंगी। यह कहकर मुनि सनकादिक वहां से अंतर्धान हो गए। तत्पश्चात पितरों की तीनों कन्याएं शाप से मुक्त होकर अपने धाम को चली गईं।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

तीसरा अध्याय 

"देवताओं का हिमालय के पास जाना"


नारद जी बोले ;- हे ब्रह्माजी! हे महामते! आपने अपने श्रीमुख से मैना के पूर्व जन्म की कथा कही, जो कि अद्भुत व अलौकिक थी। भगवन्! अब आप मुझे यह बताइए कि पार्वती जी मैना से कैसे उत्पन्न हुईं और उन्होंने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को किस प्रकार पति रूप में प्राप्त किया।

ब्रह्माजी बोले ;- हे नारद! मैना और हिमवान के विवाह पर बहुत उत्सव मनाया गया। विवाह के पश्चात वे दोनों अपने घर पहुंचे। तब हिमालय और मैना सुखपूर्वक अपने घर में निवास करने लगे। तब श्रीहरि अन्य देवताओं को अपने साथ लेकर हिमालय के पास गए। सब देवताओं को अपने राजदरबार में आया देखकर हिमालय बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने सभी देवताओं को प्रणाम कर उनकी स्तुति की। वे भक्तिभाव से उनका आदर-सत्कार करने लगे। वे देवताओं की सेवा करके अपने को धन्य मान रहे थे। 

  मुने! हिमालय दोनों हाथ जोड़कर उनके सामने खड़े हो गए और बोले- भगवन्! आप सबको एक साथ अपने घर आया देखकर मैं प्रसन्न हूं। सच कहूं तो आज मेरा जीवन सफल हो गया है। आज मैं धन्य हो गया हूं। मेरा राज्य और मेरा पूरा कुल आपके दर्शन मात्र से ही धन्य हो गया। आज मेरा तप, ज्ञान और सभी कार्य सफल हो गए हैं। भगवन्! आप मुझे अपना सेवक समझें और मुझे आज्ञा दें कि मैं आपकी क्या सेवा करूं? मुझे बताइए कि मेरे योग्य क्या सेवा है? गिरिराज हिमालय के ये वचन सुनकर देवतागण प्रसन्नतापूर्वक बोले- हे हिमालय ! हे गिरिराज! देवी जगदंबा उमा ही प्रजापति दक्ष के यहां उनकी कन्या सती के रूप में प्रकट हुईं। घोर तपस्या करने के बाद उन्होंने शिवजी को पति रूप में प्राप्त किया, परंतु अपने पिता दक्ष के यज्ञ में वे अपने पति का अपमान सह न सकीं और उन्होंने योगाग्नि में अपना शरीर भस्म कर दिया। यह सारी कथा तो आप भी जानते ही हैं। अब देवी जगदंबा पुनः धरती पर अवतरित होकर शिवजी की अर्द्धांगिनी बनना चाहती हैं। हे हिमालय! हम सभी यह चाहते हैं कि देवी सती पुनः आपके घर में अवतरित हों।

श्रीविष्णु जी की यह बात सुनकर हिमालय बहुत प्रसन्न हुए और आदरपूर्वक बोले भगवन्! यह मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात है कि देवी मेरे घर-आंगन को पवित्र करने के लिए मेरी पुत्री के रूप में प्रकट होंगी। तब हिमालय अपनी पत्नी के साथ और देवताओं को लेकर देवी जगदंबा की शरण में गए। उन्होंने देवी का स्मरण किया और श्रद्धापूर्वक उनकी स्तुति करने लगे।

देवता बोले ;- हे जगदंबे! हे उमे! हे शिवलोक में निवास करने वाली देवी। हे दुर्गे! हे महेश्वरी! हम सब आपको भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं। आप परम कल्याणकारी हैं। आप पावन और शांतिस्वरूप आदिशक्ति हैं। आप ही परम ज्ञानमयी शिवप्रिया जगदंबा हैं। आप इस संसार में हर जगह व्याप्त हैं। सूर्य की तेजस्वी किरण आप ही हैं। आप ही अपने तेज से इस संसार को प्रकाशित करती हैं। आप ही जगत का पालन करती हैं। आप ही गायत्री, सावित्री और सरस्वती हैं। आप धर्मस्वरूपा और वेदों की ज्ञाता हैं। आप ही प्यास और आप ही तृप्ति हैं। आपकी पुण्यभक्ति भक्तों को निर्मल आनंद प्रदान करती है। आप ही पुण्यात्माओं के घर में लक्ष्मी के रूप में और पापियों के घर में दरिद्रता और निर्धनता बनकर निवास करती हैं। आपके दर्शनों से शांति प्राप्त होती है। आप ही प्राणियों का पोषण करती हैं तथा पंचभूतों के सारतत्व से तत्वस्वरूपा हैं। आप ही नीति हैं और सामवेद की गीति हैं। आप ही ऋग्वेद और अथर्वेद की गति हैं। आप ही मनुष्यों के नाक, कान, आंख, मुंह और हृदय में विराजमान होकर उनके घर में सुखों का विस्तार करती हैं। हे देवी जगदंबा ! इस संपूर्ण जगत के कल्याण एवं पालन के लिए हमारी पूजा स्वीकार करके आप हम पर प्रसन्न हों।

इस प्रकार जगज्जननी सती-साध्वी देवी जगदंबा उमा की अनेकों बार स्तुति करके सभी देवता उनके साक्षात दर्शनों के लिए दोनों हाथ जोड़कर खड़े हो गए।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

चौथा अध्याय 

"देवी जगदंबा के दिव्य स्वरूप का दर्शन"


ब्रह्माजी बोले ;- हे नारद! देवताओं के द्वारा की गई स्तुति से प्रसन्न होकर दुखों का नाश करने वाली जगदंबा देवी दुर्गा उनके सामने प्रकट हो गईं। वे अपने दिव्य रत्नजड़ित रथ पर • बैठी हुई थीं। उनका मुख करोड़ों सूर्य के तेज के समान चमक रहा था। उनका गौर वर्ण दूध के समान उज्ज्वल था। उनका रूप अतुल्य था। रूप में उनकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती थी। वे सभी गुणों से युक्त थीं। दुष्टों का संहार करने के कारण वे ही चण्डी कहलाती हैं। वे अपने भक्तों के सभी दुखों और पीड़ाओं का निवारण करती हैं। देवी जगदंबा पूरे संसार की माता हैं। वे ही प्रलयकाल में समस्त दुष्टों को उनके बंधु-बांधवों सहित घोर निद्रा में सुला देती हैं। वही देवी उमा इस संसार का उद्धार करती हैं। उनके मुखमण्डल का तेज अद्भुत है। इस तेज के कारण उनकी ओर देख पाना भी संभव नहीं है। तब उनके अमृत दर्शनों की इच्छा लेकर श्रीहरि सहित सभी ने स्तुति की। तब उनके अमृतमय स्वरूप को देखा।

उनके अद्भुत स्वरूप के दर्शनों से सभी देवता आनंदित होकर बोले- हे महादेवी! हे जगदंबा! हम आपके दास हैं। आपकी शरण में हम बहुत आशा से आए हैं। कृपा करके हमारे आने के उद्देश्य को समझकर हमारे मनोरथ को पूर्ण कीजिए। हे देवी! पहले आप प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में प्रकट होकर रुद्रदेव की पत्नी बनीं और ब्रह्माजी व अन्य देवताओं के दुखों को दूर किया। अपने पिता के यज्ञ में अपने पति का अपमान देखकर स्वेच्छा से अपने शरीर का त्याग कर दिया। इससे रुद्रदेव बड़े दुखी हैं। वे अत्यंत शोकाकुल हो गए हैं। साथ ही आपके यहां चले आने से देवताओं की जो इच्छा थी वह भी अधूरी रह गई है। इसलिए हे जगदंबिके! आप पृथ्वीलोक पर पुनः अवतार लेकर रुद्रदेव को पति रूप में पाइए ताकि इस लोक का कल्याण हो सके और सनत्कुमार मुनि का कथन भी पूर्ण हो सके। हे भगवती! आप हम सब पर ऐसी ही कृपा करें ताकि हम सभी प्रसन्न हो जाएं तथा महादेव जी भी पुनः सुखी हो जाएं, क्योंकि आपसे वियोग होने के कारण वे अत्यंत दुखी हैं। कृपा करके हमारे सभी कष्टों और दुखों को दूर करें।

    हे नारद! ऐसा कहकर सभी देवता पुनः भगवती की आराधना करने लगे । तत्पश्चात हाथ जोड़कर चुपचाप खड़े हो गए। तब उनकी अनन्य स्तुति से देवी उमा को बहुत प्रसन्नता हुई। तब देवी शिवजी का स्मरण करते हुए बोलीं- हे हरे! हे ब्रह्माजी ! तथा समस्त देवताओ और ऋषि-मुनियो! मैं तुम्हारी आराधना से बहुत प्रसन्न हूं। अब तुम सभी अपने-अपने निवास स्थानों पर जाओ और सुखपूर्वक वहां पर निवास करो। मैं निश्चय ही अवतार लेकर हिमालय मैना की पुत्री के रूप में प्रकट होऊंगी, क्योंकि मैं अच्छे से जानती हूं कि जब से मैंने दक्ष के यज्ञ की अग्नि में अपना शरीर त्यागा है तब से मेरे पति त्रिलोकीनाथ महादेव जी भी निरंतर कालाग्नि में जल रहे हैं। उन्हें हर समय मेरी ही चिंता रहती है। वे हर समय यह सोचते हैं कि उनके क्रोध के कारण ही मैं उनका अपमान देखकर वापिस नहीं आई और मैंने वहीं अपना शरीर त्याग दिया। यही कारण है कि उन्होंने अलौकिक वेश धारण कर लिया है और सदैव योग में ही लीन रहते हैं। अपनी प्राणप्रिया का वियोग वे सहन नहीं कर सके हैं। इसलिए उनकी भी यही इच्छा है कि मैं पुनः पृथ्वी पर अवतीर्ण हो जाऊं ताकि हमारा मिलन पुनः संभव हो सके। महादेव जी की इच्छा मेरे लिए सदैव सर्वोपरि है। अतः मैं अवश्य ही हिमालय-मैना की पुत्री के रूप में अवतार लूंगी।

इस प्रकार देवताओं को बहुत आश्वासन देकर देवी जगदंबा वहां से अंतर्धान हो गईं। तत्पश्चात श्रीहरि व अन्य देवताओं का मन प्रसन्नता और हर्ष से खिल उठा। वे उस स्थान को, जहां देवी ने दर्शन दिए थे, अनेकों बार नमस्कार कर अपने-अपने धाम को चले गए।


【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

पांचवां अध्याय 

"मैना-हिमालय का तप व वरदान प्राप्ति"


नारद जी ने पूछा ;- हे विधाता! देवी के अंतर्धान होने के बाद जब सभी देवता अपने अपने धाम को चले गए तब आगे क्या हुआ? हे भगवन्! कृपा करके मुझे आगे की कथा भी सुनाइए।

ब्रह्माजी बोले ;- हे मुनिश्रेष्ठ नारद! जब देवी जगदंबा वहां सभी देवताओं और हिमालय को आश्वासन देकर अपने लोक को चली गईं, तब श्रीहरि विष्णु ने मैना और हिमालय को देवी जगदंबा को प्रसन्न करने के लिए उनकी स्तुति करने के लिए कहा। साथ ही देवी का भक्तिपूर्वक चिंतन करने और उनकी भक्तिभावना से तपस्या करने का उपदेश देकर सभी देवताओं सहित विष्णुजी भी अपने बैकुण्ठ लोक को चले गए। तत्पश्चात मैना और हिमालय दोनों सदैव देवी जगदंबा के अमृतमयी और कल्याणमयी स्वरूप का चिंतन करते और उनकी आराधना में ही मग्न रहते थे। मैना देवी की कृपादृष्टि पाने के लिए शिवजी सहित उनकी आराधना करती थीं। वे ब्राह्मणों को दान देतीं और उन्हें भोजन कराती थीं। मन में देवी दुर्गा को पुत्री रूप में पाने की इच्छा लिए हिमालय और मैना ने चैत्रमास से आरंभ कर सत्ताईस वर्षों तक देवी की पूजा अर्चना नियमित रूप से की। मैना अष्टमी तिथि व्रत रखकर नवमी को लड्डू, खीर, पीठी, शृंगार और विभिन्न प्रकार के पुष्पों से उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करतीं। उन्होंने गंगा के किनारे दुर्गा देवी की मूर्ति बना रखी थी। वे सदैव उसकी नियम से पूजा करती थीं। मैना देवी की निराहार रहकर पूजा करतीं। कभी जल पीकर, कभी हवा से ही व्रत को पूरा करतीं। सत्ताईस वर्षों तक नियमपूर्वक भक्तिभावना से जगदंबा दुर्गा की आराधना करने के पश्चात वे प्रसन्न हो गईं। तब देवी जगदंबा ने मैना और हिमालय को अपने साक्षात दर्शन दिए।

देवी जगदंबा बोलीं ;- हे गिरिराज हिमालय और महारानी मैना! मैं तुम दोनों की तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। इसलिए जो तुम्हारी इच्छा हो वह वरदान मांग सकते हो। हे हिमालय प्रिया मैना! तुम्हारी तपस्या और व्रत से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। इसलिए मैं तुम्हें मनोवांछित फल प्रदान करूंगी। सो, जो इच्छा हो कहो। तब मैना देवी दुर्गा को भक्तिभावना से प्रणाम करके बोलीं— देवी जगदंबिके! आपके प्रत्यक्ष दर्शन करके मैं धन्य हो गई। हे देवी। मैं आपके स्वरूप को प्रणाम करती हूं। हे माते ! हम पर प्रसन्न होइए।

मैना के वचनों को सुनकर देवी दुर्गा को बहुत संतोष हुआ और उन्होंने मैना को गले से लगा लिया। देवी के गले लगते ही मैना को ज्ञान की प्राप्ति हो गई। 

तब वे देवी जगदंबा से कहने लगीं ;- इस जगत को धारण करने वाली ! लोकों का पालन करने वाली! तथा मनोवांछित फलों को देने वाली देवी! मैं आपको प्रणाम करती हूं। आप ही इस जगत में आनंद का संचार करती हैं। आप ही माया हैं। आप ही योगनिद्रा हैं। आप अपने भक्तों के शोक और दुखों को दूर करती हैं। आप ही अपने भक्तों को अज्ञानता के अंधेरों से निकालकर उन्हें ज्ञान रूपी तेज प्रदान करती हैं। भला मैं तुच्छ स्त्री कैसे आपकी महिमा का वर्णन कर सकती हूं। आप आकार रहित तथा अदृश्य हैं। आप शाश्वत शक्ति हैं। आप परम योगिनी हैं और इच्छानुसार नारी रूप में धरती पर अवतार लेती हैं। आप ही पृथ्वीलोक पर चारों ओर फैली प्रकृति हैं। ब्रह्म के स्वरूप को अपने वश में करने वाली विद्या आप ही हैं। हे जगदंबा माता! आप मुझ पर प्रसन्न होइए। आप ही यज्ञ में अग्नि के रूप में प्रज्वलित होती हैं। माता ! आप ही सूर्य की किरणों को प्रकाश प्रदान करने वाली शक्ति हैं। चंद्रमा की शीतलता भी आप ही हैं। ऐसी महान और मंगलकारी देवी जगदंबा का मैं स्तवन करती हूं। माते! मैं आपकी वंदना करती हूं। संपूर्ण जगत का पालन करने वाली और जगत का कल्याण करने वाली शक्ति भी आप ही हैं। आप ही श्रीहरि की माया हैं। हे दुर्गा मां! आप ही इच्छानुसार रूप धारण करके इस संसार की रचना, पालन और संहार करती हैं। 

  हे देवी! मैं आपको नमस्कार करती हूं। कृपा करके हम पर प्रसन्न होइए। ब्रह्माजी बोले- हे नारद! मैना द्वारा भक्तिभाव से की गई स्तुति को सुनकर देवी बोलीं कि मैना तुम अपना मनोवांछित वर मांग लो। तुम्हारे द्वारा मांगी गई वस्तु मैं अवश्य प्रदान करूंगी। मेरे लिए कोई भी वस्तु अदेय नहीं है।

देवी जगदंबा के इन वचनों को सुनकर मैना बहुत खुश हुईं और बोलीं- हे शिवे! आपकी जय हो। हे जगदंबिके! आप ही ज्ञान प्रदान करती हैं। आप ही सबको मनोवांछित वस्तु प्रदान करती हैं। हे देवी! मैं आपसे वरदान मांगती हूं। हे माते ! आप मुझे सौ पुत्र प्रदान करें जो बलशाली और पराक्रमी हों, जिनकी आयु लंबी हो तत्पश्चात मेरी एक पुत्री हो, जो साक्षात आपका ही रूप हो। हे देवी! आप सारे संसार में पूजित हैं तथा सभी गुणों से संपन्न और आनंद देने वाली हैं। हे माता! आप ही सभी कार्यों की सिद्धि करने वाली हैं। हे भगवती । देवताओं के कार्यों को पूरा करने के लिए आप रुद्रदेव की पत्नी होइए और इस संसार को अपनी कृपा से कृतार्थ करने के लिए मेरी पुत्री बनकर जन्म लीजिए।

मैना के कहे वचनों को सुनकर देवी भगवती मुस्कुराने लगीं। तब सबके मनोरथों को पूर्ण करने वाली देवी मुस्कुराते हुए बोलीं- मैना! मैं तुम्हारी भक्तिभाव से की गई तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। मैं तुम्हारे द्वारा मांगे गए वरदानों को अवश्य ही पूर्ण करूंगी। सर्वप्रथम मैं तुम्हें सौ बलशाली पुत्रों की माता होने का वर प्रदान करती हूं। उन सौ पुत्रों में से सबसे पहले जन्म लेने वाला पुत्र सबसे अधिक शक्तिशाली और बलशाली होगा। तत्पश्चात मैं स्वयं तुम्हारी पुत्री के रूप में तुम्हारे गर्भ से जन्म लूंगी। तब मैं देवताओं के हित का कल्याण करूंगी।

ऐसा कहकर जगत जननी, परमेश्वरी देवी जगदंबा वहां से अंतर्धान हो गईं। तब महेश्वरी से अपने द्वारा मांगा गया अभीष्ट फल पाकर देवी मैना खुशी से झूम उठीं। तत्पश्चात वे अपने घर चली गईं। घर जाकर मैना ने अपने पति हिमालय को भी अपनी तपस्या की पूर्णता और वरदानों की प्राप्ति के बारे में बताया। जिसे सुनकर हिमालय बहुत प्रसन्न हुए। तब वे दोनों अपने भाग्य की सराहना करने लगे । तत्पश्चात, कुछ समय बाद मैना को गर्भ ठहरा। धीरे-धीरे समय व्यतीत होता गया। समय पूर्ण होने पर मैना ने एक पुत्र को जन्म दिया

जिसका नाम मैनाक रखा गया। पुत्र प्राप्ति की सूचना मिलने पर हिमालय हर्ष से उद्वेलित हो गए और उन्होंने अपने नगर में बहुत बड़ा उत्सव किया। इसके बाद हिमालय के यहां निन्यानवे और पुत्रों ने जन्म लिया। सौ पुत्रों में मैनाक सबसे बड़ा और बलशाली था। उसका विवाह नाग कन्याओं से हुआ। जब इंद्र देव पर्वतों पर क्रोध करके उनके पंखों को काटने लगे तो मैनाक समुद्र की शरण में चला गया। उस समय पवनदेव ने इस कार्य में मैनाक की सहायता की। वहां उसकी समुद्र से मित्रता हो गई। मैनाक पर्वत ही अपने बाद प्रकटे सभी पर्वतों में पर्वतराज कहलाता है।


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