।। ॐ नमः शिवाय ।।
शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर
【श्रीरुद्र संहिता】
【द्वितीय खण्ड】
अड़तीसवां अध्याय
"दधीचि - विवा ध्रुव"
सूत जी कहते हैं ;— हे महर्षियो! ब्रह्माजी के द्वारा कही हुई कथा को सुनकर नारद जी आश्चर्यचकित हो गए तथा उन्होंने ब्रह्माजी से पूछा कि भगवान विष्णु शिवजी को छोड़कर अन्य देवताओं के साथ दक्ष के यज्ञ में क्यों चले गए? क्या वे अद्भुत पराक्रम वाले भगवान शिव को नहीं जानते थे? क्यों श्रीहरि ने रुद्रगणों के साथ युद्ध किया? कृपया कर मेरे अंदर उठने वाले इन प्रश्नों के उत्तर देकर मेरी शंकाओं का समाधान कीजिए।
ब्रह्माजी ने नारद जी के प्रश्नों के उत्तर देते हुए कहा ;– हे मुनिश्रेष्ठ नारद! पूर्व काल में राजा क्षुव की सहायता करने वाले श्रीहरि को दधीचि मुनि ने शाप दे दिया था। इसलिए वे भूल गए और दक्ष के यज्ञ में चले गए। प्राचीन काल में दधीचि मुनि महातेजस्वी राजा क्षुव के मित्र थे परंतु बाद में उन दोनों के बीच बहुत विवाद खड़ा हो गया। विवाद का कारण मुनि दधीचि का चार वर्णों— ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में ब्राह्मणों को श्रेष्ठ बताना था परंतु राजा क्षुव, जो कि धन वैभव के अभिमान में डूबे हुए थे, इस बात से पूर्णतः असहमत थे। क्षुव सभी वर्गों में राजा को ही श्रेष्ठ मानते थे। राजा को सर्वश्रेष्ठ और सर्ववेदमय माना जाता है। यह श्रुति भी कहती है। इसलिए ब्राह्मण से ज्यादा राजा श्रेष्ठ है।
हे दधीचि ! आप मेरे लिए आदरणीय हैं। राजा क्षुव के कथन को सुनकर दधीचि को क्रोध आ गया। उन्होंने इसे अपना अपमान समझा और क्षुव के सिर पर मुक्के का प्रहार कर दिया। दधीचि के इस व्यवहार से मद में चूर क्षुव को और अधिक क्रोध आ गया। उन्होंने वज्र से दधीचि पर प्रहार कर दिया। वज्र से घायल हुए दधीचि मुनि ने पृथ्वी पर गिरते हुए योगी शुक्राचार्य का स्मरण किया। शुक्राचार्य ने तुरंत आकर दधीचि मुनि के शरीर को पूर्ववत कर दिया। शुक्राचार्य ने दधीचि से कहा कि मैं तुम्हें महामृत्युंजय का मंत्र प्रदान करता हूं।
'त्रयम्बकं यजामहे' अर्थात हम तीनों लोकों के पिता भगवान शिव, जो सूर्य, सोम और अग्नि तीनों मण्डलों के पिता हैं, सत्व, रज और तम आदि तीनों गुणों के महेश्वर हैं, जो आत्मतत्व, विद्यातत्व और शिव तत्व, पृथ्वी, जल व तेज सभी के स्रोत हैं। जो ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों आधारभूत देवताओं के भी ईश्वर महादेव हैं, उनकी आराधना करते हैं। ‘सुगंधिम् पुष्टिवर्धनम्’ अर्थात जिस प्रकार फूलों में खुशबू होती है, उसी प्रकार भगवान शिव भूतों में, गुणों में, सभी कार्यों में इंद्रियों में, अन्य देवताओं में और अपने प्रिय गणों में क्षारभूत आत्मा के रूप में समाए हैं। उनकी सुगंध से ही सबकी ख्याति एवं प्रसिद्धि है। 'पुष्टिवर्धनम्' अर्थात वे भगवान शिव ही प्रकृति का पोषण करते हैं। वे ही ब्रह्मा, विष्णु, मुनियों एवं सभी देवताओं का पोषण करते हैं। 'उर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्' अर्थात जिस प्रकार खरबूजा पक जाने पर लता से टूटकर अलग हो जाता है उसी प्रकार मैं भी मृत्युरूपी बंधन से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करूं।
हे रुद्रदेव! आपका स्वरूप अमृत के समान है। जो पुण्यकर्म, तपस्या, स्वाध्याय, योग और ध्यान से उनकी आराधना करता है, उसे नया जीवन प्राप्त होता है। भगवान शिव अपने भक्त को मृत्यु के बंधनों से मुक्त कर देते हैं और उसे मोक्ष प्रदान करते हैं। जैसे उर्वारुक अर्थात ककड़ी को उसकी बेल अपने बंधन में बांधे रखती है और पक जाने पर स्वयं ही उसे बंधन मुक्त कर देती है। यह महामृत्युंजय मंत्र संजीवनी मंत्र है। तुम नियमपूर्वक भगवान शिव का स्मरण करके इस मंत्र का जाप करो। इस मंत्र से अभिमंत्रित जल को पियो। इस मंत्र का जाप करने से मृत्यु का भय नहीं रहता। इसके विधिवत पूजन करने से भगवान शिव प्रसन्न होते हैं। वे सभी कार्यों की सिद्धि करते हैं तथा सभी बंधनों से मुक्त कर मोक्ष प्रदान करते हैं।
ब्रह्माजी बोले ;- नारद! दधीचि मुनि को इस प्रकार उपदेश देकर शुक्राचार्य अपने निवास पर चले गए। उनकी बातों का दधीचि मुनि पर बड़ा प्रभाव पड़ा और वे भगवान शिव का स्मरण कर उन्हें प्रसन्न करने के लिए तपस्या करने वन में चले गए। वन में उन्होंने प्रेमपूर्वक भगवान शिव का चिंतन करते हुए उनकी तपस्या आरंभ कर दी। दीर्घकाल तक वे महामृत्युंजय मंत्र का जाप करते रहे। उनकी इस निःस्वार्थ भक्ति से भक्तवत्सल भगवान शिव प्रसन्न होकर उनके सामने प्रकट हो गए। दधीचि ने दोनों हाथ जोड़कर शिवजी को प्रणाम किया। उन्होंने महादेव जी की बहुत स्तुति की।
शिव ने कहा ;– मुनिश्रेष्ठ दधीचि! मैं तुम्हारी इस उत्तम आराधना से बहुत प्रसन्न हुआ हूं। तुम वर मांगो। मैं तुम्हें मनोवांछित वस्तु प्रदान करूंगा। यह सुनकर दधीचि हाथ जोड़े नतमस्तक होकर कहने लगे- हे देवाधिदेव! करुणानिधान! महादेव जी! अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा कर मुझे तीन वर प्रदान करें। पहला यह कि मेरी अस्थियां वज्र के समान हो जाएं। दूसरा कोई मेरा वध न कर सके अर्थात मैं हमेशा अवध्य रहूं और तीसरा कि मैं हमेशा अदीन रहूं। कभी दीन न होऊं । शिवजी ने 'तथास्तु' कहकर तीनों वर दधीचि को प्रदान कर दिए। तीनों मनचाहे वरदान मिल जाने पर दधीचि मुनि बहुत प्रसन्न थे। वे आनंदमग्न होकर राजा क्षुव के स्थान की ओर चल दिए। वहां पहुंचकर दधीचि ने क्षुव के सिर पर लात मारी। क्षुव विष्णु जी का परम भक्त था। राजा होने के कारण वह भी अहंकारी था। उसने क्रोधित हो तुरंत दधीचि पर वज्र से प्रहार कर दिया परंतु क्षुव के प्रहार से दधीचि मुनि का बाल भी बांका नहीं हुआ। यह सब महादेव जी के वरदान से ही हुआ था। यह देखकर क्षुव को बड़ा आश्चर्य हुआ। तब उन्होंने वन में जाकर इंद्र के भाई मुकुंद की आराधना शुरू कर दी। तब विष्णुजी ने प्रसन्न होकर क्षुव को दिव्य दृष्टि प्रदान की। क्षुव ने विष्णुजी को प्रणाम कर उनकी भक्तिभाव से स्तुति की।
तत्पश्चात क्षुव बोले ;- भगवन्, मुनिश्रेष्ठ दधीचि पहले मेरे मित्र थे परंतु बाद में हम दोनों के बीच में विवाद उत्पन्न हो गया। दधीचि ने परम पूजनीय भगवान शिव की तपस्या महामृत्युंजय मंत्र से कर उन्हें प्रसन्न किया तथा अवध्य रहने का वरदान प्राप्त कर लिया। तब उन्होंने मेरी राजसभा में मेरे समस्त दरबारियों के बीच मेरा घोर अपमान किया। उन्होंने सबके सामने मेरे मस्तक पर अपने पैरों से आघात किया। साथ ही उन्होंने कहा कि मैं किसी से नहीं डरता। भगवन्! मुनि दधीचि को बहुत घमंड हो गया है।
ब्रह्माजी बोले ;- नारद! जब श्रीहरि को इस बात का ज्ञान हुआ कि दधीचि मुनि को महादेव जी द्वारा अवध्य होने का आशीर्वाद प्राप्त है, तो वे कहने लगे कि क्षुव महादेव जी के भक्तों को कभी भी किसी प्रकार का भी भय नहीं होता है। यदि मैं इस विषय में कुछ करूं तो दधीचि को बुरा लगेगा और वे शाप भी दे सकते हैं। उन्हीं दधीचि के शाप से दक्ष यज्ञ में मेरी शिवजी से पराजय होगी। इसलिए मैं इस संबंध में कुछ नहीं करना चाहता परंतु ऐसा कुछ जरूर करूंगा, जिससे आपको विजय प्राप्त हो। भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर राजा चुप हो गए।
【श्रीरुद्र संहिता】
【द्वितीय खण्ड】
उन्तालीसवां अध्याय
"दधीचि का शाप और क्षुव पर अनुग्रह"
ब्रह्माजी बोले ;- नारद! श्रीहरि विष्णु अपने प्रिय भक्त राजा क्षुव के हितों की रक्षा करने के लिए एक दिन ब्राह्मण का रूप धारण करके दधीचि मुनि के आश्रम में पहुंचे। विष्णुजी भगवान शिव की आराधना में मग्न रहने वाले ब्रह्मर्षि दधीचि से बोले कि हे प्रभु, मैं आपसे एक वर मांगता हूं। दधीचि श्रीविष्णु को पहचानते हुए कहने लगे- मैं सब समझ गया हूं कि आप कौन हैं और क्या चाहते हैं? इसलिए मैं आपसे क्या कहूं। हे श्रीहरि विष्णु ! व का कल्याण करने के लिए आप यह ब्राह्मण का वेश बनाकर आए हैं। आप ब्राह्मण वेश का त्याग कर दें । लज्जित होकर भगवान विष्णु अपने असली रूप में आ गए और महामुनि दधीचि को प्रणाम करके बोले कि महामुनि! आपका कथन पूर्णतया सत्य है। मैं यह भी जानता हूं कि शिवभक्तों को कभी भी, किसी भी प्रकार का कोई भी भय नहीं होता है। परंतु आप सिर्फ मेरे कहने से राजा क्षुव के सामने यह कह दें कि आप राजा क्षुव से डरते हैं। श्रीविष्णु की यह बात सुनकर दधीचि हंसने लगे। हंसते हुए बोले कि भगवान शिव की कृपा से मुझे कोई भी डरा नहीं सकता। जब कोई वाकई मुझे डरा नहीं सकता तो मैं क्यों झूठ बोलकर पाप का भागी बनूं? दधीचि मुनि के इन वचनों को सुनकर विष्णु को बहुत अधिक क्रोध आ गया। उन्होंने मुनि दधीचि को समझाने की बहुत कोशिश की। सभी देवताओं ने श्री विष्णुजी का ही साथ दिया। भगवान विष्णु ने दधीचि मुनि को डराने के लिए अनेक गण उत्पन्न कर दिए परंतु दधीचि ने अपने सत से उनको भस्म कर दिया। तब विष्णुजी ने वहां अपनी मूर्ति प्रकट कर दी।
यह देखकर दधीचि मुनि बोले ;- हे श्रीहरि ! अब अपनी माया को त्याग दीजिए। आप अपने क्रोध और अहंकार का त्याग कर दीजिए। आपको मुझमें ही ब्रह्मा, रुद्र सहित संपूर्ण जगत का दर्शन हो जाएगा। मैं आपको दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूं। तब विष्णुजी को दधीचि मुनि ने अपने शरीर में पूरे ब्रह्मांड के दर्शन करा दिए। तब विष्णुजी का क्रोध बहुत बढ़ गया। उन्होंने चक्र उठा लिया और महर्षि को मारने के लिए आगे बढ़े, परंतु बहुत प्रयत्न करने पर भी चक्र आगे नहीं चला।
यह देखकर दधीचि हंसते हुए बोले कि हे श्रीहरि ! आप भगवान शिव द्वारा प्रदान किए गए इस सुदर्शन चक्र से उनके ही प्रिय भक्त को मारना चाहते हैं, तो भला यह चक्र क्यों चलेगा? शिवजी द्वारा दिए गए अस्त्र से आप उनके भक्तों का विनाश किसी भी तरह नहीं कर सकते परंतु फिर भी यदि आप मुझे मारना चाहते हैं तो ब्रह्मास्त्र आदि का प्रयोग कीजिए। लेकिन दधीचि को साधारण मनुष्य समझकर विष्णुजी ने उन पर अनेक अस्त्र चलाए।
तब दधीचि मुनि ने धरती से मुट्ठी पर कुशा उठा ली और कुछ मंत्रों के उच्चारण के उपरांत उसे देवताओं की ओर उछाल दिया। वे कुशाएं कालाग्नि के रूप में परिवर्तित हो गईं,
जिनमें देवताओं द्वारा छोड़े गए सभी अस्त्र-शस्त्र जलकर भस्म हो गए। यह देखकर वहां पर उपस्थित अन्य देवता वहां से भाग खड़े हुए परंतु श्रीहरि दधीचि से युद्ध करते रहे। उन दोनों के बीच भीषण युद्ध हुआ। तब मैं (ब्रह्मा) राजा क्षुव को साथ लेकर उस स्थान पर आया, जहां उन दोनों के बीच युद्ध रहा था। मैंने भगवान विष्णु से कहा कि आपका यह प्रयास निरर्थक है। क्योंकि आप भगवान शिव के परम भक्त दधीचि को हरा नहीं सकते हैं। यह सुनकर विष्णुजी शांत हो गए, उन्होंने दधीचि मुनि को प्रणाम किया। तब राजा क्षुव भी दोनों हाथ जोड़कर मुनि दधीचि को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे, उनसे माफी मांगने लगे और कहने लगे कि प्रभु आप मुझ पर कृपादृष्टि रखिए।
ब्रह्माजी बोले ;– नारद! इस प्रकार राजा क्षुव द्वारा की गई स्तुति से दधीचि को बहुत संतोष मिला और उन्होंने राजा क्षुव को क्षमा कर दिया परंतु विष्णुजी सहित अन्य देवताओं पर उनका क्रोध कम नहीं हुआ। तब क्रोधित मुनि दधीचि ने इंद्र सहित सभी देवताओं और विष्णुजी को भी भगवान रुद्र की क्रोधाग्नि में नष्ट होने का शाप दे दिया। इसके बाद राजा क्षुव ने दधीचि को पुनः नमस्कार कर उनकी आराधना की और फिर वे अपने राज्य की ओर चल दिए। राजा क्षुव के वहां से चले जाने के पश्चात इंद्र सहित सभी देवगणों ने भी अपने अपने धाम की ओर प्रस्थान किया। तदोपरांत श्रीहरि विष्णु भी बैकुंठधाम को चले गए। तब वह पुण्य स्थान 'थानेश्वर' नामक तीर्थ के रूप में विख्यात हुआ। इस तीर्थ के दर्शन से भगवान शिव का स्नेह और कृपा प्राप्त होती है।
हे नारद! इस प्रकार मैंने तुम्हें यह पूरी अमृत कथा का वर्णन सुनाया। जो मनुष्य क्षुव और दधीचि के विवाद से संबंधित इस प्रसंग को प्रतिदिन सुनता है, वह अपमृत्यु को जीत लेता है तथा मरने के बाद सीधा स्वर्ग को जाता है। इसका पाठ करने से युद्ध में मृत्यु का भय दूर हो जाता है तथा निश्चित रूप से विजयश्री की प्राप्ति होती है।
【श्रीरुद्र संहिता】
【द्वितीय खण्ड】
चालीसवां अध्याय
"ब्रह्माजी का कैलाश पर शिवजी से मिलना"
नारद जी ने कहा ;- हे महाभाग्य! हे विधाता! हे महाप्राण! आप शिवतत्व का ज्ञान रखते हैं। आपने मुझ पर बड़ी कृपा की जो इस अमृतमयी कथा का श्रवण मुझे कराया। मैं आपका बहुत बहुत धन्यवाद करता हूं। हे प्रभु! अब मुझे यह बताइए कि जब वीरभद्र ने दक्ष के यज्ञ का विनाश कर दिया और उनका वध करके कैलाश पर्वत को चले गए तब क्या हुआ?
ब्रह्माजी बोले ;- हे मुनिश्रेष्ठ नारद! जब भगवान शिव द्वारा भेजी गई उनकी विशाल सेना ने यज्ञ में उपस्थित सभी देवताओं और ऋषियों को पराजित कर दिया और उन्हें पीट-पीटकर वहां से भाग जाने को मजबूर कर दिया तो वे सभी वहां से भागकर मेरे पास आ गए। उन्होंने मुझे प्रणाम करके मेरी स्तुति की तथा वहां का सारा वृत्तांत मुझे सुनाया। तब अपने पुत्र दक्ष की मुझे बहुत चिंता होने लगी और मेरा दिल पुत्र शोक के कारण व्यथित हो गया। तत्पश्चात मैंने श्रीहरि का स्मरण किया और अन्य देवताओं और ऋषि-मुनियों को साथ लेकर बैकुंठलोक गया। वहां उन्हें नमस्कार करके हम सभी ने उनकी भक्तिभाव से स्तुति की। तब मैंने श्रीहरि से विनम्रता से प्रार्थना की कि भगवन् आप कुछ ऐसा करें, जिससे हम सभी का दुख कम हो जाए। देवेश्वर आप कुछ ऐसा करें, जिससे वह यज्ञ पूरा हो जाए तथा उसके यजमान दक्ष पुनः जीवित हो जाएं। अन्य सभी देवता और ऋषि-मुनि भी पूर्व की भांति सुखी हो जाएं।
मेरे इस प्रकार निवेदन करने पर लक्ष्मीपति विष्णुजी, जो अपने मन में शिवजी का चिंतन कर रहे थे, प्रजापति ब्रह्मा और देवताओं को संबोधित करते हुए इस प्रकार बोले- कोई भी अपराध किसी भी स्थिति में कभी भी किसी के लिए भी मंगलकारी नहीं हो सकता । हे विधाता! सभी देवता, परमपिता परमेश्वर भगवान शिव के अपराधी हैं क्योंकि इन्होंने यज्ञ में शिवजी का भाग नहीं दिया। साथ ही वहां उनका अनादर भी किया। उनकी प्रिय पत्नी सती ने भी उनके अपमान के कारण ही अपनी देह का त्याग कर दिया। उनका वियोग होने के कारण भगवन् अत्यंत रुष्ट हो गए हैं। तुम सभी को शीघ्र ही उनके पास जाकर उनसे क्षमा मांगनी चाहिए। भगवान शिव के पैर पकड़कर उनकी स्तुति करके उन्हें प्रसन्न करो क्योंकि उनके कुपित होने से संपूर्ण जगत का विनाश हो सकता है। दक्ष ने शिवजी के लिए अपशब्द कहकर उनके हृदय को विदीर्ण कर दिया है। इसलिए उनसे अपने अपराधों के लिए क्षमा मांगो। उन्हें शांत करने का यही सर्वोत्तम उपाय है। वे भक्तवत्सल हैं। यदि आप लोग चाहें तो मैं भी आपके साथ चलकर उनसे क्षमा याचना करूंगा।
ऐसा कहकर भगवान श्रीहरि, मैं और अन्य देवता एवं ऋषि-मुनि आदि कैलाश पर्वत की ओर चल दिए। वह पर्वत बहुत ही ऊंचा और विशाल है। उसके पास में ही शिवजी के मित्र कुबेर का निवास स्थल अलकापुरी है। अलकापुरी महा दिव्य एवं रमणीय है। वहां चारों ओर सुगंध फैली हुई थी। अनेक प्रकार के पेड़-पौधे शोभा पा रहे थे। उसी के बाहरी भाग में परम पावन नंदा और अलकनंदा नामक नदियां बहती हैं। इनका दर्शन करने से मनुष्य को सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है।
हम लोग अलकापुरी से आगे उस विशाल वट वृक्ष के पास पहुंचे, जहां दिव्य योगियों द्वारा पूजित भगवान शिव विराजमान थे। वह वट वृक्ष सौ योजन ऊंचा था तथा उसकी अनेक शाखाएं पचहत्तर योजन तक फैली हुई थीं। वह परम पावन तीर्थ स्थल है। यहां भगवान शिव अपनी योगाराधना करते हैं। उस वट वृक्ष के नीचे महादेव जी के चारों ओर उनके गण थे और यज्ञों के स्वामी कुबेर भी बैठे थे। तब उनके निकट पहुंचकर विष्णु आदि समस्त देवताओं ने अनेकों बार नमस्कार कर उनकी स्तुति की। उस समय शिवजी ने अपने शरीर पर भस्म लगा रखी थी और वे कुशासन पर बैठे थे और ज्ञान का उपदेश वहां उपस्थित गणों को दे रहे थे। उन्होंने अपना बायां पैर अपनी दायीं जांघ पर रखा था और बाएं हाथ को बाएं पैर पर रख रखा था। उनके दाएं हाथ में रुद्राक्ष की माला थी।
भगवान शिव के साक्षात रूप का दर्शन कर विष्णुजी और सभी देवताओं ने दोनों हाथ जोड़कर और अपने मस्तक को झुकाकर दयासागर परमेश्वर शिव से क्षमा याचना की और कहा कि हे प्रभु! आपकी कृपा के बिना हम नष्ट-भ्रष्ट हो गए हैं। अतः प्रभु आप हम सबकी रक्षा करें। भगवन्! हम आपकी शरण में आए हैं। हम पर अपनी कृपादृष्टि बनाए रखें। इस प्रकार सभी देवता व ऋषि-मुनि भगवान शिव का क्रोध कम करने और उनकी प्रसन्नता के लिए प्रार्थना करने लगे।
【श्रीरुद्र संहिता】
【द्वितीय खण्ड】
इकतालीसवां अध्याय
"शिव द्वारा दक्ष को जीवित करना"
देवताओं ने महादेव जी की बहुत स्तुति की और कहा- भगवन्, आप ही परमब्रह्म हैं और इस जगत में सर्वत्र व्याप्त हैं। आप मृत्युंजय हैं। चंद्रमा, सूर्य और अग्नि आपकी तीन आंखें हैं। आपके तेज से ही पूरा जग प्रकाशित है। ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और चंद्र आदि देवता आपसे ही उत्पन्न हुए हैं। आप ही इस संसार का पोषण करते हैं। भगवन् आप करुणामय हैं। आप ही दुष्टों का संहार करते हैं। प्रभु! आपकी आज्ञानुसार अग्नि जलाती है और सूर्य अपनी तपन से झुलसाता है। मृत्यु आपके भय से कांपती है। हे करुणानिधान! जिस प्रकार आज तक आपने हमारी हर विपत्ति से रक्षा की है, उसी प्रकार हमेशा अपनी कृपादृष्टि बनाएं।
भगवन्! हम अपनी सभी गलतियों के लिए आपसे क्षमा मांगते हैं। आप प्रसन्न होकर यज्ञ को पूर्ण कीजिए तथा यजमान दक्ष का उद्धार कीजिए। वीरभद्र और महाकाली के प्रहारों से घायल हुए सभी देवताओं व ऋषियों को आरोग्य प्रदान करें। उन सभी की पीड़ा को कम कर दें । हे शिवजी! आप प्रजापति दक्ष के अपूर्ण यज्ञ को पूर्ण कर दें और दक्ष को पुनर्जीवित कर दें। भग ऋषि को उनकी आंखें, पूषा को दांत प्रदान करें। साथ ही जिन देवताओं के अंग नष्ट हो गए हैं, उन्हें ठीक कर दें। आप सभी को आरोग्य प्रदान करें। हम आपको यज्ञ में भाग देंगे। ऐसा कहकर हम सभी देवता त्रिलोकीनाथ महादेव के चरणों में लेट गए। पूरा-पूरा हमारी स्तुति और अनुनय-विनय से भक्तवत्सल भगवान शिव प्रसन्न हो गए।
शिवजी बोले ;— हे ब्रह्मा! श्रीहरि विष्णु! आपकी बातों को मैं हमेशा मानता हूं। इसलिए आपकी प्रार्थना को मैं नहीं टाल सकता परंतु मैं यह बताना चाहता हूं कि दक्ष के यज्ञ का विध्वंस मैंने नहीं किया है। उसके यज्ञ का विध्वंस इसलिए हुआ क्योंकि वह हमेशा दूसरों का बुरा चाहता है, उनसे द्वेष रखता है। परंतु जो दूसरों का बुरा चाहता है उसका ही बुरा होता है। अतः हमें कोई भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे किसी को कष्ट हो। तुम्हारी प्रार्थना से मैंने तुम्हें क्षमा कर दिया है और तुम्हारी विनती मानकर मैं दक्ष को जीवित कर रहा हूं परंतु दक्ष का मस्तक अग्नि में जल गया है। इसलिए उनके सिर के स्थान पर बकरे का सिर जोड़ना पड़ेगा। भग सूर्य के नेत्र से यज्ञ भाग को देख पाएंगे तथा पूषा के टूटे हुए दांत सही हो जाएंगे। मेरे गणों द्वारा मारे गए देवताओं के टूटे हुए अंग भी ठीक हो जाएंगे। भृगु की दाढ़ी बकरे जैसी हो जाएगी। सभी अध्वर्यु प्रसन्न होंगे।
यह कहकर वेदी के अनुसरणकर्ता, परम दयालु भगवान शंकर चुप हो गए। तत्पश्चात मैंने और विष्णुजी सहित सभी देवताओं ने भगवान शिव का धन्यवाद किया। फिर देवर्षियों सहित शिवजी को उस यज्ञ में आने के लिए आमंत्रित कर, हम लोग यज्ञ के स्थान पर गए, जहां दक्ष ने अपना यज्ञ आरंभ किया था। उस कनखल नामक यज्ञ क्षेत्र में शिवजी भी पधारे। तब उन्होंने वीरभद्र द्वारा किए गए उस विध्वंस को देखा। स्वाहा, स्वधा, पूषा, तुष्टि, धृति,समस्त ऋषि, पितर, अग्नि व यज्ञ, गंधर्व और राक्षस वहां पड़े हुए थे। कितने ही लोग अपने प्राणों से हाथ धो चुके थे। तब भगवान शिव ने अपने परम पराक्रमी सेनापति वीरभद्र का स्मरण किया। याद करते ही वीरभद्र तुरंत वहां प्रकट हो गए और उन्होंने भगवान शिव को नमस्कार किया। तब शिवजी हंसते हुए बोले कि हे वीरभद्र! तुमने तो थोड़ी सी देर में सारा यज्ञ विध्वंस कर दिया और देवताओं को भी दंड दे दिया। हे वीरभद्र ! तुम इस यज्ञ का आयोजन करने वाले दक्ष को जल्दी से मेरे सामने ले आओ।
भगवान शिव की आज्ञा पाकर वीरभद्र गए और दक्ष का शरीर वहां लाकर रख दिया परंतु उसमें सिर नहीं था। दक्ष के शरीर को देखकर शिवजी ने वीरभद्र से पूछा कि दक्ष का सिर कहां है? तब वीरभद्र ने बताया कि दक्ष का सिर काटकर उसने यज्ञ की अग्नि में ही डाल दिया था। तब शिवजी के आदेशानुसार बकरे का सिर दक्ष के धड़ में जोड़ दिया गया। जैसे में ही शिवजी की कृपादृष्टि दक्ष के शरीर पर पड़ी वह जीवित हो गया। दक्ष के शरीर में प्राण आ गए और वह इस प्रकार उठ बैठा जैसे गहरी नींद से उठा हो । उठते ही उसने अपने सामने महादेव जी को देखा। उसने उठकर उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगा। उसके (दक्ष के) हृदय में प्रेम उमड़ आया और उसके प्रसन्नचित्त होते ही उसका कलुषित हृदय निर्मल हो गया। तब दक्ष को अपनी पुत्री का भी स्मरण हो गया और इस कारण दक्ष बहुत लज्जित महसूस करने लगा। तत्पश्चात अपने को संभालते हुए दक्ष ने करुणानिधान भगवान शिव से कहा- हे कल्याणमय महादेव जी! आप ही इस जगत के आदि और अंत हैं। आपने ही इस सृष्टि की रचना का विचार किया है। आपके द्वारा ही हर जीव की उत्पत्ति हुई है। मैंने आपके लिए अपशब्द कहे और आपको यज्ञ में भाग भी नहीं दिया। मेरे बुरे वचनों से आपको बहुत चोट पहुंची है। फिर भी आप मुझ पर कृपा कर यहां मेरा उद्धार करने आ गए। भगवन्! आप ऐश्वर्य से संपन्न हैं। आप ही परमपिता परमेश्वर हैं। प्रभु! आप मुझ पर एवं यहां उपस्थित सभी जनों पर प्रसन्न होइए और हमारी पूजा-अर्चना को स्वीकार कीजिए
ब्रह्माजी बोले ;– नारद! इस प्रकार भगवान शिव की स्तुति करने के बाद दक्ष चुप हो गए। तब श्रीहरि विष्णुजी ने भगवान शिव की बहुत स्तुति की। तत्पश्चात मैंने भी महादेव जी की बहुत स्तुति की। भगवन्! आपने मेरे पुत्र दक्ष पर अपनी कृपादृष्टि की और उसका उद्धार किया। देवेश्वर! अब आप प्रसन्न होकर सभी शापों से हमें मुक्ति प्रदान करें।
महामुनि! इस प्रकार महादेव जी की स्तुति करके दोनों हाथ जोड़कर और सिर झुकाकर खड़ा हो गया। हम सभी देवगणों की स्तुति सुनकर भगवान शिव प्रसन्न हो गए और उनका मुख खिल उठा। तब वहां उपस्थित इंद्र सहित अनेक सिद्धों, ऋषियों और प्रजापतियों ने भी भक्तवत्सल करुणानिधान भगवान शिव की अनेकों बार स्तुति की। यज्ञशाला में उपस्थित अनेक उपदेवों, नागों तथा ब्राह्मणों ने भगवान शिव को प्रणाम किया और उनका प्रसन्न मन से स्तवन किया। इस प्रकार सभी देवों के मुख से अपना स्तवन सुनकर भगवान शिव को बहुत संतोष प्राप्त हुआ।
【श्रीरुद्र संहिता】
【द्वितीय खण्ड】
बयालीसवां अध्याय
"दक्ष का यज्ञ को पूर्ण करना"
ब्रह्माजी कहते हैं ;- नारद मुनि! इस प्रकार श्रीहरि, मेरे, देवताओं और ऋषि-मुनियों की स्तुति से भगवान शंकर बहुत प्रसन्न हुए। वे हम सबको कृपादृष्टि से देखते हुए बोले प्रजापति दक्ष! मैं तुम सभी पर प्रसन्न हूं। मेरा अस्तित्व सबसे अलग है। मैं स्वतंत्र ईश्वर हूं। फिर भी मैं सदैव अपने भक्तों के अधीन ही रहता हूं। चार प्रकार के पुण्यात्मा मनुष्य ही मेरा भजन करते हैं। उनमें पहला आर्त, दूसरा जिज्ञासु, तीसरा अर्थार्थी और चौथा ज्ञानी है। परंतु ज्ञानी को ही मेरा खास सान्निध्य प्राप्त होता है। उसे मेरा ही स्वरूप माना जाता है। वेदों को जानने वाले परम ज्ञानी ही मेरे स्वरूप को जानकर मुझे समझ सकते हैं। जो मनुष्य कर्मों के अधीन रहते हैं, वे मेरे स्वरूप को नहीं पा सकते। इसलिए तुम ज्ञान को जानकर शुद्ध हृदय एवं बुद्धि से मेरा स्मरण कर उत्तम कर्म करो। हे दक्ष! मैं ही ब्रह्मा और विष्णु का रक्षक हूं। मैं ही आत्मा हूं। मैंने ही इस संसार की सृष्टि की है। मैं ही संसार का पालनकर्ता हूं। मैं ही दुष्टों का नाश करने के लिए संहारक बन उनका विनाश करता हूं। बुद्धिहीन मनुष्य, जो कि सदैव सांसारिक बंधनों और मोह-माया में फंसे रहते हैं, कभी भी मेरा साक्षात्कार नहीं कर सकते। मेरे भक्त सदैव मेरे ही स्वरूप का चिंतन और ध्यान करते हैं।
हम तीनों अर्थात ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रदेव एक ही हैं। जो मनुष्य हमें अलग न मानकर हमारा एक ही स्वरूप मानता है, उसे सुख-शांति और समृद्धि की प्राप्ति होती है परंतु जो अज्ञानी मनुष्य हम तीनों को अलग-अलग मानकर हममें भेदभाव करते हैं, वे नरक के भागी होते हैं। हे प्रजापति दक्ष! यदि कोई श्रीहरि का परम भक्त मेरी निंदा या आलोचना करेगा या मेरा भक्त होकर ब्रह्मा और विष्णु का अपमान करेगा, उसे निश्चय ही मेरे कोप का भागी होना पड़ेगा। तुम्हें दिए गए सभी शाप उसको लग जाएंगे।
भगवान शिव के इन वचनों को सुनकर सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों तथा श्रेष्ठ विद्वानों को हर्ष हुआ तथा दक्ष भी प्रभु की आज्ञा मानकर अपने परिवार सहित शिवजी की भक्ति में मग्न हो गया। सब देवता भी महादेव जी का ही गुणगान करने लगे। वे शिवभक्ति में लीन हो गए और उनके भजनों को गाने लगे। इस प्रकार जिसने जिस प्रकार से भगवान शिव की स्तुति और आराधना की, भगवान शिव ने प्रसन्नतापूर्वक उसे ऐसा ही वरदान प्रदान दिया। तत्पश्चात, भक्तवत्सल भगवान शंकर जी से आज्ञा लेकर प्रजापति दक्ष ने अपना यज्ञ पुनः आरंभ किया। उस यज्ञ में उन्होंने सर्वप्रथम शिवजी का भाग दिया। सब देवताओं को भी उचित भाग दिया गया। यज्ञ में उपस्थित सभी ब्राह्मणों को दक्ष ने सामर्थ्य के अनुसार दान दिया। महादेव जी का गुणगान करते हुए दक्ष ने यज्ञ के सभी कर्मों को भक्तिपूर्वक संपन्न किया। इस प्रकार सभी देवताओं, मुनियों और ऋत्विजों के सहयोग से दक्ष का यज्ञ सानंद संपन्न हुआ।
तत्पश्चात सभी देवताओं और ऋषि-मुनियों ने महादेव जी के यश का गान किया और अपने-अपने निवास की ओर चले गए। वहां उपस्थित अन्य लोगों ने भी शिवजी से आज्ञा मांगकर वहां से प्रस्थान किया। तब मैं और विष्णुजी भी शिव वंदना करते हुए अपने-अपने लोक को चल दिए। दक्ष ने करुणानिधान भगवान शिव की अनेकों बार स्तुति की और शिवजी को बहुत सम्मान दिया। तब वे भी प्रसन्न होकर अपने गणों को साथ लेकर कैलाश पर्वत पर चल दिए।
कैलाश पर्वत पर पहुंचकर शिवजी को अपनी प्रिय पत्नी देवी सती की याद आने लगी । महादेव जी ने वहां उपस्थित गणों से उनके बारे में अनेक बातें कीं। वे उनको याद करके व्याकुल हो गए। हे नारद! मैंने तुम्हें सती के परम अद्भुत और दिव्य चरित्र का वर्णन सुनाया। यह कथा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली है। यह उत्तम वृत्तांत सभी कामनाओं को अवश्य पूरा करता है। इस प्रकार इस चरित्र को पढ़ने व सुनने वाला ज्ञानी मनुष्य पापों से मुक्त हो जाता है। उसे यश, स्वर्ग और आयु की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य भक्तिभाव से इस कथा को पढ़ता है, उसे अपने सभी सत्कर्मों के फलों की प्राप्ति होती है।
॥ श्रीरुद्र संहिता द्वितीय खण्ड समाप्त ॥
नोट :- शिव पुराण के सभी खण्ड के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये ।