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शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (तृतीय खण्ड) के इकतालीसवें अध्याय से पैंतालीसवें अध्याय तक (From the forty-first to the forty-fifth chapter of the Shiva Purana Sri Rudra Samhita (3rd volume))

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

इकतालीसवाँ अध्याय 

"मंडप वर्णन व देवताओं का भय"

ब्रह्माजी बोले ;- हे मुनिश्रेष्ठ नारद! तुम भी भगवान शिव की बारात में सहर्ष शामिल हुए थे। भगवान शिव ने श्रीहरि विष्णु से सलाह करके सबसे पहले तुमको हिमालय के पास भेजा, वहां पहुंचकर तुमने विश्वकर्मा के बनाए दिव्य और अनोखे मंडप को देखा तो बहुत आश्चर्यचकित रह गए। विश्वकर्मा द्वारा बनाई गई विष्णु, ब्रह्मा, समस्त देवताओं की मूर्तियों को देखकर यह कह पाना कठिन था कि ये असली हैं या नकली। वहां रत्नों से जड़े हुए लाखों कलश रखे थे। बड़े-बड़े केलों के खंभों से मण्डप सजा हुआ था।

तुम्हें वहां आया देखकर शैलराज हिमालय ने तुमसे पूछा कि देवर्षि क्या भगवान शिव बारात के साथ आ गए हैं? तब तुम्हें साथ लेकर हिमालय के पुत्र मैनाक आदि तुम्हारे साथ बारात की अगवानी के लिए आए। तब मैंने और विष्णुजी ने भी तुमसे वहां के समाचार के बारे में पूछा। हमने तुमसे यह भी पूछा कि शैलराज हिमालय अपनी पुत्री पार्वती का विवाह भगवान शिव से करने के इच्छुक हैं या नहीं? कहीं उन्होंने अपना इरादा बदल तो नहीं दिया है। यह प्रश्न सुनकर आप मुझे विष्णुजी और देवराज इंद्र को एकांत स्थान पर ले गए और वहां जाकर तुमने वहां के बारे में बताना शुरू किया। तुमने कहा कि हे देवताओ। शैलराज हिमालय ने शिल्पी विश्वकर्मा से एक ऐसे मंडप की रचना करवाई है जिसमें आप सब देवताओं के जीते-जागते चित्र लगे हुए हैं। उन्हें देखकर मैं तो अपनी सुध-बुध ही खो बैठा था। इसे देखकर मुझे यह लगता है कि गिरिराज आप सब लोगों को मोहित करना चाहते हैं। यह सुनकर देवराज इंद्र भय के मारे कापने लगे और बोले- हे लक्ष्मीपति विष्णुजी ! मैंने त्वष्टा के पुत्र को मार दिया था। कहीं उसी का बदला लेने के लिए मुझ पर विपत्ति न आ जाए। मुझे संदेह हो रहा है कि कहीं मैं वहां जाकर मारा न जाऊं। 

तब इंद्र के वचन सुनकर श्रीहरि विष्णु बोले कि ;- इंद्र! मुझे भी यही लगता है कि वह मूर्ख हिमालय हमसे बदला लेना चाहता है क्योंकि मेरी आज्ञा से ही तुमने पर्वतों के पंखों को काट दिया था। शायद यह बात आज तक उन्हें याद है और वे हम सब पर विजय पाना चाहते हैं, परंतु हमें डरना नहीं चाहिए। हमारे साथ तो स्वयं महादेव जी हैं, भला फिर हमें कैसा भय? हमें इस प्रकार गुप-चुप बातें करते देखकर भगवान शिव ने लौकिक गति से हमसे बात की और पूछा- हे देवताओं! क्या बात है? मुझे स्पष्ट बता दो। शैलराज हिमालय मुझसे अपनी पुत्री पार्वती का विवाह करना चाहते हैं या नहीं? इस प्रकार यहां व्यर्थ बातें करते रहने से भला क्या लाभ?

भगवान शिव के इन वचनों को सुनकर नारद तुम बोले ;- हे देवाधिदेव! शिवजी। गिरिजानंदिनी पार्वती से आपका विवाह तो निश्चित है। उसमें भला कोई विघ्न-बाधा कैसे आ सकती है? तभी तो शैलराज हिमालय ने अपने पुत्रों मैनाक आदि को मेरे साथ बारात की अगवानी के लिए यहां भेजा है। मेरी चिंता का कारण दूसरा है।  

 प्रभु! आपने मुझे हिमालय के यहां बारात के आगमन की सूचना देने के लिए भेजा था। जब मैं वहां पहुंचा तो मैंने विश्वकर्मा द्वारा बनाए गए मंडप को देखा। शैलराज हिमालय ने देवताओं को मोहित करने के लिए एक अद्भुत और दिव्य मंडप की रचना कराई है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वे सब इतने जीवंत हैं कि कोई भी उन्हें देखकर मोहित हुए बगैर नहीं रह सकता। उन चित्रों को देखकर ऐसा महसूस होता है कि वे अभी बोल पड़ेंगे। प्रभु ! उस मंडप में श्रीहरि, ब्रह्माजी, देवराज इंद्र सहित सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों सहित अनेक जानवरों और पशु-पक्षियों के सुंदर व लुभावने चित्र बनाए गए हैं। यही नहीं, मंडप में आपकी और मेरी भी प्रतिमूर्ति बनी है, जिन्हें देखकर मुझे यह लगा कि आप सब लोग यहां न होकर वहीं हिमालय नगरी में पहुंच गए हैं। 

नारद! तुम्हारी बातें सुनकर भगवान शिव मुस्कुराए और देवताओं से बोले ;- आप सभी को भय की कोई आवश्यकता नहीं है। शैलराज हिमालय अपनी प्रिय पुत्री पार्वती हमें समर्पित कर रहे हैं। इसलिए उनकी माया हमारा क्या बिगाड़ सकती है? आप अपने भय को त्यागकर हिमालय नगरी की ओर प्रस्थान कीजिए। भगवान शिव की आज्ञा पाकर सभी बाराती भयमुक्त होकर उत्साह और प्रसन्नता के साथ पुनः नाचते-गाते शिव बारात में चल दिए। शैलराज हिमालय के पुत्र मैनाक आगे-आगे चल रहे थे और बाकी सभी उनका अनुसरण कर उनके पीछे-पीछे चल रहे थे। इस प्रकार बारात हिमालयपुरी जा पहुंची।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

बयालीसवाँ अध्याय 

"बारात की अगवानी और अभिनंदन"

ब्रह्माजी बोले ;- भगवान शिव अपनी विशाल बारात के साथ हिमालय पुत्रों के पीछे चलकर हिमालय नगरी पहुंच गए। जब गिरिराज हिमालय ने उनके आगमन का समाचार सुना तो वे प्रसन्नतापूर्वक, भक्ति से ओत-प्रोत होकर भगवान शिव के दर्शनों के लिए स्वयं आए । हिमालय का हृदय प्रेम की अधिकता के कारण द्रवित हो उठा था और वे अपने भाग्य को सराह रहे थे। हिमालय अपने साथी पर्वतों को साथ लेकर बारात की अगवानी के लिए पहुंचे। भगवान शंकर की बारात देखकर शैलराज हिमालय आश्चर्यचकित रह गए। तत्पश्चात देवता और पर्वत प्रसन्नतापूर्वक इस प्रकार एक-दूसरे के गले लगे मानो पूर्व और पश्चिम के समुद्रों का मिलन हो रहा हो। सभी अपने को धन्य मान रहे थे। इसके बाद शैलराज महादेव जी के पास पहुंचे और दोनों हाथ जोड़कर उनको प्रणाम करके स्तुति करने लगे। सभी पर्वतों और ब्राह्मणों ने भी शिवजी की वंदना की। शिवजी अपने वाहन बैल पर बैठे थे।

भगवान शिव आभूषणों से विभूषित थे तथा दिव्य प्रकाश से आलोकित थे। उनके लावण्य से सारी दिशाएं प्रकाशित हो रही थीं। भगवान शिव के मस्तक पर रत्नों से जड़ा हुआ मुकुट शोभा पा रहा था। उनके गले और अन्य अंगों पर लिपटे सर्प उनके स्वरूप को अद्भुत और शोभनीय बना रहे थे। उनकी अंगकांति दिव्य और अलौकिक थी। अनेक शिवगण हाथ में चंवर लेकर उनकी सेवा कर रहे थे। उनके बाएं भाग में भगवान श्रीहरि विष्णु और दाएं भाग में स्वयं मैं था। समस्त देवता भगवान शिव की स्तुति कर रहे थे।

नारद! जैसा तुम जानते ही हो भगवान शिव परमब्रह्म परमात्मा हैं। वे ही सबके ईश्वर हैं। वे इस जगत का कल्याण करते हैं और अपने भक्तों की सभी इच्छाओं को पूरा कर उन्हें मनवांछित फल प्रदान करते हैं। वे सदा ही अपने भक्तों के अधीन रहते हैं। वे सच्चिदानंद स्वरूप हैं और सर्वेश्वर हैं। उनके बाएं भाग में श्रीहरि विष्णु गरुड़ पर बैठे थे तो दाएं भाग में मैं (ब्रह्मा) स्थित था। हम तीनों के स्वरूप का एक साथ दर्शन कर गिरिराज आनंदमग्न हो गए।

तत्पश्चात शैलराज ने शिवजी के पीछे तथा उनके आस-पास खड़े सभी देवताओं के सामने अपना मस्तक झुकाया और सभी को बारंबार प्रणाम किया। फिर भगवान शिव की आज्ञा लेकर, शैलराज हिमालय अपने निवास की ओर चल दिए और वहां जाकर उन्होंने सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों एवं अन्य बारातियों के ठहरने की उत्तम व्यवस्था की। हिमालय ने प्रसन्नतापूर्वक अपने पुत्रों को बुलाकर कहा कि तुम सभी भगवान शिव के पास जाकर उनसे प्रार्थना करो कि वे स्वयं अतिशीघ्र यहां पधारें। मैं उन्हें अपने भाई-बंधुओं से मिलवाना चाहता हूं। तुम वहां जाकर कहो कि मैं उनकी यहां प्रतीक्षा कर रहा हूं। अपने पिता गिरिराज हिमालय की आज्ञा पाकर उनके पुत्र उस ओर चल दिए जहां बारात के ठहरने की व्यवस्था की गई थी। वहां वे भगवान शिव के पास पहुंचे। प्रणाम करके उन्होंने अपने पिता द्वारा कही हुई सभी बातों से शिवजी को अवगत करा दिया। तब भगवान शंकर ने कहा कि तुम जाकर अपने पिता से कहो कि हम शीघ्र ही वहां पहुंच रहे हैं। शिवजी से आज्ञा लेकर हिमालय के पुत्र वापिस चले गए। तत्पश्चात देवताओं ने तैयार होकर गिरिराज हिमालय के घर की ओर प्रस्थान किया। महादेव जी के साथ भगवान विष्णु और मैं (ब्रह्मा) शीघ्रतापूर्वक चलने लगे । तभी देवी पार्वती की माता देवी मैना के मन में त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को देखने की इच्छा हुई। इसलिए देवी मैना ने तुमको संदेशा भेजकर अपने पास बुलवा लिया। भगवान शिव से प्रेरित होकर देवी मैना की हार्दिक इच्छा को पूरा करने के लिए आप वहां गए।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

तेंतालीसवाँ अध्याय 

"शिवजी की अनुपम लीला"


ब्रह्माजी बोले ;– हे नारद! तुमको अपने सामने देखकर देवी मैना बहुत प्रसन्न हुईं और तुम्हें प्रणाम करके बोलीं- हे मुनिश्रेष्ठ नारद जी ! मैं भगवान शिव के इसी समय दर्शन करना चाहती हूं। मैं देखना चाहती हूं, जिन शिवजी को पाने के लिए मेरी बेटी पार्वती ने घोर तपस्या की तथा अनेक कष्टों को भोगा उन शिवजी का रूप कैसा है? वे कैसे दिखते हैं? यह कहकर तुमको साथ लेकर देवी मैना चंद्रशाला की ओर चल पड़ीं। इधर भगवान शिव भी मैना के इस अभिमान को समझ गए और मुझसे व विष्णुजी से बोले कि तुम सब देवताओं को अपने साथ लेकर गिरिराज हिमालय के घर पहुंचो। मैं भी अपने गणों के साथ पीछे-पीछे आ रहा हूं।

भगवान विष्णु ने इसे भगवान शिव की आज्ञा माना और सब देवताओं को बुलाकर उनकी आज्ञा का पालन करते हुए शैलराज के घर की ओर प्रस्थान किया। देवी मैना तुम्हारे साथ अपने भवन के सबसे ऊंचे स्थान पर जाकर खड़ी हो गईं। तब देवताओं की सजी-सजाई सेना को देखकर मैना बहुत प्रसन्न हुई । बारात में सबसे आगे सुंदर वस्त्रों एवं आभूषणों से सजे हुए गंधर्व गण अपने वाहनों पर सवार होकर बाजे बजाते और नृत्य करते हुए आ रहे थे। इनके गण अपने हाथों में ध्वज की पताका लेकर उसे फहरा रहे थे। साथ में स्वर्ग की सुंदर अप्सराएं मुग्ध होकर नृत्य कर रही थीं। उनके पीछे वसु आ रहे थे। फिर मणिग्रीवादि यक्ष, यमराज, निरृति, वरुण, वायु, कुबेर, ईशान, देवराज इंद्र, चंद्रमा, सूर्य, भृगु आदि देव व मुनीश्वर एक से एक सुंदर और मनोहारी रूप के स्वामी थे और सर्वगुण संपन्न जान पड़ते थे। उन्हें देखकर नारद वह तुमसे यही प्रश्न करती कि क्या ये ही शिव तब तुम मुस्कुराकर यह उत्तर देते कि नहीं ये भगवान शिव के सेवक हैं। देवी मैना यह सुनकर हर्ष से विभोर हो जात कि जब उनके सेवक इतने सुंदर और वैभवशाली हैं तो वे स्वयं कितने रूपवान और ऐश्वर्य संपन्न होंगे।

उधर, दूसरी ओर भगवान शिव, जो कि सर्वेश्वर हैं, उनसे भला जगत की कोई बात कैसे छिप सकती है? वे देवी मैना के हृदय की बात तुरंत जान गए और मन ही मन उन्होंने उनके मन में उत्पन्न अहंकार का नाश करने का निश्चय कर लिया। तभी वहां से, जहां मैना और नारद तुम खड़े हुए थे, श्रीहरि विष्णु पधारे। उनकी कांति के सामने चंद्रमा की कांति भी फीकी पड़ जाती है। वे जलंधर के समान श्याम तथा चार भुजाधारी थे और उन्होंने पीले वस्त्र पहन रखे थे। उनके नेत्र कमल दल के समान सुंदर व प्रकाशित हो रहे थे। वे गरुड़ पर विराजमान थे। शंख, चक्र आदि उनकी शोभा में वृद्धि कर रहे थे। उनके सिर पर मुकुट जगमगा रहा था और वक्ष स्थल में श्रीवत्स का चिन्ह था। उनका सौंदर्य अप्रतिम तथा देखने वाले को मंत्रमुग्ध करने वाला था। उन्हें देखकर देवी मैना के हर्ष की कोई सीमा न रही और वे तुमसे बोलीं कि जरूर ये ही मेरी पार्वती के पति भगवान शिव होंगे। नारद जी! देवी मैना के वचनों को सुनकर आप मुस्कुराए और उनसे बोले कि देवी, ये आपकी पुत्री पार्वती के होने वाले पति भगवान शिव नहीं, बल्कि क्षीरसागर के स्वामी और जगत के पालक श्रीहरि विष्णु हैं। ये भगवान शिव के प्रिय हैं और उनके कार्यों के अधिकारी भी हैं। हे देवी! गिरिजा के पति भगवान शिव तो संपूर्ण ब्रह्माण्ड के अधिकारी हैं। वे सर्वेश्वर हैं और वही परम ब्रह्म परमात्मा हैं। वे विष्णुजी से भी बढ़कर हैं ।

तुम्हारी ये बातें सुनकर मैना शिवजी के बारे में बहुत कुछ सोचने लगीं कि मेरी पुत्री बहुत भाग्यशाली और सौभाग्यवती है, जिसे धन-वैभव और सर्वशक्ति संपन्न वर मिला है। यह सोचकर उनका हृदय हर्ष से प्रफुल्लित हो रहा था। वे शिवजी को दामाद के रूप में पाकर अपने कुल का भाग्योदय मान रही थीं। वे कह रही थीं कि पार्वती को जन्म देकर मैं धन्य हो गई। मेरे पति गिरिराज हिमालय भी धन्य हो गए। मैंने अनेक तेजस्वी देवताओं के दर्शन किए, इन सभी के द्वारा पूज्य और इन सबके अधिपति मेरी पुत्री पार्वती के पति हैं फिर तो मेरा भाग्य सर्वथा सराहने योग्य है।

इस प्रकार मैना अभिमान में आकर जब यह सब कह रही थी उसी समय उसका अभिमान दूर करने के लिए अपने अद्भुत रूप वाले गणों को आगे करके शिवजी भी आगे बढ़ने लगे। भगवान शिव के सभी गण मैना के अहंकार और अभिमान का नाश करने वाले थे। भूत, प्रेत, पिशाच आदि अत्यंत कुरूपगणों की सेना सामने से आ रही थी। उनमें से कई बवंडर का रूप धारण किए थे, किसी की टेढ़ी सूंड थी, किसी के होंठ लंबे थे, किसी के चेहरे पर सिर्फ दाढ़ी-मूंछें ही दिखाई देती थीं, किसी के सिर पर बाल नहीं थे तो किसी के सिर पर बालों का घना जंगल था। किसी की आंखें नहीं थीं, कोई अंधा था तो कोई काणा । किसी की तो नाक ही नहीं थी । कोई हाथों में बड़े भारी-भारी मुद्गर लिए था, तो कोई औंधा होकर चल रहा था। कोई वाहन पर उल्टा होकर बैठा हुआ था। उनमें कितने ही लंगड़े थे। किसी ने दण्ड और पाश ले रखे थे। सभी शिवगण अत्यंत कुरूप और विकराल दिखाई देते थे। कोई सींग बजा रहा था, कोई डमरू तो कोई गोमुख को बजाता हुआ आगे बढ़ रहा था। उनमें किसी का सिर नहीं था तो किसी के धड़ का पता नहीं चल रहा था तो किसी के अनेकों मुख थे। किसी के चेहरे पर अनगिनत आंखें लगी थीं तो किसी के अनेकों पैर थे। किसी के हाथ नहीं थे तो किसी के अनेकों कान थे, तो किसी के अनेकों सिर थे। सभी शिवगणों ने अचंभित करने वाली वेश-भूषा धारण की हुई थी। कोई आकार में बहुत बड़ा था तो कोई बहुत छोटा था। वे देखने में बहुत ही भयंकर लग रहे थे। उनकी लंबी-चौड़ी विशाल सेना मदमस्त होकर नाचते-गाते हुए आगे बढ़ रही थी। तभी तुमने अंगुली के इशारे से शिवगणों को दिखाते हुए देवी मैना से कहा के दर्शन करना। देवी! पहले आप भगवान शिव के गणों को देख लें, तत्पश्चात महादेव जी भूत-प्रेतों की इतनी बड़ी सेना को देखकर देवी मैना भय से कांपने लगीं। इसी सेना के बीच में पांच मुख वाले, तीन नेत्रों, दस भुजाओं वाले, शरीर पर भस्म लगाए, गले में मुण्डों की माला पहने, गले में सर्पों को डाले, बाघ की खाल को ओढ़े, पिनाक धनुष हाथ में उठाए,

त्रिशूल कंधे पर रखकर बड़े कुरूप और बूढ़े बैल पर चढ़े हुए भगवान शंकर देवी मैना को दिखाई दिए। उनके सिर पर जटाजूट थी और आंखें भयंकर लाल थीं।

नारद! तभी तुमने मैना को बताया कि वे ही भगवान शिव हैं। तुम्हारी यह बात सुनकर देवी मैना अत्यंत व्याकुल होकर तेज वायु के झकोरे लगने से टूटी लता के समान धरती पर धड़ाम से गिरकर मूर्छित हो गई। उनके मुख से सिर्फ यही शब्द निकले कि सबने मिलकर मुझे छल-कपट से राजी किया है। मैं सबके आग्रह को मानकर बरबाद हो गई। मैना के इस प्रकार बेहोश हो जाने पर उनकी अनेकों दासियां वहां भागती हुई आ गईं। अनेकों प्रकार के उपाय करने के पश्चात धीरे-धीरे मैना होश में आईं।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

चवालीसवाँ अध्याय 

"मैना का विलाप एवं हठ"


ब्रह्माजी बोले ;– नारद! जब हिमालय पत्नी मैना को होश आया तब वे बड़ी दुखी थीं और रोए जा रही थीं। उनका जोर-जोर से दहाड़ें मार-मारकर रोना रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। वे रोते हुए अपने पुत्रों, पुत्री तथा अपने पति गिरिराज हिमालय सहित देवर्षि नारद व सप्तऋषियों की निंदा करते हुए उन्हें कोस रही थीं।

मैना बोलीं ;– हे नारद मुनि! आपने ही हमारे घर आकर यह कहा था कि शिवा शिव का वरण करेंगी। तुम्हारी बातों को मानकर हम सबने अपनी पुत्री पार्वती को भगवान शिव की तपस्या करने के लिए वनों में भेज दिया। मेरी बेटी ने अपने तप के द्वारा सभी को प्रसन्न कर दिया। उसने ऐसी तपस्या की जो कि बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के लिए भी कठिन है। परंतु उसकी इतनी पूजा-आराधना का यह फल उसे मिला, जो कि देखने में भी दुख देने वाला है। इसे देखकर हमें अत्यंत दुख और भय प्राप्त हुआ है। हे भगवान! मैं क्या करूं? कहां जाऊं? भला कौन मुझे इस असह्य दुख से छुटकारा दिला सकता है? मैं तो किसी को भी अपना मुंह दिखाने योग्य नहीं रही। भला, कोई देखो वे दिव्य सप्तऋषि और उनकी वो धूर्त पत्नी अरुंधती कहां चली गईं, जो मुझे समझाने आई थीं। जिसने मुझे झूठ-सच कह कहकर जबरदस्ती इस विवाह के लिए मेरी स्वीकृति ले ली थी। यदि वे मेरे सामने आ जाएं तो मैं उन ऋषियों की दाढ़ी-मूंछ नोच लूं । हाय! मेरा तो सबकुछ लुट गया। मैं तो पूरी तरह से बरबाद हो मैं गई हूं।

यह कहकर देवी मैना अपनी पुत्री पार्वती से बोलीं ;- तूने हमसे कौन से जन्म का बदला लिया है? तूने यह क्या कार्य कर दिया, जो तेरे माता-पिता के लिए अत्यंत दुख का कारण बन गया है। इस प्रकार मैना पार्वती को खूब खरी खोटी सुनाने लगीं। वे कहने लगीं कि नासमझ तूने सोने के बदले कांच खरीद लिया है। सुंदर सुगंधित चंदन को छोड़कर अपने शरीर पर कीचड़ का लेप कर लिया है। यह मूर्खा तो यह भी नहीं समझती कि इसने हंस को उड़ाकर उसके स्थान पर कौए को पाल लिया है। गंगाजल, जिसे सबसे पवित्र समझा जाता है, उसको फेंककर कुएं के जल को पी लिया है। उजाले को पाने की चाह लेकर उसके स्रोत सूर्य को छोड़कर जुगनू को पकड़ने के लिए दौड़ रही है। चावल के भूसे को रखकर अच्छे चावलों को फेंक रही है। बेटी, तूने हमारे कुल के यश का सर्वनाश करने की इच्छा कर ली है। तभी तो, मंगलमयी विभूति को फेंककर घर में चिता की अमंगलमयी राख को लाना चाहती है। जानवरों के सिरमौर सिंह को त्याग कर सियार के पीछे पड़ी है।

पार्वती! तूने बड़ी भारी मूर्खता कर दी है, जो सूर्य, चंद्रमा, श्रीहरि विष्णु और देवराज इंद्र जैसे सुंदर, सर्वगुण संपन्न, परम ऐश्वर्य और वैभव के स्वामियों को छोड़कर दुष्ट नारद की बातों में आकर एक महा-कुरूप शिव के लिए रात-दिन वनों की खाक छानती रही और घोर तपस्या करती रही। तुझे, तेरी बुद्धि, तेरे रूप तथा तेरी सहायता करने वाले प्रत्येक उस मनुष्य को धिक्कार है, जिसने तुझे गलत राह पर चलने में मदद की। हमको भी धिक्कार है जो मैंने और तेरे पिता ने तुझे जन्म दिया। सुबुद्धि देने वाले उन सप्तऋषियों को भी मैं धिक्कारती हूं, जिन्होंने गलत उपदेश देकर मुझे गलत रास्ते पर लाकर खड़ा कर दिया। उन्होंने तो मेरा घर जलाने का पूरा प्रबंध कर दिया है। मेरे कुल को सर्वनाश की कगार पर ले आए हैं। पार्वती! मैंने तुझे कितना समझाया, पर तू अपनी जिद पर अड़ी रही। पर अब और नहीं, अब मैं तेरी एक भी नहीं सुनूंगी। मैं तो अभी तुझे मार डालूंगी, तुझे जीवित रखने का अब कोई प्रयोजन नहीं है। तुझे मारकर खुद की जीवन लीला भी समाप्त कर दूंगी। भले ही मुझे नरक का भागी क्यों न होना पड़े। मेरा दिल करता है कि मैं तेरा सिर काट दूं, तेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दूं। तुझे छोड़कर कहीं चली जाऊं।

यह कहकर देवी मैना मूर्छित होकर फर्श पर गिर पड़ीं। तब उस समय उनकी ऐसी हालत देखकर सभी देवता उन्हें समझाने के लिए उनके पास गए। सबसे पहले मैं (ब्रह्मा) उनके पास पहुंचा। 

तब मुझे वहां देखकर नारद तुमने कहा ;- 'देवी! आपको इस बात का ज्ञान नहीं है कि शिवजी बहुत सुंदर हैं। अभी तुमने उनका सही स्वरूप देखा ही कहां है? अभी जो कुछ तुमने देखा है, वह उनकी लीला मात्र है। देवी! आप अपने क्रोध को त्याग दें और स्वस्थ होकर शुद्ध हृदय से विवाह का कार्य आरंभ करें। इतना सुनना था कि मैना के क्रोध की अग्नि भभक उठी, वे बोलीं दुष्ट नारद! यहां से इसी समय चला जा । तू दुष्टों का भी दुष्ट और नीच है। तू मेरे सामने भूलकर भी मत आना। इसी समय यहां से निकला। मैं तेरी सूरत तक देखना नहीं चाहती।

मैना के ये वचन सुनकर इंद्रादि देवता दौड़कर वहां चले आए और बोले ;— हे पितरों की कन्या मैना! भगवान शिव तो इस समस्त चराचर जगत के स्वामी हैं। वे तो सबको सुख देने वाले तथा सबको मनोवांछित वर देने वाले सर्वेश्वर हैं। वे तो भक्तवत्सल हैं और सदा ही अपने भक्तों के अधीन रहते हैं। आपकी पुत्री पार्वती ने कठिन तप करके भगवान शिव को प्रसन्न किया है तथा वरदान के रूप में उनको अपना पति होने का वर प्राप्त किया है। तभी तो आज वे अपने दिए वरदान को पूरा करने के लिए उनका पाणिग्रहण करने के लिए यहां पधारे हैं।

यह सुनकर मैना और अधिक रोने लगीं और बोलीं ;- शिव तो बहुत भयंकर हैं। मैं अपनी पुत्री पार्वती कदापि उन्हें नहीं दूंगी। आप सब देवता क्यों ये षडयंत्र रच रहे हैं? आप मेरी प्राणप्रिय, फूलों के समान कोमल पुत्री को क्यों इन भूत-प्रेतों के हवाले करना चाहते हैं? इस प्रकार देवी मैना सब देवताओं पर क्रोधित होकर उन्हें फटकारने लगीं।

जब वशिष्ठ आदि सप्तऋषियों ने देवी मैना के इस प्रकार के वचन सुने तो वे भी मैना को समझाने के लिए उनके निकट आ गए। 

तब वे बोले ;- हे पितरों की कन्या मैना! हम तो तुम्हारा कार्य सिद्ध करने के लिए यहां आए हैं। भगवान शिव का दर्शन तो सभी पापों का नाश करने वाला है और यहां तो वे स्वयं आपके घर पधारे हैं। इस बात को सुनकर भी देवी मैना को कोई संतोष नहीं हुआ। उनका क्रोध यथावत रहा तथा उन्होंने फिर कहा कि मैं पार्वती के टुकड़े-टुकड़े कर दूंगी परंतु उसको शिव के साथ नहीं भेजूंगी। दूसरी ओर देवी मैना के इस व्यवहार से चारों ओर हाहाकार मच गया। 

जब शैलराज हिमालय को मैना के इस व्यवहार की सूचना मिली तो वे फौरन दौड़ते हुए अपनी पत्नी के पास आए और बोले ;- हे प्रिये! तुम इतनी क्रोधित क्यों हो रही हो? देखो, हमारे घर में कौन-कौन से महात्मा पधारे हैं से और तुम इनका अपमान कर रही हो। तुम भगवान शंकर के भयानक रूप को देखकर भयभीत हो गई हो। देवी! वे तो सर्वेश्वर हैं। भय करना छोड़कर उनके मंगलमय रूप का दर्शन करो। विवाह के शुभ कार्यों का शुभारंभ करो। अपने हठ को छोड़ो और क्रोध का त्याग कर शिव-पार्वती विवाह के मंगलमय कार्यों को संपन्न करो। देवी! तुम जानती हो कि भगवान शिव अनुपम लीलाएं करते हैं। यह भी उनकी लीला का एक भाग ही है। अतः तुम अपने मन के डर को दूर करके यथाशीघ्र पूर्ववत कार्य करो।

शैलराज हिमालय के ये वचन सुनकर उनकी पत्नी मैना अत्यंत क्रोधित हो गईं और बोलीं ;- हे स्वामी! आप ऐसा करिए कि पार्वती के गले में रस्सी बांधकर उसे पर्वत से नीचे गिरा दीजिए या फिर उसे समुद्र में डुबो दीजिए चाहे कुछ भी करके उसकी जीवन लीला समाप्त कर दीजिए । मैं आपको कुछ नहीं कहूंगी, परंतु मैं पार्वती का हाथ किसी भी परिस्थिति में शिव को नहीं सौपूंगी। यदि फिर भी आपने हठपूर्वक पार्वती का विवाह शिव से करने की ठान ली है, तो मैं अपने प्राणों को त्याग दूंगी।

अपनी माता मैना के ऐसे वचन सुनकर पार्वती उनके करीब आकर बोलीं ;- माता! आप तो ज्ञान की प्रतिमूर्ति हैं। आप सदा ही धर्म के पथ का अनुसरण करने वाली हैं। भला आज ऐसा क्या हो गया है, जो आप धर्म के मार्ग से विमुख हो रही हैं। हे माता। महादेवजी तो देवों के देव हैं। वे निर्गुण निराकार हैं। वे तो परब्रह्म परमात्मा हैं और सबके सर्वेश्वर हैं। वे तो इस संसार की उत्पत्ति के आधार हैं। भगवान शिव भक्तवत्सल हैं एवं अपने भक्तों को सदैव सुख प्रदान करने वाले हैं। भगवान शिव सब अनुष्ठानों के अधिष्ठाता हैं । वे ही सबके कर्ता, हर्ता और स्वामी हैं। ब्रह्मा, विष्णु भी सदा उनकी सेवा में तत्पर रहते हैं। हे माता। आपको तो इस बात का गर्व होना चाहिए कि आपकी पुत्री का हाथ मांगने के लिए देवता भी याचक की भांति आपके दरवाजे पर पधारे हैं। अतः आप बेकार की बातों को छोड़कर उत्तम कार्य करो। मुझे भगवान शिव के हाथों में सौंपकर अपने जीवन को सफल कर लो। माता ! मेरी छोटी-सी विनती स्वीकार कर लो और मुझे भगवान शिव के चरणों में उनकी सेवा के लिए समर्पित कर दो। मां! मैंने मन, वाणी और क्रिया द्वारा भगवान शिव को अपना पति मान लिया है। अब मैं किसी और का वरण नहीं कर सकती। मैं सिर्फ महादेवजी का ही स्मरण करती हूं। उन्हें पति रूप में पाने की इच्छा लेकर ही मैंने अपने जिंदगी के इतने वर्ष बिताए हैं। भला, आज मैं कैसे अपने वचन से पीछे हट जाऊं।

पार्वती जी के कहे वचनों को सुनकर मैना क्रोध के आधिक्य से उद्वेलित हो गईं और उसे डांटने तथा बुरे वचन कहने लगीं। मैना रोती जा रही थीं। मैंने और वहां उपस्थित सभी महानतम सिद्धों ने देवी मैना को समझाने का बहुत प्रयत्न किया परंतु सब निरर्थक सिद्ध हुआ। वे किसी भी स्थिति में समझने को तैयार नहीं थीं। 

तभी उनके हठ की बातें सुनकर परम शिव भक्त भगवान श्रीविष्णु वहां आ पहुंचे और बोले ;- हे पितरों की मानसी पुत्री एवं शैलराज हिमालय की पत्नी मैना! आप ब्रह्माजी के कुल से संबंधित हैं। इसी कारण आपका सीधा संबंध धर्म से है । आप धर्म की आधारशिला हैं। फिर भला कैसे धर्म का त्याग कर सकती हैं? इस प्रकार हठ करना आपको शोभा नहीं देता। स्वयं सोचिए, भला सभी देवता, ऋषि-मुनि और स्वयं ब्रह्माजी और मैं आपसे असत्य वचन क्यों कहेंगे। भगवान शिव निर्गुण और सगुण दोनों ही हैं। वे कुरूप हैं, तो सुरूप भी हैं। सभी उनका पूजन करते हैं। वे ही सज्जनों की गति हैं। मूल प्रकृति रूपी देवी एवं पुरुषोत्तम का निर्माण भगवान शिव ने ही किया है। मेरी और ब्रह्माजी की उत्पत्ति भी भगवान शिव के द्वारा ही हुई है। उसके बाद सारे लोकों का हित करने के लिए उन्होंने स्वयं भी रुद्र का अवतार धारण कर लिया है। तत्पश्चात वेद, देवता तथा इस जल एवं थल में जो भी चराचर वस्तु या प्राणी दिखाई देता है, उस सारे जगत की रचना भगवान शिव ने ही की है। हे देवी! कोई भी उनके रूप को नहीं जानता है और न ही जान सकता है। यहां तक कि मैं और ब्रह्माजी भी उनकी समस्त लीलाओं को आज तक नहीं जान पाए हैं। इस संसार में जो कुछ भी विद्यमान है, वह भगवान शिव का ही स्वरूप है। यह तो भगवान शिव की ही माया है, जो वे स्वयं आपको अपना रूप इस प्रकार दिखा रहे हैं। हे देवी! आप सबकुछ भूलकर, सच्चे मन से शिवजी का स्मरण करके उनके चरणों में अपना ध्यान लगाए आपके सारे दुख और क्लेश मिट जाएंगे और आपको परम सुख की प्राप्ति होगी। श्रीहरि विष्णु द्वारा जब मैना को इस प्रकार समझाया गया तो देवी मैना का क्रोध कुछ कम हुआ। वस्तुतः शिवजी की माया से मोहित होने के कारण ही वे यह सब कर रही थीं। कुछ शांत होने पर उन्होंने कुछ देर मन में विचार किया। 

तत्पश्चात मैना श्रीहरि विष्णुजी से बोली ;– प्रभु! मैं आपकी हर बात समझ गई हूं। 

मैं यह भी जानती हूं कि भगवान - शिव सर्वेश्वर हैं और इस जगत के कण-कण में व्याप्त हैं। मैं आपकी इच्छानुसार भगवान शिव को अपनी पुत्री सौंप सकती हूं, पर मेरी एक शर्त है। तब विष्णुजी के आग्रह करने पर देवी मैना ने कहा, यदि महादेव जी सुंदर शरीर धारण कर लें, तो मैं सहर्ष अपनी पुत्री पार्वती का विवाह उनसे कर दूंगी। ऐसा कहकर देवी मैना चुप हो गईं । धन्य हैं भक्तवत्सल त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की माया, जो सबको मोह में डालने वाली है।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

पैंतालीसवाँ अध्याय 

"शिव का सुंदर व दिव्य स्वरूप दर्शन"


ब्रह्माजी बोले ;— हे नारद! उस समय जब देवी मैना ने विष्णुजी के सामने इस प्रकार की शर्त रखी, तब मैंने तुमको भगवान शिव के पास जाने का आदेश दिया तुमने वहां जाकर उनकी स्तुति की और उन्हें संतुष्ट किया। तब तुम्हारी बात मानकर तथा देवताओं का कार्य सिद्ध करने की इच्छा से भगवान शिव ने प्रसन्नतापवूक अद्भुत, उत्तम और दिव्य रूप धारण कर लिया। उस समय भगवान शिव कामदेव से अधिक रूपवान लग रहे थे। उनके सुंदर रूप-लावण्य को देखकर तुम प्रसन्न होते हुए तुरंत देवी मैना के पास उन्हें यह शुभ समाचार देने के लिए चले गए। वहां पहुंचकर, जहां देवी मैना बैठी थीं उन्हें देखकर, तुम बोले- हे शैलराज की पत्नी और पार्वती की माता मैना! आप चलकर स्वयं भगवान शिव के सुंदर और मनोहारी रूप का दर्शन करें।

यह समाचार पाकर देवी मैना की प्रसन्नता की कोई सीमा न रही। वे आपको अपने साथ लेकर भगवान शिव के दर्शन करने के लिए गईं। वहां पहुंचकर मैना ने भगवान शिव के परम आनंददायक सुंदर रूप के दर्शन किए। शिवजी का मुखारविंद करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी, सुंदर एवं दिव्य था। उनके विशाल मस्तक पर चंद्रमा सुशोभित था । सूर्य ने उनके सिर पर छत्र धारण कर रखा था। भगवान शिव प्रसन्न मुद्रा में थे । वे ललित लावण्य से युक्त मनोहर, गौरवर्ण, चंद्रलेखा से अलंकृत होकर बिजली की भांति चमक रहे थे। विष्णु सहित सभी देवता एवं ऋषि-मुनि उनकी प्रेमपूर्वक सेवा कर रहे थे। उनके शरीर पर दिव्य अलौकिक सुंदर वस्त्र व आभूषण शोभा पा रहे थे। गंगा और यमुना चंवर झुला रही थीं और अणिमा आदि आठों सिद्धियां मुग्ध होकर नाच-गा रही थीं। इस प्रकार भगवान शंकर सुंदर व दिव्य रूप धारण करके बारात लेकर हिमालय के घर की ओर आ रहे थे। उनके साथ-साथ मैं, विष्णुजी तथा देवराज इंद्र भी विभूषित होकर चल रहे थे। उनके पीछे-पीछे सुंदर एवं अनेकों रूपों वाले गण, सिद्ध मुनि व समस्त देवता जय-जयकार करते हुए चल रहे थे। समस्त देवता इस विवाह को देखने के लिए बड़े ही उत्कंठित थे और अपने परिवार के साथ शिवजी के विवाह में सम्मिलित होने के लिए आए थे। विश्ववसु आदि गंधर्व व सुंदर अप्सराएं भगवान शिव के यश का गान करते हुए चल रहे थे।

भगवान शिव के गिरिराज हिमालय के द्वार पर पधारते ही वहां महान उत्सव होने लगा। उस समय महादेव जी की शोभा अद्भुत व निराली थी। उनका सुंदर विलक्षण रूप देखकर पल भर के लिए मैना चित्रलिखित - सी होकर रह गई।

 फिर प्रसन्नतापूर्वक बोली ;- हे देवाधिदेव! महेश्वर! शिवजी! मेरी पुत्री पार्वती धन्य है जिसने घोर तपस्या करके आपको प्रसन्न किया। मेरा सौभाग्य है कि परम कल्याणकारी भगवान सदाशिव आज मेरे घर पधारे हैं। भगवन्! मैं अक्षम्य अपराध कर बैठी हूं। मैंने आपकी बहुत निंदा की है। प्रभु! मैं आपसे दोनों हाथ जोड़कर क्षमा याचना करती हूं। कृपा कर मेरी भूल क्षमा करें और मुझ पर प्रसन्न हो जाएं।

इस प्रकार चंद्रमौली भगवान शिव की स्तुति करती हुई शैलप्रिया मैना लज्जित होते हुए नतमस्तक हो गई । उस समय पुरवासिनी स्त्रियां सभी घर के कामों को छोड़कर, बाहर आकर भगवान शिव के दर्शन की लालसा लेकर उन्हें देखने का प्रयत्न करने लगीं। चक्की पीसने वाली ने चक्की छोड़ दी, पति की सेवा में लगी हुई पत्नी पति की सेवा छोड़कर भाग गई। कोई-कोई तो दूध पीते हुए बच्चे को छोड़कर भाग आई। इस प्रकार सभी अपने-अपने आवश्यक कार्यों को छोड़कर भगवान शिव के दर्शन के लिए दौड़ आई थीं। भगवान शिव के मनोहर रूप के दर्शन करके सब मोहित हो गईं। 

तब सहर्ष शिवजी की सुंदर मूर्ति को अपने मन मंदिर में धारण करके वे बोलीं ;– सखियो ! हम सबके अहोभाग्य हैं। हिमालय नगरी में रहने वाले नर-नारियों के नेत्र आज भगवान शिव के दिव्य स्वरूप का दर्शन करके सफल हो गए हैं। आज निश्चय ही हमने संसार की हर विषय-वस्तु को पा लिया है। शिव स्वरूप का दर्शन करने मात्र से ही हमारे सारे पाप नष्ट हो गए हैं। उनकी छवि सर्वथा सब क्लेशों व दुखों का नाश करने वाली है। आज उन्हें साक्षात सामने देखकर हमारा जीवन सफल हो गया है। पार्वती ने उत्तम तपस्या द्वारा भगवान शिव को पाकर अपने साथ-साथ हम सबका भी जीवन सार्थक कर दिया है। हे पार्वती । तुम निश्चय ही धन्य हो । तुम परब्रह्म परमेश्वर भगवान शिव की अर्द्धांगिनी बनकर इस जगत को सुशोभित करोगी। यदि विधाता पार्वती - शिव का इस प्रकार मेल न कराते तो निश्चय ही उनका सारा परिश्रम निष्फल हो जाता। आज शिव-शिवा की इस युगल जोड़ी को साथ देखकर हमारे सारे कार्य सार्थक हो गए हैं। आज वाकई हम सब इनके उत्तम दर्शनों से धन्य हो गए हैं।

इस प्रकार कहकर वे पुरवासिनी स्त्रियां अक्षत, कुमकुम और चंदन से शिवजी का पूजन करने लगीं तथा प्रसन्नतापूर्वक उन पर खीलों की वर्षा करने लगीं। वे स्त्रियां देवी मैना के पास खड़ी होकर उनके भाग्य और कुल की सराहना करने लगीं। उनके मुख से इस प्रकार शुभ व मंगलकारी बातें सुनकर सभी देवताओं को बहुत प्रसन्नता हुई ।

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