।। ॐ नमः शिवाय ।।
शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर
【श्रीरुद्र संहिता】
【तृतीय खण्ड】
छत्तीसवाँ अध्याय
"सप्तऋषियों का शिव के पास आगमन"
ब्रह्माजी बोले ;– हे मुनिश्रेष्ठ नारद! शैलराज हिमालय और मैना से विदा लेकर सप्तऋषि भगवान शिव के निवास स्थल कैलाश पर्वत पर पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर शिवजी को प्रणाम किया और उनकी भक्तिभाव से स्तुति की। तत्पश्चात उन्होंने कहना आरंभ किया। हे देवाधिदेव! महादेव! परमेश्वर ! महाप्रभो ! महेश्वर ! हमने गिरिराज हिमालय और मैना को समझा दिया है। वे इस संबंध को स्वीकार कर चुके हैं। उन्होंने पार्वती का वाग्दान कर दिया है। हे प्रभु! अब आप अपने पार्षदों तथा देवताओं के साथ बारात लेकर हिमालय के यहां जाइए और देवी पार्वती का पाणिग्रहण संस्कार करिए। भगवन्, आप वेदोक्त रीति से पार्वती को अपनी पत्नी बना लीजिए ।
सप्तऋषियों का यह वचन सुनकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए और बोले ;— हे ऋषिगण! मैं विवाह के रीति-रिवाजों के संबंध में कुछ नहीं जानता। आप लोगों ने पूर्व में विवाह की जो रीति देखी हो अथवा इस विषय में आप जो कुछ जानते हो कृपया मुझे बताएं।
भगवान शिव के इस शुभ वचन को सुनकर सप्तऋषि बोले ;- भगवन्! आप सर्वप्रथम श्रीहरि विष्णु एवं सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी को उनके पुत्रों एवं पार्षदों सहित यहां बुला लीजिए । सभी ऋषि-मुनियों, यक्ष, गंधर्वों, किन्नरों, सिद्धगणों एवं देवराज इंद्र सहित सभी देवताओं और अप्सराओं को अपने विवाह में आमंत्रित करें। वे सब मिलकर इस विवाह का सफल आयोजन करेंगे।
ऐसा कहकर सप्तऋषि भगवान शिव से आज्ञा लेकर उनकी भक्तिभाव से स्तुति करते हुए प्रसन्नतापूर्वक अपने धाम को चले गए।
【श्रीरुद्र संहिता】
【तृतीय खण्ड】
सैंतीसवाँ अध्याय
"हिमालय का लग्न पत्रिका भेजना"
नारद जी ने पूछा ;- हे तात! महाप्राज्ञ ! कृपा कर अब आप मुझे यह बताइए कि सप्तऋषियों के वहां से चले जाने पर हिमालय ने क्या किया?
ब्रह्माजी बोले ;-- नारद! जब वे सप्तऋषि हिमालय से विदा लेकर कैलाश पर्वत पर चले गए तो हिमालय ने अपने सगे-संबंधियों एवं भाई-बंधुओं को आमंत्रित किया। जब सभी वहां एकत्रित हो गए तब ऋषियों की आज्ञा के अनुसार हिमालय ने अपने राजपुरोहित श्री गज से लग्न पत्रिका लिखवाई। उसका पूजन अनेकों सामग्रियों से करने के पश्चात उन्होंने लग्न पत्रिका भगवान शंकर के पास भिजवा दी। गिरिराज हिमालय के बहुत से नाते-रिश्तेदार लग्न-पत्रिका को लेकर कैलाश पर्वत पर गए। वहां पहुंचकर उन्होंने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के मस्तक पर तिलक लगाया और उन्हें लग्न पत्रिका दे दी। शिवजी ने उनका खूब आदर-सत्कार किया। तत्पश्चात वे सभी वापिस लौट आए।
शैलराज हिमालय ने देश के विविध स्थानों पर रहने वाले अपने सभी भाई-बंधुओं को इस शुभ अवसर पर आमंत्रित किया। सबको निमंत्रण भेजने के पश्चात हिमालय ने अनेकों प्रकार के रत्नों, वस्त्रों और बहुमूल्य आभूषणों तथा विभिन्न प्रकार की बहुमूल्य देने योग्य वस्तुओं को संगृहीत किया। तत्पश्चात उन्होंने विभिन्न प्रकार की खाद्य सामग्री- चावल, आटा, गुड़, शक्कर, दूध, दही, घी, मक्खन, मिठाइयां तथा पकवान आदि एकत्र किए ताकि बारात का उत्तम रीति से आदर-सत्कार किया जा सके। सभी खाद्य वस्तुओं को बनाने के लिए अनेकों हलवाई लगा दिए गए। चारों ओर उत्तम वातावरण था।
शुभमुहूर्त में गिरिराज हिमालय ने मांगलिक कार्यों का शुभारंभ किया। घर की स्त्रियां मंगल गीत गाने लगीं। हर जगह उत्सव होने लगे। देवी पार्वती का संस्कार कराने के पश्चात वहां उपस्थित नारियों ने उनका शृंगार किया। विभिन्न प्रकार के सुंदर वस्त्रों एवं आभूषणों से विभूषित पार्वती देवी साक्षात जगदंबा जान पड़ती थीं। उस समय अनेक मंगल उत्सव और अनुष्ठान होने लगे। अनेकों प्रकार के साज-शृंगार से सुशोभित होकर स्त्रियां इकट्ठी हो गईं शैलराज हिमालय भी प्रसन्नतापूर्वक निमंत्रित बंधु-बांधवों की प्रतीक्षा करने लगे और उनके पधारने पर उनका यथोचित आदर-सत्कार करने लगे।
लोकोचार रीतियां होने लगीं। गिरिराज हिमालय द्वारा निमंत्रित सभी बंधु-बांधव उनके निवास पर पधारने लगे। गिरिराज सुमेरु अपने साथ विभिन्न प्रकार की मणियां और महारत्नों को उपहार के रूप में लेकर आए। मंदराचल, अस्ताचल, मलयाचल, उदयाचल, निषद, दर्दुर, करवीर, गंधमादन, महेंद्र, पारियात्र, नील, त्रिकूट, चित्रकूट, कोंज, पुरुषोत्तम, सनील, वेंकट, श्री शैल, गोकामुख, नारद, विंध्य, कालजंर, कैलाश तथा अन्य पर्वत दिव्य रूप धारण करके अपने-अपने परिवारों को साथ लेकर इस शुभ अवसर पर पधारे। सभी देवी पार्वती और शिवजी को भेंट करने के लिए उत्तम वस्तुएं लेकर आए इस विवाह को लेकर सभी बहुत उत्साहित थे। इस मंगलकारी अवसर पर शौण, भद्रा, नर्मदा, गोदावरी, यमुना, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, विपासा, चंद्रभागा, भागीरथी, गंगा आदि नदियां भी नर-नारी का रूप धारण करके अनेक प्रकार के आभूषणों एवं सुंदर वस्त्रों से सज-धजकर शिव-पार्वती का विवाह देखने के लिए आईं। शैलराज हिमालय ने उनका खूब आदर-सत्कार किया तथा सुंदर, उत्तम स्थानों पर उनके ठहरने का प्रबंध किया। इस प्रकार शैलराज की पूरी नगरी, जो शोभा से संपन्न थी, पूरी तरह भर गई। विभिन्न प्रकार के बंदनवारों एवं ध्वज पताकाओं से यह नगर सजा हुआ था। चारों ओर चंदोवे लगे हुए थे। विभिन्न प्रकार की नीली-पीली, रंग-बिरंगी प्रभा नगर की शोभा को और भी बढ़ा रही थी।
【श्रीरुद्र संहिता】
【तृतीय खण्ड】
अड़तीसवाँ अध्याय
"विश्वकर्मा द्वारा दिव्य मंडप की रचना"
ब्रह्माजी बोले ;– हे मुनिश्रेष्ठ नारद! शैलराज हिमालय ने अपने नगर को बारात के स्वागत के लिए विभिन्न प्रकार से सजाना शुरू कर दिया। हर जगह की सफाई का विशेष ध्यान रखा गया। सड़कों को साफ कराया गया और उन पर छिड़काव कराया गया। तत्पश्चात उन्हें बहुमूल्य साधनों से सुसज्जित एवं शोभित किया गया। प्रत्येक घर के दरवाजे पर केले का मांगलिक पेड़ लगाया गया। आम के पत्तों को रेशम के धागे से बांधकर सुंदर बंदनवारें बनाई गईं। विभिन्न प्रकार के सुगंधित फूलों से हर स्थान को सजाया गया। सुंदर तोरणों से घर को के शोभायमान किया गया। चारों ओर का वातावरण अत्यंत सुगंधित था। वहां का दृश्य दिव्य और अलौकिक था।
विश्वकर्मा को गिरिराज हिमालय ने आदरपूर्वक बुलवाया और उन्हें एक दिव्य मंडप की रचना करने को कहा। वह मंडप दस हजार योजन लंबा और चौड़ा था। वह दिव्य मंडप चालीस हजार कोस के विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ था विश्वकर्मा, जो कि देवताओं के शिल्पी कहे जाते हैं, ने इस उत्तम मंडप की रचना करके अपनी कुशलता एवं निपुणता का परिचय दिया। यह मंडप अद्भुत जान पड़ता था। उस मंडप में अनेकों प्रकार के स्थावर, जंगम पुष्प तथा स्त्री-पुरुषों की मूर्तियां बनाई गई थीं जो कि इतनी सुंदर थीं कि यह निश्चय कर पाना कठिन था कि कौन ज्यादा सुंदर एवं मनोरम है? वहां जल में थल तथा थल में जल दिखाई रहा था। कोई भी मनुष्य इस कलाकृति को देखकर यह नहीं जान पा रहा था कि यहां जल है या थल। विभिन्न प्रकार के जानवरों की कलाकृतियां जीवंत बनाई गई थीं।
अपनी सुंदरता से जड़ हृदयों को मोहित करते सारस कहीं सरोवर में पानी पीते दिखाई देते थे तो कहीं जंगलों में सिंह ऐसे लग रहे थे मानो अभी दहाड़ना शुरू कर देंगे । नृत्य करने की मुद्रा में बनाई गई स्त्री-पुरुषों की मूर्तियों को देखकर ऐसा लगता था मानो वाकई नर-नारी नृत्य कर रहे हों। द्वार पर खड़े द्वारपाल हाथों में धनुष बाण लेकर ऐसे खड़े थे जैसे सचमुच अभी बाणों की वर्षा शुरू कर देंगे। इस प्रकार सभी कृत्रिम वस्तुएं बहुत ही सुंदर एवं मनोहर थीं, जो कि बिलकुल जीवंत लगती थीं द्वार के मध्य में देवी महालक्ष्मी की सुंदर मूर्ति की स्थापना की थी, जिन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो क्षीरसागर से निकलकर साक्षात लक्ष्मी देवी वहां आ गई हों। वे सभी शुभ लक्षणों से युक्त दिखाई दे रहीं थीं। मंडप में विभिन्न स्थानों पर हाथियों की कलाकृतियां भी बनाई गई थीं। कई स्थानों पर घोड़े घुड़सवारों सहित खड़े थे तो कहीं सुंदर अद्भुत दिव्य रथ जिन पर सफेद अश्व जुते हुए थे। मंडप के मुख्य द्वार पर नंदीश्वर, जो कि शिवजी की सवारी हैं, की मूर्ति बनाई गई थी, जो कि स्फटिक मणि के समान चमक रही थी। उसके ऊपर दिव्य पुष्पक विमान की रचना की गई थी, जिसे पल्लवों और सफेद चामरों से सजाया गया था। विश्वकर्मा द्वारा समस्त देवताओं की भी प्रतिमूर्ति की रचना की गई थी जो कि हू-ब-हू वास्तविक देवताओं से मिलती थी।
क्षीरसागर में निवास करने वाले श्रीहरि विष्णु एवं उनके वाहन गरुड़ की रचना भी उस मंडप में की गई थी, जिसका स्वरूप साक्षात विष्णुजी जैसा ही था । इसी प्रकार विश्वकर्मा द्वारा जगत के सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी की भी प्रतिमा उनके पुत्रों और वेदों सहित बनाई गई थी। साथ ही वह प्रतिमा वैदिक सूक्तों का पाठ करती हुई दिखाई देती थी। स्वर्ग के राजा देवेंद्र अर्थात इंद्र एवं उनके वाहन ऐरावत हाथी की मूर्तियां भी जीवंत थीं ।
इस प्रकार विश्वकर्मा द्वारा बनाई गई सभी कलाकृतियां कला का अद्भुत नमूना थीं जो कि दिव्य एव मनोरम थीं। जिन्हें देखकर यह जान पाना अत्यंत मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था कि वे असली हैं या फिर नकली। देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा द्वारा रचित यह दिव्य मंडप आश्चर्यों से युक्त एवं सभी को मोहित कर लेने वाला था। तत्पश्चात शैलराज हिमालय की आज्ञा के अनुसार विश्वकर्मा ने देवताओं के रहने के लिए कृत्रिम लोकों का निर्माण किया जो कि अद्भुत थे। साथ ही उनके बैठने के लिए दिव्य सिंहासनों की भी रचना की गई। ब्रह्माजी के रहने के लिए विश्वकर्मा ने सत्यलोक की रचना की जो दीप्ति से प्रकाशित हो रहा था। तत्पश्चात श्रीहरि विष्णु के लिए बैकुंठ का निर्माण किया गया। देवराज इंद्र के लिए समस्त ऐश्वर्यों से संपन्न दिव्य स्वर्गलोक की रचना की गई। अन्य देवताओं के लिए भी उन्होंने सुंदर एवं अद्भुत भवनों की रचना की। देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा ने पलक झपकते ही इस अद्भुत कार्य को मूर्त रूप दे दिया। सभी देवताओं के रहने हेतु उनके दिव्य लोकों जैसे कृत्रिम लोकों का निर्माण करने के पश्चात विश्वकर्मा ने भक्तवत्सल भगवान शिव के ठहरने हेतु एक सुंदर, मनोरम एवं अद्भुत घर का निर्माण किया। यह भवन भगवान शिव के कैलाश स्थित धाम के अनुरूप ही था। यहां शिव चिह्न शोभा पाता था । यह भवन परम उज्ज्वल, दिव्य प्रभापुंज से सुभासित, उत्तम और अद्भुत था इस भवन की सभी ने बहुत प्रशंसा की। यहां तक कि स्वयं भगवान शिव भी उसे देखकर आश्चर्यचकित हो गए और विश्वकर्मा की इन रचनाओं को उन्होंने बहुत सराहा। विश्वकर्मा की यह रचना अद्भुत थी। इस प्रकार जब सुंदर एवं दिव्य मनोरम मंडप की रचना हो गई और सभी देवताओं के ठहरने के लिए यथायोग्य लोकों का भी निर्माण कर दिया गया तो शैलराज हिमालय ने विश्वकर्मा को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया। तत्पश्चात हिमालय प्रसन्नतापूर्वक भगवान शिव के शुभागमन की प्रतीक्षा करने लगे।
हे नारद! इस प्रकार मैंने वहां का सारा वृत्तांत तुम्हें सुना दिया है। अब आप और क्या सुनना चाहते हैं?
【श्रीरुद्र संहिता】
【तृतीय खण्ड】
उन्तालीसवाँ अध्याय
"शिवजी का देवताओं को निमंत्रण"
नारद जी बोले ;– हे महाप्रज्ञ ! हे विधाता! आपको नमस्कार है। आपने अपने श्रीमुख से मुझे अमृत के समान दिव्य और अलौकिक कथा को सुनाया है। अब मैं भगवान चंद्रमौली के मंगलमय वैवाहिक जीवन का सार सुनना चाहता हूं, जो कि समस्त पापों का नाश करने वाला है। भगवन् कृपा कर मुझे यह बताइए कि जब शैलराज हिमालय द्वारा भेजी गई लग्न पत्रिका महादेव जी को प्राप्त हो गई तो महादेव जी ने क्या किया? प्रभो ! इस अमृत कथा को सुनाने की कृपा कीजिए ।
ब्रह्माजी बोले ;– हे मुनिश्रेष्ठ नारद! लग्न पत्रिका को पाकर भगवान शिव ने मन में बहुत हर्ष का अनुभव किया । लग्न पत्रिका लेकर आए शैलराज के बंधु-बांधवों का उन्होंने यथायोग्य आदर-सत्कार किया। तत्पश्चात उन्होंने उस लग्न पत्रिका को पढ़कर स्वीकार किया तथा पत्रिका लेकर आए हुए लोगों को आदर-सम्मान से विदा किया। तब शिवजी प्रसन्नतापूर्वक सप्तऋषियों से बोले कि हे मुनियो ! आपने मेरे लिए इस शुभ कार्य का संपादन किया है और मैंने इस विवाह हेतु अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी है। अतः आप सभी मेरे विवाह में सादर आमंत्रित हैं।
भगवान शिव के शुभ वचन सुनकर ऋषिगण बहुत प्रसन्न हुए और उनको आदरपूर्वक प्रणाम करके अपने धाम को चले गए। जब ऋषिगण कैलाश पर्वत से चले गए तब भक्तवत्सल भगवान शिव ने तुम्हारा स्मरण किया। तुम अपने सौभाग्य की प्रशंसा करते हुए तुरंत उनसे मिलने उनके धाम पहुंच गए। शिवजी के श्रीचरणों में तुमने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और वहां हाथ जोड़कर खड़े हो गए।
भगवान शिव बोले ;– हे नारद! तुम्हारे दिए गए उपदेश से प्रभावित होकर ही देवी पार्वती ने घोर तपस्या की और उससे प्रसन्न होकर मैंने उन्हें अपनी पत्नी बनाने का वरदान दे दिया है। पार्वती की भक्ति ने मुझे वश में कर लिया है। अब मैं उनके साथ विवाह करूंगा। सप्तऋषियों ने शैलराज हिमालय को संतुष्ट कर इस विवाह की स्वीकृति प्राप्त कर ली है और हिमालय की ओर से लग्न पत्रिका भी आ चुकी है। आज से सातवें दिन मेरे विवाह का दिन सुनिश्चित हुआ है। इस अवसर पर महान उत्सव होगा। अतः तुम श्रीहरि, ब्रह्मा, सब देवताओं, मुनियों और सिद्धों को मेरी ओर से निमंत्रण भेजो और उनसे कहो कि वे लोग उत्साह और प्रसन्नतापूर्वक सज-धजकर अपने-अपने परिवार के साथ सादर मेरे विवाह में पधारें।
नारद! भगवान शिव की आज्ञा पाकर, आपने हर जगह जाकर आदरपूर्वक सबको इस विवाह में पधारने का निमंत्रण दे दिया। तत्पश्चात भगवान शिव के पास आकर उन्हें सारी जानकारी दे दी। तब भगवान शिव भी आदरपूर्वक सब देवताओं के पधारने की प्रतीक्षा करने लगे। भगवान शिव के सभी गण संपूर्ण दिशाओं में नाचने-गाने लगे। सभी ओर उत्सव होने लगा। निमंत्रण पाकर अति प्रसन्नता से सज-धजकर भगवान श्रीहरि विष्णु भी श्री लक्ष्मी और अपने दलबल को साथ लेकर कैलाश पर्वत पर जा पहुंचे। वहां पधारकर उन्होंने भक्तिभाव से भगवान शिव को प्रणाम किया और प्रभु की आज्ञा लेकर अपना स्थान ग्रहण किया। तत्पश्चात मैं भी सपत्नीक अपने पुत्रों सहित भगवान शिव के विवाह में सम्मिलित होने के लिए पहुंचा। भगवान शिव को प्रणाम करके मैंने भी वहां आसन ग्रहण कर लिया। इसी प्रकार सब देवता, देवराज इंद्र आदि भी अपने-अपने गणों एवं परिवारों के साथ सुंदर वस्त्रों और बहुमूल्य आभूषणों से शोभायमान होकर वहां पहुंच गए।
सिद्ध, चारण, गंधर्व, ऋषि, मुनि सब सहर्ष विवाह में सम्मिलित होने के लिए कैलाश पर पहुंच गए। अप्सराएं नृत्य करने लगीं और देव नारियां गीत गाने लगीं। त्रिलोकीनाथ भगवान शिव ने स्वयं आगे बढ़कर सभी अतिथियों का सहर्ष आदर-सत्कार किया। उस समय कैलाश पर्वत पर बहुत अनोखा और महान उत्सव होने लगा। सभी देवगण हर कार्य को कुशलता के साथ संपन्न कर रहे थे मानो उनका अपना ही कार्य हो। प्रसन्नतापूर्वक सातों मातृकाएं शिवजी को आभूषण पहनाने लगीं। लोकोचार रीतियां करके भगवान शिव की आज्ञा से श्रीविष्णु आदि सभी देवता, वरयात्रा अर्थात बारात ले जाने की तैयारी करने लगे।
सातों माताओं ने भगवान शिव का शृंगार किया। उनके मस्तक पर तीसरा नेत्र मुकुट बन गया। चंद्रकला का तिलक लगाया गया। उनके गले में पड़े दोनों सांपों को उन्होंने और ऊंचा कर लिया और वे इस प्रकार प्रतीत होने लगे मानो सुंदर कुण्डल हों। इसी प्रकार सभी अंगों पर सांप लिपट गए जो आभूषण की सी शोभा देने लगे। सारे अंगों पर चिता की भस्म रमा दी गई, वह चंदन के समान चमक उठी। वस्त्र के स्थान पर सिंह तथा हाथी की खाल को उन्होंने ओढ़ लिया। इस प्रकार शृंगार से सुशोभित होकर भगवान शिव दूल्हा बनकर तैयार हो गए। उनके मुखमंडल पर जो आभा सुशोभित हो रही थी, उसका वर्णन करना कठिन है। वे साक्षात ईश्वर हैं। तत्पश्चात समस्त देवता, यज्ञ, दानव, नाग, पक्षी, अप्सरा और महर्षिगण मिलकर भगवान शिव के पास गए और प्रसन्नतापूर्वक बोले- हे महादेव, महेश्वर जी ! अब आप देवी पार्वती को ब्याह लेने के लिए हम लोगों के साथ चलिए और हम पर कृपा कीजिए।
तत्पश्चात क्षीरसागर के स्वामी श्रीहरि विष्णु भगवान शिव को आदरपूर्वक नमस्कार कर बोले ;— हे देवाधिदेव! महादेव! भक्तवत्सल! आप सदैव ही अपने भक्तों के कार्यों को सिद्ध करते हैं। हे प्रभु! आप गिरिजानंदनी देवी पार्वती के साथ वेदोक्त रीति से विवाह करिए। आपके द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली विवाह रीति ही जगत में विवाह-रीति के रूप में विख्यात होगी। भगवन्! आप कुलधर्म के अनुसार मण्डप की स्थापना करके इस लोक में अपने यश का विस्तार कीजिए भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर महादेव जी ने विधिपूर्वक सब कार्य करने के लिए मुझ (ब्रह्मा) से कहा। तब मैंने श्रेष्ठ मुनियों कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, गौतम, भागुरि गुरु, कण्व, बृहस्पति, शक्ति, जमदग्नि, पराशर, मार्कण्डेय, अगस्त्य, च्यवन, गर्ग, शिलापाक, अरुणपाल, अकृतश्रम, शिलाद, दधीचि, उपमन्यु, भरद्वाज, अकृतव्रण, पिप्पलाद, कुशिक, कौत्स तथा शिष्यों सहित व्यास आदि उपस्थित ऋषियों को बुलाकर भगवान शिव की प्रेरणा से विधिपूर्वक आभ्युदयिक कर्म कराए। सबने मिलकर भगवान शंकर की रक्षा विधान करके ऋग्वेद, यजुर्वेद द्वारा स्वस्तिवाचन किया।
फिर सभी ऋषियों ने सहर्ष मंगल कार्य संपन्न कराए। तत्पश्चात ग्रहों एवं विघ्नों की शांति हेतु पूजन कराया। इन सब वैदिक और अलौकिक कर्मों को विधिपूर्वक संपन्न हुआ देखकर भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए। तब भगवान शिव हर्षपूर्वक देवताओं और ब्राह्मणों को साथ लेकर अपने निवास स्थान कैलाश पर्वत से बाहर आए। उस समय शिवजी ने सब देवताओं और ब्राह्मणों को आदरपूर्वक हाथ जोड़कर नमस्कार किया। चारों ओर गाजे-बाजे बजने लगे, सभी मंत्रमुग्ध होकर नृत्य करने लगे। वहां बहुत बड़ा उत्सव होने लगा।
【श्रीरुद्र संहिता】
【तृतीय खण्ड】
चालीसवाँ अध्याय
"भगवान शिव की बारात का हिमालयपुरी की ओर प्रस्थान"
ब्रह्माजी बोले ;- हे मुनिश्रेष्ठ नारद! भगवान शिव ने कुछ गणों को वहीं रुकने का आदेश देते हुए नंदीश्वर सहित सभी गणों को हिमालयपुरी चलने की आज्ञा दी। उसी समय गणों के स्वामी शंखकर्ण करोड़ों गण साथ लेकर चल दिए। फिर भगवान शिव की आज्ञा पाकर गणेश्वर, शंखकर्ण, केकराक्ष, विकृत, विशाख, पारिजात, विकृतानन, दुंदुभ, कपाल, संदारक, कंदुक, कुण्डक, विष्टंभ, पिप्पल, सनादक, आवेशन, कुण्ड, पर्वतक, चंद्रतापन, काल, कालक, महाकाल, अग्निक, अग्निमुख, आदित्यमूर्द्धा, घनावह, संनाह, कुमुद, अमोघ, कोकिल, सुमंत्र, काकपादोदर, संतानक, मधुपिंग, कोकिल, पूर्णभद्र, नील, चतुर्वक्त्र, करण, अहिरोमक, यज्ज्वाक्ष, शतमन्यु, मेघमन्यु, काष्ठागूढ, विरूपाक्ष, सुकेश, वृषभ, सनातन, तालकेतु, षण्मुख, चैत्र, स्वयंप्रभु, लकुलीश लोकांतक, दीप्तात्मा, दैन्यांतक, भृंगिरिटि, देवदेवप्रिय, अशनि, भानुक, प्रमथ तथा वीरभद्र अपने असंख्य गणों को साथ लेकर चल पड़े। नंदीश्वर एवं गणराज भी अपने-अपने गणों को ले क्षेत्रपाल और भैरव के साथ उत्साहपूर्वक चल दिए। उन सभी गणों के सिर पर जटा, मस्तक पर चंद्रमा और गले में नील चिह्न था । शिवजी ने रुद्राक्ष के आभूषण धारण किए हुए थे। शरीर पर भस्म शोभायमान थी। सभी गणों ने हार, कुंडल, केयूर तथा मुकुट पहने हुए थे। इस प्रकार त्रिलोकीनाथ महादेव अपने लाखों-करोड़ों शिवगणों तथा मुझे, श्रीहरि और अन्य सभी देवताओं को साथ लेकर धूमधाम से हिमालय नगरी की ओर चल दिए।
शिवजी के आभूषणों के रूप में अनेक सर्प उनकी शोभा बढ़ा रहे थे और वे अपने नंदी बैल पर सवार होकर पार्वती जी को ब्याहने के लिए चल दिए। इस समय चंडी देवी महादेव जी की बहन बनकर खूब नृत्य करती हुई उस बारात के साथ हो चलीं। चंडी देवी ने सांपों को आभूषणों की तरह पहना हुआ था और वे प्रेत पर बैठी हुई थीं तथा उनके मस्तक पर सोने से भरा कलश था, जो कि दिव्य प्रभापुंज-सा प्रकाशित हो रहा था। उनकी यह मुद्रा देखकर शत्रु डर के मारे कांप रहे थे। करोड़ों भूत-प्रेत उस बारात की शोभा बढ़ा रहे थे। चारों दिशाओं में डमरुओं, भेरियों और शंखों के स्वर गूंज रहे थे। उनकी ध्वनि मंगलकारी थी जो विघ्नों को दूर करने वाली थी ।
श्रीहरि विष्णु सभी देवताओं और शिवगणों के बीच में अपने वाहन गरुड़ पर बैठकर चल रहे थे। उनके सिर के ऊपर सोने का छत्र था। चमर ढुलाए जा रहे थे। मैं भी वेदों, शास्त्रों, पुराणों, आगमों, सनकादि महासिद्धों, प्रजापतियों, पुत्रों तथा अन्यान्य परिजनों के साथ शोभायमान होकर चल रहा था। स्वर्ग के राजा इंद्र भी ऐरावत हाथी पर आभूषणों से सज धजकर बारात की शोभा में चार चांद लगा रहे थे। भक्तवत्सल भगवान शिव की बारात में अनेक ऋषि-मुनि और साधु-संत भी अपने दिव्य तेज से प्रकाशित होकर चल रहे थे। देवाधिदेव महादेव जी का शुभ विवाह देखने के लिए शाकिनी, यातुधान, बैताल, ब्रह्मराक्षस, भूत, प्रेत, पिशाच, प्रमथ आदि गण, तुम्बुरु, नारद, हा हा और हू हू आदि श्रेष्ठ गंधर्व तथा किन्नर भी प्रसन्न मन से नाचते-गाते उनके साथ हो लिए। इस विवाह में शामिल होने में स्त्रियां भी पीछे न थीं। सभी जगत्माताएं, देवकन्याएं, गायत्री, सावित्री, लक्ष्मी और सभी देवांगनाएं और देवपत्नियां तथा देवमाताएं भी खुशी-खुशी शंकर जी के विवाह में सम्मिलित होने के लिए बारात के साथ ही लीं। वेद, शास्त्र, सिद्ध और महर्षि जिसे धर्म का स्वरूप मानते हैं, जो स्फटिक के समान श्वेत व उज्ज्वल है, वह सुंदर बैल नंदी भगवान शिव का वाहन है।
शिवजी नंदी पर आरूढ़ होकर उसकी शोभा बढ़ाते हैं। भगवान शिव की यह छवि बड़ी मनोहारी थी। वे सज-धजकर समस्त देवताओं, ऋषि-मुनियों, शिवगणों, भूत-प्रेतों, माताओं के सान्निध्य में अपनी विशाल बारात के साथ अपनी प्राणवल्लभा देवी पार्वती का पाणिग्रहण करने के लिए सानंद होकर अपने ससुर गिरिराज हिमालय की नगरी की ओर पग बढ़ा रहे थे। वे सब मदमस्त होकर नाचते-गाते हुए हिमालय के भवन की तरफ बढ़े जा रहे थे। हिमालय की तरफ बढ़ते समय उनके ऊपर आकाश से पुष्पों की वर्षा हो रही थी। बारात का वह दृश्य बहुत ही मनोहारी लग रहा था। चारों दिशाओं में शहनाइयां बज रही थीं और मंगल गान गुंज रहे थे । उस बारात का अनुपम दृश्य सभी पापों का नाश करने वाला तथा सच्ची आत्मिक शांति प्रदान करने वाला था ।