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शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (पंचम खण्ड) के छठे अध्याय से दसवें अध्याय तक (From the sixth to the tenth chapter of the Shiva Purana Sri Rudra Samhita (5th volume))

  


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

छठवाँ अध्याय 

"त्रिपुर सहित उनके स्वामियों के वध की प्रार्थना"

व्यास जी ने पूछा ;- हे सनत्कुमार जी! जब उन त्रिपुर स्वामियों की बुद्धि उनकी प्रजा सहित मोहित हो गई तब क्या हुआ? कौन-सी घटना घटी? प्रभो! कृपा कर इस विषय में मेरे ज्ञान को बढ़ाइए। तब व्यास जी के प्रश्न का उत्तर देते हुए ,,

   सनत्कुमार जी बोले ;– हे महर्षि! जब उन तीनों पुरों का मुख पूर्व दिशा की ओर हो गया और तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नामक दैत्यों ने भगवान शिव का पूजन और अर्चन छोड़ दिया, तब उनके राज्य में चारों ओर दुराचार फैल गया। उस समय भगवान विष्णु और ब्रह्माजी सभी देवताओं के साथ भगवान शिव की स्तुति करने कैलाश पर्वत पर गए। वहां पहुंचकर उन्होंने शिवजी को साष्टांग प्रणाम किया। तत्पश्चात ,,

देवता बोले ;- हे देवाधिदेव ! हे करुणानिधान! आप सभी जीवों के आत्मस्वरूप, कल्याण करने वाले और अपने भक्तों की पीड़ा हरने वाले हैं। गले में नीला चिन्ह होने के कारण आप नीलकंठ कहलाते हैं। हम हाथ जोड़कर आपको प्रणाम करते हैं। आप सब प्राणियों एवं देवताओं के लिए वंदनीय हैं तथा सबकी बाधाओं और विपत्तियों को दूर करते हैं। भगवन्! आप ही रजोगुण, सतोगुण और तमोगुण के आश्रय से ब्रह्मा, विष्णु और महेश के अवतार धरकर जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं। आप ही अपने भक्तों को इस भवसागर से पार कराने वाले हैं। वेद आपके परब्रह्म स्वरूप और तत्वरूप का वर्णन करते हैं ।

आप सर्वव्यापी, सर्वात्मा और इन तीनों लोकों के अधिपति हैं। आप सूर्य से भी अधिक तेजस्वी और दीप्तिमान हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं। आप ही इस प्रकृति के प्रवर्तक हैं तथा सब प्राणियों के शरीर में रहते हैं। ऐसे परमेश्वर को हम प्रणाम करते हैं। हे शिव शंभो ।

तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नामक त्रिपुर स्वामियों ने हम देवताओं को अनेकों प्रकार से परेशान कर प्रताड़ित किया है। वे देवताओं का विनाश करने के लिए उन्मुख हैं । 

     हे प्रभो! हम आपकी शरण में आए हैं। भगवन्! उन असुरों का विनाश करके हमारी रक्षा कीजिए। इस समय तीनों असुरों ने धर्म मार्ग को छोड़ दिया है और नास्तिक शास्त्र का पालन कर रहे हैं। आपकी इच्छा के अनुरूप तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली तीनों धर्म-कर्म से विमुख हो गए हैं। अतः अब आप उनका वध कर देवताओं को मुक्ति दिलाइए। इस प्रकार कहकर सभी देवता चुप हो मस्तक झुकाकर खड़े हो गए। तब ,,

   भगवान शिव बोले ;- हे देवताओ! तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली तीनों ही यद्यपि धर्म से विमुख होकर धन, वैभव और ऐश्वर्य रूप में डूबकर सबकुछ भूल गए हैं, परंतु फिर भी वे मेरे असीम भक्त रहे हैं। जब भगवान विष्णु ने उन त्रिपुर स्वामियों को वहां की प्रजा के साथ मोहित कर धर्म-कर्म से विमुख कर ही दिया है तो वे स्वयं ही उनका वध क्यों नहीं कर देते ? शिवजी के ये वचन सुनकर 

ब्रह्माजी बोले ;- हे परमेश्वर ! आप भक्तवत्सल हैं। पाप आपसे कोसों दूर भागता है। प्रभु! आपकी आज्ञा के बिना इस जगत में पत्ता तक नहीं हिलता । भगवन्! आपकी इच्छा के अनुरूप ही विष्णुजी ने उन सबको मोहित कर पथभ्रष्ट किया है। अब आप उन त्रिपुर स्वामियों का वध करके इस जगत का उद्धार कीजिए । प्रभु! आप तो इस जगत का आधार हैं। हम सब आपके सेवक हैं और आपकी आज्ञा के अनुसार कार्य को पूरा करते हैं। आप सम्राट और हम आपकी प्रजा हैं। ब्रह्माजी के इन वचनों को सुनकर भगवान शिव प्रसन्न होकर बोले- हे ब्रह्मन्! आप मुझे देवताओं का सम्राट कह रहे हैं। पर आप ऐसा कैसे कह सकते हैं, जबकि आप जानते हैं कि मेरे पास न तो कोई दिव्य रथ है और न ही कोई सारथी है। फिर भला मैं कैसे उन सर्व सुविधा संपन्न त्रिपुर स्वामियों को युद्ध में परास्त कर पाऊंगा? मेरे पास तो धनुष भी नहीं है जिससे मैं उन दैत्यों का वध कर सकूं।

भगवान शिव के यह कहते ही सब देवता प्रसन्न हो गए। उन्होंने कहा कि प्रभु ! यदि आप उनका वध करने के लिए तैयार हैं तो हम सभी आपके लिए रथ तथा अन्य शस्त्र सामग्री का प्रबंध कर देंगे।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

सातवाँ अध्याय 

"देवताओं द्वारा शिव-स्तवन"

सनत्कुमार जी बोले ;- हे व्यास जी! जैसे ही शरणागत भक्तवत्सल भगवान शिव ने देवताओं की प्रार्थना स्वीकार कर तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली का वध करने का मन बनाया, उसी समय देवी पार्वती अपने पुत्र को गोद में लेकर वहां आईं। तब जगज्जननी मां जगदंबा को आता देखकर ब्रह्मा, विष्णु सहित अन्य देवताओं ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। अपने पुत्रों को देख भगवान शिव उन्हें प्यार करने लगे। तब देवी पार्वती भगवान शिव को अपने साथ लेकर अपने भवन के भीतर चली गईं। भगवान शिव के इस प्रकार बिना कुछ कहे अपने भवन में चले जाने के कारण सब देवता बहुत दुखी हो गए परंतु उन्होंने वहीं खड़े रहकर भगवान शिव की प्रतीक्षा करने का निर्णय लिया। उस समय वे दैत्यों के भाग्य की प्रशंसा करने लगे। वे सब देवता वहीं शिवजी के भवन के द्वार पर खड़े थे। तभी भगवान शिव के गण ने अपने स्वामी के द्वार के सामने भीड़ जमा देखकर उन पर आक्रमण कर दिया। देवता इस अनजान खतरे से संभल न सके और अपने प्राणों की रक्षा के लिए इधर-उधर दौड़ने लगे। कई साधु और ऋषिगण गिर पड़े। चारों ओर हाहाकार मच गया। तब भयभीत होकर सब देवता भगवान श्रीहरि विष्णु की शरण में गए। देवताओं को समझाते हुए श्रीहरि विष्णु ने कहा, देवताओ तथा मुनिगणो! आप लोग क्यों इतना दुखी हो रहे हैं? 

   महान पुरुषों की आराधना करने में दुख तो आते ही हैं। इन कष्टों को झेलकर ही भक्त की दृढ़ता बढ़ती है और तब वह अपने आराध्य देवों को प्रसन्न कर पाता है। भगवान शिव तो समस्त गणों के अध्यक्ष तथा परमेश्वर हैं। आप सब मिलकर भगवान आशुतोष की प्रसन्नता के लिए 'ॐ नमः शिवाय । शुभं शुभं कुरु कुरु शिवाय नमः ॐ' मंत्र का एक करोड़ बार जाप करो। वे इससे अवश्य ही प्रसन्न होंगे और हमारा कार्य पूरा करेंगे। भगवान श्रीहरि विष्णु के इन वचनों को सुनकर सभी देवता बहुत प्रसन्न हुए और सहर्ष भगवान शिव की आराधना करने लगे। अपने कार्य की सिद्धि के लिए उन्होंने एक करोड़ बार विष्णुजी द्वारा बताए गए मंत्र का जाप करना आरंभ कर दिया। जैसे ही उनकी यह आराधना संपन्न हुई, भगवान शिव उनके सामने प्रकट हो गए।

भगवान शिव बोले ;- मैं आपकी इस उत्तम आराधना से बहुत प्रसन्न हूं। आप अपना इच्छित वर मांगें। प्रभु के ये वचन सुनकर देवता बोले- हे देवाधिदेव ! हे जगदीश्वर ! आप सबके कल्याणकर्ता हैं। भगवन्, हम पर कृपा कर हमारी रक्षा कीजिए। आप त्रिपुर स्वामियों का वध करके हमें भय से मुक्ति दिलाएं। 

  तब भगवान शिव देवताओं की प्रार्थना सुनकर पुनः बोले — हे हरे! हे ब्रह्मन्! हे देवगण तथा मुनियो ! जैसा आप चाहते हैं वैसा ही होगा। मैं अवश्य ही आपकी आराधना सफल करूंगा। हे विष्णो! आप इस जगत के पालनकर्ता हैं। इसलिए त्रिपुर विनाश के लिए आप मेरी सहायता करें। मेरे लिए दिव्य रथ, सारथी और धनुष सहित आवश्यक सामग्री की व्यवस्था करें।

सनत्कुमार जी बोले ;– मुने! भगवान शिव की इच्छा जानकर सब देवता बहुत प्रसन्न हुए तथा शिवजी की आज्ञानुसार समस्त युद्ध सामग्री की व्यवस्था करने लगे। मुने! देवताओं द्वारा शिवजी को प्रसन्न करने के लिए एक करोड़ बार जपा गया यह मंत्र महान पुण्यदायी है। यह शिवजी को तुरंत प्रसन्न करने वाला तथा भक्ति-मुक्ति के मार्ग पर ले जाने वाला है । यह मंत्र शिवभक्तों की सभी कामनाओं और इच्छाओं को पूरा करता है। इस मंत्र से धन, यश की प्राप्ति होती है और आयु में वृद्धि होती है। यह निष्काम मनुष्यों के लिए मोक्ष प्राप्ति का साधन है। जो मनुष्य भक्तिभाव और शुद्ध हृदय से इस मंत्र को जपता है, उसकी सभी अभिलाषाएं भक्तवत्सल कल्याणकारी भगवान शिव अवश्य ही पूरी करते हैं ।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

आठवाँ अध्याय 

"दिव्य रथ का निर्माण"

व्यास जी ने सनत्कुमार जी से पूछा ;- हे स्ननत्कुमार जी! आप अत्यंत बुद्धिमान और सर्वज्ञ हैं। आपने मुझे अद्भुत शिव कथा सुनाने की कृपा की है। मुनि! जब भगवान शिव ने देवताओं के अभीष्ट कार्यों को पूरा करने के लिए त्रिपुर स्वामियों का वध करने हेतु विष्णुजी से दिव्य रथ का निर्माण करने के लिए कहा तब विष्णुजी ने क्या किया? दिव्य रथ का निर्माण किसने और कैसे किया?

सूत जी बोले ;- हे मुने! व्यास जी की यह बात सुनकर 

सनत्कुमार जी ने भगवान शिव के चरणों का ध्यान करके कहा ;- भगवान शिव के लिए दिव्य रथ के निर्माण करने के लिए देवताओं ने अपने शिल्पी विश्वकर्मा को बुलाकर उन्हें कार्य सौंपा। तब भगवान शिव के अनुरूप ही विश्वकर्मा ने उनके लिए रथ का निर्माण किया। उस रथ के समान कोई दूसरा रथ नहीं था। वह दिव्य रथ सोने का बना हुआ था। उस रथ के दाएं पहिए में सूर्य और बाएं पहिए में चंद्रमा लगे हुए थे। सूर्य के पहिए में बारह अर्रे लगे हुए थे जो कि बारह महीनों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। चंद्रमा के पहिए में लगे सोलह अरें चंद्रमा की सोलह कलाओं का प्रदर्शन कर रहे थे। ब्रह्मांड में विद्यमान अश्विनी आदि सत्ताईस नक्षत्र उस रथ के पीछे के भाग की शोभा बढ़ा रहे थे। छहों ऋतु सूर्य और चंद्रमा के बने पहियों की धुरी बनीं। अंतरिक्ष र के आगे का भाग और मंदराचल पर्वत उस रथ में बैठने का स्थान बना तथा संवत्सर रथ का वेग बनकर उसे गति प्रदान करने लगा। इंद्रियां उस दिव्य रथ को चारों ओर से सुसज्जित किए थीं तथा श्रद्धा रथ की चाल बनी। वेदों के अंग रथ के भूषण तथा पुराण, न्याय, मीमांसा तथा धर्मशास्त्र आदि रथ की शोभा बढ़ाने लगे। महान तीर्थ पुष्कर दिव्य रथ की ध्वज पताका बनकर फहराने लगा। विशाल समुद्रों ने रथ के बाहरी भाग का निर्माण किया। गंगा-यमुना आदि पवित्र नदियां स्त्री रूप धारण कर रथ में चंवर डुलाने लगीं ।

स्वयं ब्रह्माजी उस दिव्य रथ में सारथी बनकर भगवान शिव की सेवा में उपस्थित हुए तथा ॐकार उनके रथ का चाबुक बना। अकार विशाल छत्र बनकर रथ को शोभित करने लगे। भगवान शिव के धनुष का निर्माण करने हेतु शैलराज हिमालय स्वयं धनुष बने तो नागराज उस धनुष के लिए प्रत्यंचा बने। देवी सरस्वती धनुष की घंटा और भगवान श्रीहरि बाण बने और अग्निदेव ने बाण की नोक में अपनी शक्ति डाली। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद उस दिव्य रथ में घोड़े बनकर जुत गए। वायुदेव बाजा बजाने लगे। उस दिव्य रथ में इस ब्रह्मांड की हर वस्तु उपयोगिता बढ़ा रही थी। इस प्रकार देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा ने उस उत्तम दिव्य रथ का निर्माण किया।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

नवाँ अध्याय 

"भगवान शिव की यात्रा"

सनत्कुमार जी बोले ;– हे महर्षि ! भगवान शिव के लिए बनाया गया वह दिव्य रथ अनेकानेक आश्चर्यों से युक्त था। विश्वकर्मा द्वारा बनाया गया वह रथ ब्रह्माजी ने भगवान शिव को समर्पित कर दिया। तत्पश्चात श्रीहरि विष्णु, ब्रह्माजी और सभी देवता एवं ऋषि-मुनि कल्याणकारी भगवान शिव की प्रार्थना करने लगे। उन्होंने भगवान शिव को दिव्य रथ पर आरूढ़ किया। स्वयं ब्रह्माजी उस रथ के सारथी बने । भगवान शिव के रथ पर आरूढ़ होते ही चारों दिशाओं में मंगल गान होने लगे, पुष्प वर्षा होने लगी। ब्रह्माजी ने सर्वेश्वर शिव की आज्ञा लेकर रथ को आगे बढ़ाया। वह उत्तम दिव्य रथ भगवान शिव को लेकर विद्युत की गति से आकाश में उड़ने लगा। में जब भगवान शिव का वह दिव्य रथ तेजी से आकाश मार्ग से होता हुआ उन त्रिपुरों की ओर जा रहा था तो बीच मार्ग में ही कल्याणकारी ,,,

देवाधिदेव भगवान शिव ब्रह्माजी से बोले ;- हे विधाता! तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नामक परम बलशाली राक्षसों का वध करने के लिए मुझे उनके समान ही शक्ति चाहिए। वे तीनों असुर पहले मेरे परम भक्त थे परंतु श्रीहरि की माया से मोहित होकर उन्होंने भक्ति मार्ग को त्याग दिया है। अब उन त्रिपुर स्वामियों में तामसिक प्रवृत्ति बढ़ गई है, पशुत्व बढ़ गया है। अतः उन तीनों दैत्यों का संहार करने के लिए मुझे भी पशुओं की सी शक्ति की आवश्यकता होगी। अतः आप सब देवता पशुत्व की वृद्धि करने हेतु पशुओं का आधिपत्य मुझे प्रदान करें। तभी उन असुरों का वध हो पाएगा।

भगवान शिव के इस प्रकार के वचन सुनकर सभी देवता चिंतित हो गए और सोच में डूब गए। पशुत्व की बात सुनकर उनका मन अप्रसन्न हो गया। देवताओं को सोच में देखकर भक्तवत्सल भगवान शिव को स्थिति समझते देर न लगी। वे देवताओं की चिंता तुरंत समझ गए।

देवताओं से भगवान शिव ने कहा ;- देवताओ! इस प्रकार दुखी मत हो । मैं तुम्हारे दुख का कारण समझ गया हूं। तुम लोग यह कदापि मत सोचो कि पशुत्व से तुम्हारा पतन हो जाएगा। मैं तुम्हें पशुत्व से मुक्ति का मार्ग बताता हूं। हे देवताओ! जो भी पवित्र मन और स्वच्छ निर्मल हृदय एवं उत्तम भक्ति भावना से दिव्य पाशुपत - व्रत को पूरा करेंगे, वे सदा-सदा के लिए पशुत्व से मुक्त हो जाएंगे। तुम्हारे अतिरिक्त जो मनुष्य भी पाशुपत व्रत का पालन करेंगे, उन्हें भी पशुत्व से मुक्ति मिल जाएगी। हे देवताओ! नित्य ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए बारह, छः अथवा तीन वर्षों तक पाशुपत व्रत का पालन करने से सभी मनुष्यों एवं देवताओं को पशुत्व से हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाएगी तथा मोक्ष की प्राप्ति होगी। उसका कल्याण होगा, क्योंकि पाशुपत व्रत परम कल्याणकारी है।

भगवान शिव के इन वचनों को सुनकर ब्रह्माजी, श्रीहरि विष्णु एवं सभी देवी-देवता बहुत प्रसन्न हुए और देवाधिदेव भक्तवत्सल भगवान शिव की जय-जयकार करने लगे। तब सब देवता प्रसन्नतापूर्वक अपने अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिए पशु बन गए। तभी से सदाशिव 'पशुपति' नाम से जगत में विख्यात हुए। उनका पशुपति नाम अत्यंत कल्याणकारी एवं अभीष्ट की सिद्धि देने वाला है। उस समय भगवान शिव के स्वरूप को देखकर सभी देवता एवं ऋषिगण बहुत प्रसन्न हुए। तत्पश्चात भगवान शिव ने अन्य देवताओं के साथ त्रिपुरों की ओर प्रस्थान किया। उस समय सारे देवता अपने हाथों में हल, मूसल, भुशुंडि और अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण करके हाथी, घोड़े, सिंह, रथ और बैलों पर सवार होकर चल दिए। भगवान शिव की जय-जयकार करते हुए वे आगे बढ़ते जा रहे थे। आकाश से उन पर फूलों की वर्षा हो रही थी । कल्याणकारी भगवान शिव के साथ उनके केश, विगतवास, महाकेश, महाज्वर, सोमवल्ली, सवर्ण, सोमप, सनक, सोमधृक्, सूर्यवर्चा, सूर्यप्रेक्षणक, सूर्याक्ष, सूरिनामा, सुर, सुंदर, प्रस्कंद, कुंदर, चंड, कंपन, अतिकंपन, इंद्र, इंद्रजय, यंता, हिमकर, शताक्ष, पंचाक्ष, सहस्राक्ष, महोदर, सतीजहु, शतास्य, रंक, कर्पूरपूतन, द्विशिख, त्रिशिख, अंहकारकारक, अजवक्त्र, अष्टवक्त्र, हयवक्त्र, अर्द्धवक्त्र आदि महावीर बलशाली गणाध्यक्ष उनको घेरकर चल रहे थे ।

इस प्रकार देवाधिदेव भगवान शिवशंकर के साथ ब्रह्माजी, श्रीहरि विष्णु, देवराज इंद्र सहित अनेकों देवता, ऋषि-मुनि, साधु-संत भी अपने-अपने वाहनों पर आरूढ़ होकर त्रिपुरों के स्वामियों व त्रिपुरों का संहार देखने हेतु उनके साथ-साथ चल दिए ।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

दसवाँ अध्याय 

 "त्रिपुरासुर वध"

सनत्कुमार जी बोले ;– जब युद्ध की सामग्रियों को साथ में लेकर भगवान सदाशिव अपने दिव्य रथ में बैठकर आकाश मार्ग से उन त्रिपुरों के निकट पहुंच गए तब उन्होंने उन त्रिपु का उनके स्वामियों के साथ विनाश करने के लिए रथ के शीर्ष स्थान पर चढ़कर अपने परम दिव्य धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई परंतु उनका बाण धनुष से नहीं निकला और वे उसी प्रकार उस स्थान पर स्थित हो गए। वे इसी प्रकार अनेक वर्षों तक वहीं खड़े रहे क्योंकि गणेशजी उनके अंगूठे के अग्रभाग में खड़े होकर उनके कार्य में विघ्न डाल रहे थे। इसलिए ही तीनों पुरों का नाश नहीं हो पा रहा था।

इस प्रकार जब भगवान शिव का बाण बहुत समय तक नहीं चला और वे एक ही स्थान पर स्थिर हो गए तो सभी देवता चिंतित हो गए कि ऐसा क्यों हो रहा है?

   तभी वहां आकाशवाणी हुई- हे ऐश्वर्यशाली ! देवाधिदेव! सर्वेश्वर कल्याणकारी शिव-शंकर जब तक आप गणेश जी का पूजन नहीं करेंगे, तब तक त्रिपुरों का संहार नहीं कर पाएंगे। आकाशवाणी के वचनों को सुनकर सभी को बड़ा संतोष हुआ। तब अपने कार्यों को यथाशीघ्र पूरा करने के लिए भगवान शिव ने भद्रकाली को बुलाया । विधि-विधान से सबने मिलकर अग्रपूज्य भगवान गणेश का पूजन संपन्न किया।

पूजन संपन्न होते ही विघ्न विनाशक गणपति प्रसन्न होकर उनके मार्ग से हट गए और उन्होंने कार्य में आने वाले सभी विघ्नों को दूर कर दिया। उनके हटते ही भगवान शिव को तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली के तीनों नगर सामने नजर आने लगे। तीनों पुर कालवश शीघ्र ही एकता को प्राप्त हुए अर्थात मिल गए। ब्रह्माजी द्वारा प्रदान किए गए वरदान के अनुसार उनके अंत का यही समय था, जब त्रिपुर आपस में मिल जाएं त्रिपुरों को मिला देख सभी देवता बहुत प्रसन्न हुए। वे प्रसन्न होकर भगवान शिव की जय-जयकार के नारे लगाने लगे। तब ब्रह्मा और विष्णुजी ने महेश्वर से कहा कि हे देवाधिदेव! तारकासुर के इन तीनों दैत्य पुत्रों के वध का समय आ गया है। तभी ये तीनों पुर मिलकर परस्पर एक हो गए हैं। इससे पहले कि ये तीनों पुर फिर से अलग हो जाएं, आप इन्हें भस्म कर दीजिए और हमारे कार्य को पूर्ण कीजिए।

तब भगवान शिव ने ब्रह्माजी और श्रीहरि की प्रार्थना स्वीकार करके अपने दिव्य धनुष पर पाशुपतास्त्र नामक बाण चढ़ाया। उस समय अभिजित मुहूर्त था। विशाल धनुष की टंकार से पूरा ब्रह्मांड गूंज उठा। तब भगवान शिव ने तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली को ललकारकर उन पर करोड़ों सूर्य के समान प्रकाशमान पाशुपतास्त्र छोड़ दिया। उस बाण की नोक पर स्वयं अग्निदेव विराजमान थे। उन विष्णुमय अग्नि बाणों ने त्रिपुरवासियों को दग्ध कर दिया, जिससे देखते ही देखते वे तीनों पुर एक साथ ही समुद्रों से घिरी भूमि पर गिर पड़े।

सैकड़ों असुर उस अग्निबाण से जलकर भस्म हो गए। चारों ओर हाहाकार मच गया। जब तारकाक्ष अपने भाइयों सहित जलने लगा तब उसे यह एहसास हुआ कि यह सब भगवान शिव की भक्ति से विमुख होने का परिणाम है। तब उसने मन ही मन अपने आराध्य भगवान शिव का स्मरण किया और रोने लगा।

तारकाक्ष बोला ;- हे भक्तवत्सल ! कृपानिधान! करुणानिधान भगवान शिव ! यह तो हम जानते ही हैं कि आप हमें भस्म किए बिना नहीं छोड़ेंगे। फिर भी प्रभु हम आपकी कृपा चाहते हैं। अतः आप हम पर प्रसन्न होइए। भगवन्! जो मृत्यु असुरों के लिए दुर्लभ है, वह हमें आपकी कृपा से प्राप्त हुई है। प्रभु ! बस अब हमारी आपसे सिर्फ एक ही प्रार्थना है कि हमारी बुद्धि जन्म-जन्मांतर तक आप में ही लगी रहे । यह कहकर वे सभी दानव उस भीषण अग्नि में जलकर भस्म हो गए। भगवान शिव की आज्ञा से उन पुरों के बालक, वृद्ध, स्त्रियां- -पुरुष, पेड़-पौधे आदि सभी जीव-जंतु भी अग्नि की भेंट चढ़ गए। उस भीषण अग्नि ने स्थावर जंगम आदि सभी को पल भर में ही राख के ढेर में बदल दिया।

पाशुपतास्त्र से प्रज्वलित अग्नि में सभी जलकर भस्म हो गए परंतु भगवान शिव का भक्त मय नामक दैत्य, जो असुरों का विश्वकर्मा था और जो देवों का विरोधी भी नहीं था, भगवान शिव के तेज से सुरक्षित बच गया। इस प्रकार जिन दैत्यों या प्राणियों का किसी भी स्थिति में मन धर्म के मार्ग से विचलित नहीं होता है, उनका पतन किसी भी स्थिति में, किसी के द्वारा नहीं होता है। इसलिए सज्जन पुरुषों को सदैव अच्छे कर्म ही करने चाहिए। दूसरों की निंदा करने वालों का सदा ही विनाश होता है। अतः हम सभी को परनिंदा से बचना चाहिए और अपने बंधु-बांधवों के साथ इस जगत के स्वामी भगवान शिव की आराधना में तन्मय होकर लगे रहना चाहिए।

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