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शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (पंचम खण्ड) के इकत्तीसवें अध्याय से पैंतीसवें अध्याय तक (From the thirty-first chapter to the thirty-fifth chapter of the Shiva Purana Sri Rudra Samhita (5th volume))

  


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

इक्कतीसवाँ अध्याय 

"शिवजी द्वारा देवताओं को आश्वासन"

सनत्कुमार जी बोले ;– हे महामुने! इस प्रकार देवताओं की करुण प्रार्थना और अनुनय विनय सुनकर त्रिलोकीनाथ ,,

भगवान शिव बोले ;- हे श्रीहरि ! हे ब्रह्माजी और अन्य सभी देवताओं! मैं दैत्यराज शंखचूड़ के विषय में सबकुछ जानता हूं। असुरराज शंखचूड़ भले ही देवताओं का शत्रु एवं प्रबल विरोधी हो गया हो परंतु वह अभी भी धार्मिक है और सच्चे हृदय से धर्म का पालन करता है परंतु फिर भी तुम लोग मेरे पास मेरी शरण में आए हो और शरणागत की रक्षा करना सभी का कर्तव्य है। इसलिए मैं तुम्हारी रक्षा करने का वचन देता हूं। तुम अपनी व्यर्थ की चिंताएं त्याग दो और प्रसन्न होकर अपने-अपने स्थान पर लौट जाओ। मैं निश्चय ही शंखचूड़ का संहार करके उसके द्वारा दिए गए कष्टों से तुम्हें मुक्ति दिलाकर तुम्हारा स्वर्ग का राज्य तुम्हें वापस दिलाऊंगा। भगवान शिव जब इस प्रकार से देवताओं को शंखचूड़ के वध का आश्वासन दे ही रहे थे, तभी उनसे मिलने के लिए राधा के साथ श्रीकृष्ण वहां पधारे। भगवान शिव को प्रणाम करके वे प्रभु की आज्ञा से उनके पास ही बैठ गए। श्रीकृष्ण और राधा ने महादेव जी की मन में बहुत स्तुति की। जब भगवान शिव ने उनसे उनके आने का कारण पूछा, तब ,,

श्रीकृष्ण बोले ;- हे कृपानिधान! दयानिधि ! आप तो सबकुछ जानते हैं। आप ही इस जगत में सनाथ हैं। आप तो जानते ही हैं कि मैं और मेरी पत्नी दोनों ही शाप भोग रहे हैं। मेरा पार्षद सुदामा भी शाप के कारण दानव की योनि में अपना जीवन जी रहा है। आप भक्तवत्सल हैं। प्रभु! हम आपकी शरण में आए हैं। हम पर अपनी कृपादृष्टि करिए और हमें हमारे दुखों से मुक्ति दिलाइए। भगवन्! अब हमें इस शाप से मुक्ति दिलाइए।

भगवान श्रीकृष्ण की इस प्रार्थना को सुनकर देवाधिदेव महादेव जी बोले ;- हे कृष्णा ! आपको डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। निश्चय ही आपका कल्याण होगा। आप शाप के अनुसार बारह कल्प तक इस शाप को भोगने के पश्चात ही राधा सहित अपने निवास बैकुण्ठलोक को प्राप्त होओगे। आपका सुदामा नामक पार्षद इस समय दानव योनि में शंखचूड़ के रूप में सभी को दुख दे रहा है। इस समय वह देवताओं का प्रबल विरोधी और शत्रु है। देवताओं को उसने बहुत कष्ट दिया है। उनका राज्य छीनकर उन्हें बंदी बना लिया है। तब भगवान शिव बोले कि मैं आपके दुखों और कष्टों को समझता हूं। अब आपको चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। अतः सबकुछ भुला दो । तब उन्होंने ब्रह्माजी और श्रीहरि विष्णु को आदेश दिया कि वे वहां से जाकर अन्य देवताओं को समझाएं कि वे निश्चिंत हो जाएं। मैं उनकी इच्छा अवश्य पूरी करूंगा और उन्हें शंखचूड़ के भय से मुक्त कराऊंगा।

भगवान शिव के ये अमृत वचन सुनकर श्रीकृष्ण राधा, ब्रह्माजी सहित श्रीहरि विष्णु को बहुत संतोष हुआ। तब वे उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम करने लगे। तत्पश्चात भगवान शिव से आज्ञा लेकर सभी प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने स्थान को चले गए।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

बत्तीसवाँ अध्याय 

"पुष्पदंत-शंखचूड़ वार्ता"

व्यास जी बोले ;– हे ब्रह्मापुत्र सनत्कुमार जी ! जब देवाधिदेव महादेव जी ने ब्रह्मा, विष्णु और देवराज इंद्र सहित श्रीकृष्ण को शंखचूड़ के वध का आश्वासन दिया, तब सब देवता प्रसन्न होकर उनसे विदा लेकर अपने-अपने धाम को चले गए। तब आगे क्या हुआ? भगवान शिव ने क्या किया?

व्यास जी का प्रश्न सुनकर सनत्कुमार जी बोले ;- हे महामुने! भगवान शिव के आश्वासन देने पर कि वे असुरराज शंखचूड़ का वध करेंगे, सभी देवता अपने-अपने स्थान को चले गए । तब भगवान शिव ने विचार किया कि क्या किया जाना चाहिए ? तत्पश्चात उन्होंने गंधर्वराज चित्ररथ पुष्यदंत को स्मरण किया। स्मरण करते ही पुष्पदंत तुरंत वहां शिवजी के सामने उपस्थित हो गए। पुष्पदंत ने हाथ जोड़कर महादेव जी को प्रणाम किया और उनकी स्तुति की।

तत्पश्चात पुष्पदंत हाथ जोड़कर बोले ;- हे देवाधिदेव! कृपानिधान! करुणानिधान! मेरे लिए क्या आज्ञा है। मैं आपकी आज्ञा शिरोधार्य कर उसे यथाशीघ्र ही पूरा करूंगा । यह सुनकर भगवान शिव ने पुष्पदंत को अपना दूत बनाकर शंखचूड़ के पास भेजा। अपने आराध्य भगवान शिव की आज्ञा पाकर पुष्पदंत तुरंत ही वहां से असुरराज शंखचूड़ के नगर की ओर चल दिया।

पुष्पदंत शंखचूड़ के नगर पहुंचकर उनसे मिला और बोला ;- हे असुरराज! मैं त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का दूत बनकर उनका संदेश लेकर आपके पास आया हूं। उन्होंने कहा है कि आप यथाशीघ्र देवताओं को उनका राज्य वापस सौंप दें अन्यथा भगवान शिव के साथ युद्ध करें। युद्ध में उनके हाथों आपका वध निश्चित है। मैंने भगवान शिव के सभी वचन आपसे कह दिए हैं। आप जो संदेश उन्हें देना चाहें, मुझे बता दें। मैं आपका संदेश भगवान शिव तक पहुंचा दूंगा।

पुष्पदंत नामक दूत की बातें सुनकर असुरराज शंखचूड़ बोला ;- हे मूर्ख दूत ! क्या तुम मुझे बेवकूफ समझते हो? जाकर अपने स्वामी से कह दो कि मैं देवताओं को उनका राज्य वापस नहीं दूंगा। मैं वीर हूं, युद्ध से नहीं डरता। अब शिव और मेरा सामना युद्ध-भूमि में ही होगा।

असुरराज शंखचूड़ के ऐसे वचन सुनकर पुष्पदंत मन ही मन क्रोध की सारी सीमाएं पार कर गया। परंतु अपने स्वामी की आज्ञा के बिना वह कुछ नहीं करना चाहता था, इसलिए चुपचाप वापस शिवजी के पास लौट गया।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

तेंतीसवाँ अध्याय 

"भगवान शिव की युद्ध यात्रा"

ब्रह्मापुत्र सनत्कुमार जी बोले ;- हे महर्षे! जब भगवान शिव का पुष्पदंत नामक दूत शंखचूड़ की नगरी से वापस आया तो उसने कैलाश पर्वत पर पहुंचकर भगवान शिव को असुरराज शंखचूड़ द्वारा कही गई सभी बातें बता दीं। तब दूत के इन वचनों को सुनकर भगवान शिव को बहुत क्रोध आया। भगवान शिव ने अपने वीर साहसी गणों और अपने दोनों पुत्रों कार्तिकेय और गणेश को बुलाया। उन्होंने भद्रकाली सहित अपनी पूरी गण सेना को युद्ध के लिए तैयार होने की आज्ञा प्रदान की।

   भगवान शिव की आज्ञा के अनुसार उनके वीर गणों और पुत्रों ने युद्ध की सभी तैयारियां अतिशीघ्र पूरी कीं और आकर इस बात से भगवान शिव को अवगत कराया। तब त्रिलोकीनाथ भगवान शिव ने अपनी देव सेना और गणों के साथ दैत्यराज शंखचूड़ की नगरी की ओर प्रस्थान किया। पूरी शिवसेना प्रसन्न मन भगवान शिव की जय-जयकार करती हुई आगे बढ़ रही थी। उनके प्रिय पुत्र गणेश और कार्तिकेय सेना के अधिपति के रूप में अपनी सेना का नेतृत्व कर रहे थे । भगवान शिव की सेना में आठों भैरव, आठों वसु, एकादश रुद्र और द्वादश सूर्य भी सम्मिलित थे।

अग्नि, चंद्रमा, विश्वकर्मा, अश्विनी कुमार, कुबेर, यम, नैर्ऋति, नलकूबर, वायु, वरुण, बुध और मांगलिक ग्रह-नक्षत्र भी भगवान शिव की सेना की शोभा बढ़ा रहे थे। उनकी सेना में देवी भद्रकाली, जिनकी सौ भुजाएं थीं, अपने पार्षदों के साथ युद्धभूमि की ओर प्रस्थान कर रही थीं। भद्रकाली देवी की जीभ एक योजन लंबी और चलायमान थी। उनके हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म, खड्ग, चर्म, धनुष-बाण आदि अनेकों वस्तुएं थीं। भद्रकाली देवी के एक हाथ में एक योजन का गोल खप्पर, एक में आकाश को स्पर्श करने वाला लंबा त्रिशूल तथा अनेक शक्तियां विद्यमान थीं। देवी भद्रकाली का अनुसरण करते हुए उनके साथ तीन करोड़ योगिनी, तीन करोड़ डाकिनियां भी थीं, जो अपनी सेना को साथ लेकर शंखचूड़ की असुर सेना को मजा चखाने के लिए पूरे जोरों-शोरों से चल रही थीं । इस प्रकार त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की विशाल देव सेना, जिसमें हजारों वीर, बलशाली गण विद्यमान थे, पूरे मनोयोग के साथ युद्धस्थल की ओर बढ़ रही थी। तब भगवान शिव ने अपनी सेना को एक वट-वृक्ष के नीचे कुछ देर विश्राम करने के लिए कहा और स्वयं भी उसी वट-वृक्ष के नीचे आसन लगाकर बैठ गए।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

चौंतीसवाँ अध्याय 

"शंखचूड़ की युद्ध यात्रा"

सनत्कुमार जी बोले ;– हे व्यास जी ! उधर दूसरी ओर जब भगवान शिव का दूत पुष्पदंत असुरराज शंखचूड़ के पास से वापस लौट गया, तब असुरराज शंखचूड़ भी अपने मन में युद्ध करने का निश्चय करके अपनी प्रिय पत्नी देवी तुलसी के पास पहुंचा। वहां उसने तुलसी को बताया कि हे देवी, अब मुझे कल सुबह युद्ध के लिए प्रस्थान करना होगा। यह सुनकर देवी तुलसी रोने लगीं । शंखचूड़ ने उन्हें ढाढ़स बंधाया और कहा कि वीरों की पत्नियां रोकर नहीं, बल्कि हंसकर उन्हें विदा करती हैं ।

यह सुनकर तुलसी ने अपनी आंखों के आंसू पोंछ लिए । प्रातःकाल जागकर असुरराज शंखचूड़ ने अपने राजदरबार का उत्तरदायित्व अपने पुत्र को सौंप दिया तथा देवी तुलसी से पुत्र की सहायता करने के लिए कहा। फिर दैत्यराज शंखचूड़ ने अपनी विशाल दैत्य सेना का युद्ध के लिए आह्वान किया। अपने स्वामी दैत्यराज शंखचूड़ के बुलाने पर विशाल दैत्य सेना पल भर में संगठित हो गई। उस असुर सेना में अनेक वीर और पराक्रमी योद्धा थे। वे युद्ध करने के लिए सुसज्जित होकर आए थे। दैत्य सेना का मनोबल बहुत ऊंचा था। वे अत्यंत गर्वित थे और सोच रहे थे कि इस युद्ध में वे अवश्य ही जीतेंगे। मौर्य, कालिक और कालिकेय नामक तीन वीर असुर सेनापति के रूप में दैत्य सेना का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। उस विशाल, तीन लाख अक्षौहिणी सेना को देखकर बड़े-बड़े वीर पल भर में भयभीत हो जाते थे। असुरराज शंखचूड़ अपनी विशाल दैत्य सेना को देखकर बहुत खुश हो रहा था।

तब युद्ध के लिए प्रस्थान करती हुई उस सेना का नेतृत्व स्वयं असुरराज शंखचूड़ ने आगे आकर किया। उनके पीछे वाले रथ में दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य उनका मार्ग प्रशस्त कर रहे थे । इस प्रकार अपने स्वामी शंखचूड़ की जय-जयकार का उद्घोष करती हुई वह राक्षस सेना तीव्र गति से आगे बढ़ी चली जा रही थी । चलते-चलते काफी समय बीत गया। आखिर पुष्पभद्रा नामक नदी के किनारे एक अक्षय वट वृक्ष के नीचे दैत्य सेना ने अपना डेरा लगाया। वहीं से कुछ दूरी पर देव सेना ने भी अपना डेरा डाला हुआ था।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

पैंतीसवाँ अध्याय 

"शंखचूड़ के दूत और शिवजी की वार्ता"

सनत्कुमार जी बोले ;– हे व्यास जी ! जब इस प्रकार देवताओं की सेना लेकर भगवान शिव और राक्षसों की सेना के साथ असुरराज शंखचूड़ अपने-अपने निवासों को छोड़कर युद्ध करने के लिए यात्रा करते-करते रास्ते में रुक गए और दोनों सेनाएं कुछ ही दूर पर रुकी थीं, तब दैत्यराज शंखचूड़ ने अपने एक दूत को संदेश देकर भगवान शिव के पास भेजा।

दैत्यराज शंखचूड़ का वह दूत भगवान शिव के पास पहुंचा और बोला ;- हे शिव! मैं दैत्यराज शंखचूड़ का दूत हूं और उनका संदेश लेकर आपके पास आया हूं। मेरे स्वामी ने कहलवाया है कि वे यहां आ गए हैं। अब आपकी क्या इच्छा है? तब दैत्यराज के उस दूत से शिवजी बोले—दूत! तुम जाकर अपने स्वामी शंखचूड़ से कहो कि देवताओं के साथ शत्रुता छोड़कर उनसे मित्रता कर लो। उनका हड़पा हुआ राज्य उन्हें वापस कर दो और तुम सुखपूर्वक अपने राज्य पर शासन करो। दैत्यराज से कहना कि वे शुद्धकर्मी महर्षि कश्यप की संतान हैं। उन्हें ऐसा करना शोभा नहीं देता। इसलिए वे समय रहते मेरी समझाई हुई बात को समझ जाएं, अन्यथा इसके परिणाम दानवों के लिए बहुत घातक हो सकते हैं।

भगवान शिव के इस प्रकार के वचन सुनकर वह दूत पुनः बोला ;- हे देवाधिदेव! हालांकि आपकी बातों में कुछ सच्चाई है, परंतु क्या हमेशा हर बात में असुर ही गलत होते हैं, देवता हमेशा सही होते हैं? उनकी कभी कोई गलती नहीं होती। आपके अनुसार सारे दोष असुरों में हैं। जबकि वास्तविकता में ऐसा बिलकुल भी नहीं है। दोष केवल असुरों में ही नहीं, देवताओं में भी हैं। मैं उनका पक्ष लेने वाले आपसे पूछता हूं कि मधु और कैटभ नामक दैत्यों के सिरों को किसने काटा? त्रिपुरों को युद्ध करने के पश्चात क्यों भस्म कर दिया गया? आप सदा से ही देवताओं और दानवों में पक्षपात करते आए हैं। आप देवताओं का ही कल्याण करते हैं। जबकि ईश्वर होने के नाते आप देवताओं और असुरों दोनों के लिए ही आराध्य हैं। इसलिए आपको किसी एक के संबंध में नहीं, बल्कि दोनों के हितों को ध्यान में रखना चाहिए,

शंखचूड़ के दूत के वचनों को सुनकर कल्याणकारी शिव बोले ;- दूत ! तुम्हारी यह बात पूर्णतः गलत है। मैं देवताओं और दानवों में कभी कोई भेद नहीं करता। मैं तो सदा से ही अपने भक्तों के अधीन हूं। मैं सदैव अपने भक्तों का कल्याण करता हूं और उनके अभीष्ट कार्यों की सिद्धि करता हूं। मुझे देवताओं पर आए संकट को दूर करना है, इसलिए मुझे असुरों से युद्ध करना ही होगा। तुम जाकर इस बात को असुरराज शंखचूड़ को बता दो। यह कहकर भगवान शिव चुप हो गए और वह दूत अपने स्वामी शंखचूड़ के पास चला गया।

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