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शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (पंचम खण्ड) के छब्बीसवें अध्याय से तीसवें अध्याय तक (From the twenty-sixth to the thirtieth chapter of the Shiva Purana Sri Rudra Samhita (5th volume))

  


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

छब्बीसवाँ अध्याय 

"धात्री, मालती और तुलसी का आविर्भाव"

व्यास जी बोले ;– हे ब्रह्मापुत्र सनत्कुमार जी ! जब भगवान श्रीहरि विष्णु की माया से मोहित होकर जलंधर पत्नी वृंदा छद्म भेष धारण किए विष्णुजी को अपना पति मानकर उनके साथ रमण करने लगी तब श्रीहरि की भी उनसे प्रीति जुड़ गई। सच्चाई जान लेने के बाद कि जलंधर के रूप में भगवान श्रीहरि ने उसके साथ छल किया है, उसने अग्नि में जलकर अपने प्राणों की आहुति दे दी। तब फिर आगे क्या हुआ? भगवान विष्णु कहां गए और उन्होंने क्या किया? तुलसी के रूप में वृंदा का जन्म कैसे और कब हुआ? कृपया वह कथा मुझे बताइए।

सनत्कुमार जी बोले ;– हे महर्षे! मैं आपके सभी प्रश्नों का उत्तर देता हूं। मेरी कथा सुनिए, आपकी सभी जिज्ञासाएं दूर हो जाएंगी। जब वृंदा ने विष्णुजी द्वारा ठगे जाने पर अपने शरीर का त्याग कर दिया तो भगवान विष्णु को बहुत दुख हुआ और वे वृंदा की चिता की राख को अपने शरीर पर लपेट कर इधर-उधर मारे-मारे फिरने लगे।

इधर, जब देवताओं को भगवान श्रीहरि विष्णु की इस हालत के बारे में पता चला तो वे सब बहुत चिंतित हुए। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें? जगत के पालनकर्ता भगवान विष्णु को इस तरह दर-दर भटकना शोभा नहीं देता। जब देवताओं को इस समस्या का कोई हल नहीं सूझा तब वे देवाधिदेव भगवान शिव की शरण में गए। ब्रह्माजी को साथ लेकर देवराज इंद्र देवताओं सहित कैलाश पर्वत पर पहुंचे। वहां उन्होंने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे। तत्पश्चात शिव के पूछने पर देवताओं ने वहां आने का प्रयोजन शिवजी को बताया।

 देवताओं ने कहा ;- हे देवाधिदेव! करुणानिधान! भक्तवत्सल शिव! आप तो सर्वेश्वर हैं, सर्वज्ञाता हैं। इस संसार की कोई बात आपसे छिपी नहीं है। भगवन्! भगवान श्रीहरि विष्णु ने दैत्यराज जलंधर की पत्नी वृंदा को जलंधर का रूप लेकर ठगा परंतु उसके साथ-साथ रहते श्रीविष्णु की उनमें प्रीति हो गई और अब वे उनका वियोग सह नहीं पा रहे हैं। वे अपने शरीर पर वृंदा की चिता की आग लपेटकर जोगी बनकर इधर-उधर घूम रहे हैं। प्रभो! आप उन्हें समझाइए कि वे ऐसा न करें। भगवन्! यह जगत आपके अधीन है और आपको ही इस समय उनकी मदद करनी है, ताकि वे पहले की भांति होकर अपने कार्यों को पूरा करें।

देवताओं की इस प्रकार की प्रार्थना सुनकर भगवान शिव बोले ;- हे ब्रह्माजी! हे देवराज इंद्र व अन्य देवताओ! यह सारा जगत माया के अधीन है परंतु इस जगत की जननी मूल प्रकृति परम मनोहर महादेवी पार्वती इस माया के वशीभूत नहीं हैं। उन पर इस माया जाल का कोई असर नहीं पड़ता। इसलिए आप भगवान श्रीहरि विष्णु के इस मोहमाया के जाल को दूर करने के लिए आदि देवी प्रकृति की आधारभूत देवी पार्वती की शरण में जाइए। यदि आपके द्वारा वे प्रसन्न हो गईं तो आपकी हर एक समस्या का समाधान हो जाएगा और वे आपके कार्यों को पूर्ण करेंगी।

देवाधिदेव महादेव भगवान शिव के इन वचनों को सुनकर सभी देवताओं को अत्यंत प्रसन्नता हुई और वे भगवान शिव से आज्ञा लेकर मूल प्रकृति की शरण में चले गए। इस प्रकार जब देवता प्रकृति देवी की शरण में जा रहे थे, उस समय वहां आकाशवाणी हुई- हे देवताओ! मैं ही तीन प्रकार से तीनों प्रकार के गुणों से अलग होकर निवास करती हूं। मैं सत्यगुण में गौरा बनकर, रजोगुण में लक्ष्मी और तमोगुण में ज्योति बनकर इस जगत को आलोकित करती हूं। इसलिए आप अपनी इच्छापूर्ति हेतु देवी जगदंबा की शरण में जाओ। वे अवश्य ही तुम्हारी मनोकामना पूरी करेंगी।

यह आकाशवाणी सुनते ही सभी देवता गौरी, लक्ष्मी और सरस्वती को हाथ जोड़कर प्रणाम करने लगे और मन में उनका वंदन और स्तुति करने लगे। इस प्रकार जब देवताओं ने शुद्ध हृदय से तीनों देवियों का स्मरण किया। तब वे तीनों देवियां वहां प्रकट हो गईं। देवियों को साक्षात अपने सामने पाकर देवता बहुत हर्षित हुए और गौरी, लक्ष्मी और सरस्वती की वंदना और पूजन-अर्चन करने लगे। 

तब तीनों देवियों ने मुस्कराकर कहा ;- हे देवताओ! हम तीनों देवियां तुम्हारी स्तुति से बहुत प्रसन्न हैं। तुम जो कुछ चाहते हो, हमें बताओ। हम तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूर्ण करेंगी।

देवियों के इस कथन को सुनकर देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हुए देवराज इंद्र ने भगवान श्रीहरि विष्णु के बारे में सबकुछ गौरी, लक्ष्मी और सरस्वती देवी को बता दिया। तब उन्होंने कुछ बीज देवताओं को दिए और कहा कि ये बीज ले जाकर तुम देवी वृंदा की चिता की राख में बो दो। ऐसा करने से तुम्हारे अभीष्ट कार्यों की सिद्धि होगी। उन बीजों को लेकर देवताओं ने तीनों देवियों का धन्यवाद व्यक्त किया। तब देवियां वहां से अंतर्धान हो गईं। तत्पश्चात ब्रह्माजी सहित सभी देवता उस स्थान पर पहुंचे, जहां देवी वृंदा ने अपने प्राणों की आहुति अग्नि में दी थी। वहां पहुंचकर उन्होंने देवी द्वारा दिए गए उन बीजों को वृंदा की चिता की राख में डाल दिया। तब उन बीजों में से कुछ दिन पश्चात धात्री, मालती और तुलसी नामक वनस्पतियां पैदा हुईं। देवी सरस्वती द्वारा दिए गए बीजों से धात्री, देवी महालक्ष्मी के बीजों से मालती और देवी गौरी के बीजों से तुलसी का आविर्भाव हुआ। जैसे ही धात्री, मालती और तुलसी नामक ये स्त्री रूपी वनस्पतियां उत्पन्न हुईं और भगवान श्रीहरि विष्णु ने उन्हें देखा तो उन पर से माया का परदा हट गया और वे पहले की भांति हो गए । वे उन वनस्पतियों पर अपनी कृपादृष्टि रखने लगे और तभी से धात्री, मालती और तुलसी नामक इन वनस्पतियों को भी विष्णुजी से विशेष अनुराग हो गया। तब भगवान श्रीहरि विष्णु पुनः बैकुण्ठ लोक को चले गए।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

सत्ताईसवाँ अध्याय 

"शंखचूर्ण की उत्पत्ति"

सनत्कुमार जी बोले ;– हे महामुने! शंखचूर्ण नाम का एक दैत्य था। जिसका वध भगवान शिव ने स्वयं अपने हाथों से त्रिशूल मारकर किया था। अब मैं आपको उस शंखचूर्ण नामक दैत्य के विषय में बताता हूं।

     हे मुने! आप यह जानते ही हैं कि विधाता के पुत्र मरीचि हुए हैं और उनके पुत्र महर्षि कश्यप हुए। मरीचि के पुत्र कश्यप मुनि बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति के संत थे । वे बड़े ही धर्मात्मा थे और इस सृष्टि की रचना करने वाले ब्रह्माजी की हर आज्ञा को शिरोधार्य मानकर उसका पालन किया करते थे। प्रजापति दक्ष ने उनके व्यवहार और गुणों से प्रसन्न होकर अपनी तेरह कन्याओं का विवाह महर्षि कश्यप से कर दिया था। इन्हीं की संतानों से यह पूरा संसार भर गया। कश्यप मुनि की तेरह पत्नियों में से एक पत्नी का नाम दनु था । दनु रूपवती, गुणवती होने के साथ-साथ परम सौभाग्यवती थी। वह एक अत्यंत शांत साध्वी भी थी। उन्हीं दनु के अनेकों पुत्र हुए। उनका विप्रचित नाम का पुत्र बहुत ही बलशाली और पराक्रमी था। उसका भी दंभ नाम का एक पुत्र हुआ। दंभ भी अपने पिता की तरह धार्मिक विचारों को मानने वाला था। दंभ भगवान विष्णु का अनन्य भक्त था। इतना धार्मिक होने के पश्चात भी उसके कोई संतान नहीं हुई। तब वह बड़ा निराश हो गया और उसने शुक्राचार्य को अपना गुरु बनाया। उसने उनसे कृष्ण मंत्र ग्रहण किया। तत्पश्चात दंभ पुष्कर नामक तीर्थ में चला गया और वहां एक लाख वर्ष तक कठोर तपस्या करता रहा। उसकी इस कठोर तपस्या को देखकर सभी देवता ब्रह्माजी को अपने साथ लेकर भगवान विष्णु के पास गए।

   भगवान विष्णु के पास पहुंचकर सभी देवताओं ने उन्हें आदरपूर्वक प्रणाम किया और दंभ के भीषण तप के बारे में भी बताया। तब सारी बातें जानकर ,,,

  भगवान श्रीहरि बोले ;- हे देवताओं! मैं जानता हूं कि दंभ मेरा अनन्य भक्त है। वह अपने मन में पुत्र प्राप्ति की कामना लेकर पिछले एक लाख वर्षों से मेरी कठोर तपस्या कर रहा है। मैं अवश्य ही अपने प्रिय भक्त दंभ की इच्छापूर्ति करूंगा। आप निश्चिंत होकर अपने स्थान पर चले जाइए।

   भगवान श्रीहरि के इन वचनों को सुनकर ब्रह्माजी और देवराज इंद्र तथा सभी देवता उन्हें प्रणाम करके अपने-अपने लोकों को चले गए। तब भगवान विष्णु भी अपने भक्त दंभ को उसकी तपस्या का फल देने के लिए पुष्कर गए। वहां उन्हें अपने सामने पाकर दंभ बहुत प्रसन्न हुआ और उनके चरणों में लेटकर उन्हें प्रणाम कर उनकी स्तुति करने लगा। 

तब श्रीविष्णु बोले ;- हे दंभ ! मैं तुम्हारी इस कठोर तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। तुम अपना अभीष्ट वर मांग सकते हो। आज मैं तुम्हारी हर मनोकामना पूर्ण करूंगा।

भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर दंभ हाथ जोड़कर बोला ;- हे देव! यदि आप मुझ पर प्रसन्न है तो मुझे अपने जैसा वीर और पराक्रमी पुत्र प्रदान कीजिए । तब श्रीहरि विष्णु 'तथास्तु' कहकर वहां से अंतर्धान हो गए। इसके बाद दंभ भी प्रसन्नतापूर्वक अपने घर लौट आया। कुछ समय पश्चात दंभ की पत्नी गर्भवती हुई। तब दंभ के घर में एक अलौकिक तेज विद्यमान था। समय आने पर दंभ की पत्नी के गर्भ से एक पुत्र का जन्म हुआ। मुनियों ने उसका नामकरण संस्कार करके उसका नाम शंखचूड़ रखा।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

अठ्ठाईसवाँ अध्याय 

"शंखचूड़ का विवाह"

सनत्कुमार जी बोले ;– हे महर्षे! भगवान श्रीहरि विष्णु के वरदान के फलस्वरूप दंभ को एक वीर पराक्रमी पुत्र की प्राप्ति हुई, जिसका नाम शंखचूड़ रखा गया। शंखचूड़ भी धार्मिक था। अपने परम पूज्य गुरु के अमृत वचनों का शंखचूड़ के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा और वह पुष्कर नामक तीर्थ में जाकर एकाग्र मन से तपस्या करने लगा। उसने अपनी इंद्रियों को अपने वश में कर लिया और अनेकानेक मंत्रों द्वारा ब्रह्माजी की साधना करने लगा। उसकी भक्तिभाव से की गई आराधना से शीघ्र ही ब्रह्माजी प्रसन्न हो गए।

    एक दिन जब शंखचूड़ प्रतिदिन की भांति तपस्या में मग्न था, ब्रह्माजी उसके सामने प्रकट हो गए। अपने आराध्य को एकाएक अपने सामने इस प्रकार खड़ा देखकर शंखचूड़ की प्रसन्नता की कोई सीमा न रही। वह ब्रह्माजी के चरणों में लेट गया और उनके पैरों पर अपना सिर रखकर उनकी स्तुति करने लगा। 

ब्रह्माजी ने शंखचूड़ को ऊपर उठाया और उससे कहा ;- हे वत्स! मैं तुम्हारी आराधना से बहुत प्रसन्न हूं। तुम जो चाहो मुझसे वरदान मांग सकते हो। मैं तुम्हारी सभी कामनाएं पूरी करूंगा।

अपने आराध्य ब्रह्माजी के ये वचन सुनकर शंखचूड़ बोला ;- हे ब्रह्माजी ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह वरदान दीजिए कि मुझे कोई भी जीत न सके। शंखचूड़ के इस वर को सुनकर ब्रह्माजी बोले- ऐसा ही होगा और फिर उसे भगवान श्रीकृष्ण का अक्षय कवच देते हुए वे कहने लगे कि शंखचूड़ अब तुम बद्रिकाश्रम चले जाओ। वहां सकामा तुलसी तपस्या कर रही है। तुम वहां जाकर धर्मराज की कन्या तुलसी से विवाह कर लो। यह कहकर ब्रह्माजी वहां से अंतर्धान हो गए। ब्रह्माजी के अंतर्धान होने पर शंखचूड़ बद्रिकाश्रम की ओर चल दिया। वहां जाकर वह तुलसी के पास पहुंचा। 

शंखचूड़ को अपने सामने खड़ा देखकर वह बोली ;- मैं धर्मराज की पुत्री तुलसी हूं। आप कौन हैं और यहां किसलिए आए हैं। कृपया आप यहां से चले जाएं। आप शायद नहीं जानते कि स्त्री जाति मोहिनी होती है।

तुलसी के वचन सुनकर शंखचूड़ बोला ;- हे देवी! आपके वचन सत्य हैं परंतु यहां मैं अपने आराध्य भगवान ब्रह्माजी की आज्ञा से आया हूं। मैं दनु का वंशज, दानव दंभ का पुत्र शंखचूड़ हूं। पूर्व में राधिका के दिए शाप के कारण मैं दानव कुल में जन्मा हूं। यह सब कहकर शंखचूड़ चुप हो गया।

तब तुलसी बोली ;- यह सत्य है कि इस संसार में वही पुरुष श्रेष्ठ है जो स्त्री से पराजित हो जाते हैं परंतु आज मैं भी तुम्हारी स्पष्टवादिता से अत्यंत प्रभावित हुई हूं। जब इस प्रकार शंखचूड़ और तुलसी आपस में बातें कर रहे थे तभी वहां ब्रह्माजी प्रकट हो गए। उन्हें देखकर, तुलसी और शंखचूड़ दोनों ने उन्हें प्रणाम किया। तुम दोनों यहां अभी तक बातें ही कर रहे हो? शंखचूड़! मैंने तुम्हें यहां तुलसी का पाणिग्रहण करने के लिए भेजा था। तुम निश्चय ही पुरुषों में श्रेष्ठ हो और तुलसी निःसंदेह ही स्त्रियों में रत्न है। तुम दोनों एक-दूसरे के लिए ही बने हो। इसलिए तुम्हें शीघ्र ही एक-दूसरे का हो जाना चाहिए।

शंखचूड़ और तुलसी को विवाह करने के लिए कहकर ब्रह्माजी वहां से चले गए। ब्रह्माजी का आदेश मानते हुए तुलसी और शंखचूड़ ने गंधर्व रीति से विवाह कर लिया। तत्पश्चात वे दोनों अनेक सुंदर मनोरम स्थानों पर अनेकों वर्षों तक विहार करते रहे। एक-दूसरे का साथ पाकर वे बहुत प्रसन्न थे।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

उन्तीसवाँ अध्याय 

"शंखचूड़ के राज्य की प्रशंसा"

व्यास जी बोले ;- हे ब्रह्माजी के पुत्र सनत्कुमार जी! जब संसार के सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी की आज्ञा से तुलसी और शंखचूड़ ने गंधर्व रीति से विवाह कर लिया, तब फिर क्या हुआ? उन दोनों ने क्या किया?

व्यास जी के इस प्रकार के प्रश्न सुनकर सनत्कुमार जी बोले ;- हे महामुने! शंखचूड़ और देवी तुलसी ने ब्रह्माजी की आज्ञा से विवाह कर लिया और वह उसे अपने साथ लेकर अपने घर वापिस आ गया। जब दानवों को इस बात की सूचना मिली कि शंखचूड़ को ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त हुआ है तो वे सभी बहुत प्रसन्न हुए। दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने स्वयं वहां आकर शंखचूड़ को ढेरों आशीर्वाद प्रदान किए। तत्पश्चात उन्होंने शंखचूड़ को असुरों का आधिपत्य देते हुए उसका राज्याभिषेक कराया। राजसिंहासन संभालने के पश्चात शंखचूड़ बहुत प्रसन्न था  तब,, 

शुक्राचार्य बोले ;- हे असुरराज! शंखचूड़ ! तुम निःसंदेह ही वीर और पराक्रमी हो । तुम्हें आज असुरों का राज्य सौंपकर मुझे बहुत हर्ष हो रहा है। अब इस राज्य का विस्तार करना और असुरों की रक्षा करने का दायित्व तुम्हारा है। मुझे तुम्हारी प्रतिभा पर पूरा विश्वास है।

      यह कहकर दैत्यगुरु शुक्राचार्य वहां से चले गए। उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर शंखचूड़ राज्य करने लगा। उसने अपने राज्य का विस्तार करने के उद्देश्य से अपनी विशाल सेना को इंद्रलोक पर आक्रमण करने का आदेश दे दिया। वह स्वयं भी उस युद्ध में जा खड़ा हुआ। असुरों और देवताओं में बड़ा भयानक युद्ध शुरू हो गया। देवताओं ने अनेक असुरों को मार गिराया, अनेकों को घायल कर दिया। यह देखकर असुर सेना विचलित होकर इधर-उधर भागने लगी। इसे देखकर असुरराज शंखचूड़ का क्रोध सातवें आसमान पर जा पहुंचा। अपनी पूरी शक्ति से युद्ध करते हुए उसने देव सेना को खदेड़ दिया।

   दैत्यराज शंखचूड़ से डरकर देव सेना तितर-बितर हो गई और अपने प्राणों की रक्षा के लिए गुफाओं और कंदराओं में जाकर छुप गई। महाबली, वीर प्रतापी शंखचूड़ ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया और स्वर्ग के सिंहासन पर विराजमान हो गया। सूर्य, अग्नि, चंद्रमा, कुबेर, यम, वायु आदि सभी देवता शंखचूड़ के अधीन हो गए। अनेक देवता शंखचूड़ के डर से भाग निकले। जो देवता वहां से भाग निकले थे वे अपने प्राणों की रक्षा के लिए इधर-उधर मारे-मारे फिर रहे थे। जब उन्हें यह समझ नहीं आया कि अब वे क्या करें और कहां जाएं, तब वे सब देवता मिलकर ऋषि-मुनियों को साथ लेकर ब्रह्माजी की शरण में गए।

    ब्रह्माजी के पास पहुंचकर देवताओं ने उन्हें प्रणाम कर उनकी स्तुति की। तत्पश्चात उन्होंने शंखचूड़ के आक्रमण और स्वर्ग पर उसके आधिपत्य के बारे में सबकुछ ब्रह्माजी को बता दिया। ब्रह्माजी ने आश्वासन देते हुए कहा कि इस विषय में भगवान विष्णु ही हमें कोई सही मार्ग बता सकते हैं। अतः हम सभी को उनके पास चलना चाहिए। यह कहकर वे सब श्रीहरि से मिलने के लिए बैकुण्ठलोक को चल दिए ।

     बैकुण्ठलोक पहुंचकर देवराज इंद्र और ब्रह्माजी सहित सभी देवताओं ने लक्ष्मीपति विष्णुजी की स्तुति की और उन्हें सारी बातों से अवगत कराया। 

देवताओं का दुख सुनकर विष्णुजी ने उन्हें ढाढ़स बंधाते हुए कहा ;- हे देवताओ! आप इस प्रकार दुखी न हों। मैं शंखचूड़ के बारे में सभी कुछ जानता हूं। पहले वह मेरा अनन्य भक्त था। इस बारे में हमें देवाधिदेव महादेव जी से विचार-विमर्श करना चाहिए क्योंकि वे ही इस समस्या का सही समाधान बता सकते हैं। यह कहकर वे ब्रह्माजी और अन्य देवताओं को अपने साथ लेकर शिवलोक की ओर चल दिए।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

तीसवाँ अध्याय 

"देवताओं का शिवजी के पास जाना"

सनत्कुमार जी बोले ;- हे व्यास जी ! इस प्रकार ब्रह्माजी और अन्य देवताओं को अपने साथ लेकर विष्णुजी भगवान शिव से मिलने के लिए शिवलोक पहुंचे। वहां शिवलोक में भगवान शिव के सभी गण उन्हें घेरकर खड़े हुए थे। भगवान शिव अपनी प्रिय देवी पार्वती के साथ सिंहासन पर बैठे हुए थे। भगवान शिव ने अपने शरीर पर भस्म धारण की हुई थी । उनके गले में रुद्राक्ष की माला थी । त्रिनेत्रधारी भगवान शिव-शंकर देवी पार्वती के साथ बैठे वहां अद्भुत शोभा पा रहे थे।

उनका वह अद्भुत और दिव्य रूप देखकर भगवान विष्णु, ब्रह्माजी, देवराज इंद्र सहित अन्य सभी देवताओं को बहुत प्रसन्नता हुई। उन्होंने देवाधिदेव, कृपानिधान भगवान शिव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति करनी आरंभ कर दी ।

देवता बोले ;– हे करुणानिधान! हे भक्तवत्सल भगवान शिव ! आप सर्वेश्वर हैं। आप परम - ज्ञानी हैं। आप सबकुछ जानने वाले हैं। प्रभु! आपकी आज्ञा से ही इस संसार में हर कार्य होता है। आपकी आज्ञा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता । भगवन्! आप तो सबकुछ जानते हैं। हे भक्तवत्सल ! आप सदा ही अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और उनकी सभी इच्छाओं को पूरा कर उनके अभीष्ट कार्यों को पूरा करते हैं। भगवन्! हम इस समय बड़े दुखी होकर अपने प्राणों की रक्षा के लिए आपकी शरण में आए हैं। दानवराज दंभ के पुत्र शंखचूड़ ने बलपूर्वक हमारे राज्य पर अपना अधिकार कर लिया है। उसने अनेक देवताओं को अपना बंदी बना लिया है और देवसेना को घायल कर कइयों को मौत के घाट उतार दिया है। किसी तरह हम अपनी जान बचाकर वहां से भाग निकले हैं। भगवन्! आप अपने भक्तों के रक्षक हैं। हम आपकी शरण में आए हैं। आप हम दुखियों के दुखों को दूर कीजिए उस शंखचूड़ नामक दैत्य ने हमारा जीना मुश्किल कर दिया है। आप उसको दण्ड देकर हमें मुक्त कराइए और हमारा उद्धार कीजिए। यह कहकर सब देवता चुप होकर हाथ जोड़कर खड़े हो गए।


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