।। ॐ नमः शिवाय ।।
शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर
【श्रीरुद्र संहिता】
【तृतीय खण्ड】
छब्बीसवाँ अध्याय
"पार्वती को शिवजी से दूर रहने का आदेश"
पार्वती बोलीं ;- हे जटाधारी मुनि! मेरी सखी ने जो कुछ भी आपको बताया है, वह बिलकुल सत्य है। मैंने मन, वाणी और क्रिया से भगवान शिव को ही पति रूप में वरण किया है। मैं जानती हूं कि महादेव जी को पति रूप प्राप्त करना बहुत ही दुर्लभ कार्य है। फिर भी मेरे हृदय में और मेरे ध्यान में सदैव वे ही निवास करते हैं। अतः उन्हीं की प्राप्ति के लिए ही मैंने इस तपस्या के कठिन मार्ग को चुना है। यह सब ब्राह्मण को बताकर देवी पार्वती चुप हो गईं।
उनकी बातों को सुनकर ब्राह्मण देवता बोले ;- हे देवी! अभी कुछ समय पूर्व तक मेरे मन में यह जानने की प्रबल इच्छा थी कि क्यों आप कठोर तपस्या कर रही हैं परंतु देवी आपके मुख से यह सब सुनकर मेरी जिज्ञासा पूरी तरह शांत हो गई है। देवी आपके किए गए कार्य के अनुरूप ही इसका परिणाम होगा परंतु यदि यह तुम्हें सुख देता है तो यही करो। यह कहकर ब्राह्मण जैसे ही जाने के लिए उठे वैसे ही देवी पार्वती उन्हें प्रणाम करके बोली- हे विप्रवर! आप कहां जा रहे हैं? कृपया यहां कुछ देर और ठहरिए और मेरे हित की बात कहिए।
देवी पार्वती के ये वचन सुनकर साधु का वेश धारण किए हुए भगवान शिव वहीं ठहर गए और बोले ;– हे देवी! यदि आप वाकई मुझे यहां रोककर मुझसे अपने हित की बात सुनना चाहती हैं तो मैं आपको अवश्य ही समझाऊंगा, जिससे आपको अपने हित का स्वयं ज्ञान हो जाएगा। देवी! मैं स्वयं भी महादेव जी का भक्त हूं। इसलिए उन्हें अच्छी प्रकार से जानता हूं । जिन भगवान शिव को आप अपना पति बनाना चाहती हैं वे प्रभु शिव शंकर सदैव अपने शरीर पर भस्म धारण किए रहते हैं। उनके सिर पर जटाएं हैं। शरीर पर वस्त्रों के स्थान पर वे बाघ की खाल पहनते हैं और चादर के स्थान पर वे हाथी की खाल ओढ़ते हैं। हाथ में भीख मांगने के लिए कटोरे के स्थान पर खोपड़ी का प्रयोग करते हैं। सांपों के अनेक झुंड उनके शरीर पर सदा लिपटे रहते हैं। जहर को वे पानी की भांति पीते हैं। उनके नेत्र लाल रंग के और अत्यंत डरावने लगते हैं। उनका जन्म कब, कहां और किससे हुआ, यह आज तक भी कोई नहीं जानता। वे घर-गृहस्थी के बंधनों से सदा ही दूर रहते हैं। उनकी दस भुजाएं हैं। देवी! मैं यह नहीं समझ पाता हूं कि शिवजी को अपना पति क्यों बनाना चाहती हो। आपका विवेक कहां चला गया है? प्रजापति दक्ष ने अपनी पुत्री सती को सिर्फ इसीलिए ही अपने यज्ञ में नहीं बुलाया, क्योंकि वे कपालधारी भिक्षुक की भार्या हैं। उन्होंने अपने यज्ञ में शिव के अतिरिक्त सभी देवताओं को भाग दिया। इसी अपमान से क्रोधित होकर सती ने अपने प्राणों को त्याग दिया था।
देवी आप अत्यंत सुंदर एवं स्त्रियों में रत्न स्वरूप हैं। आपके पिता गिरिराज हिमालय समस्त पर्वतों के राजा हैं। फिर क्यों आप इस उग्र तपस्या द्वारा भगवान शिव को पति रूप में पाने का प्रयास कर रही हैं। क्यों आप सोने की मुद्रा के बदले कांच को खरीदना चाहती हैं? सुगंधित चंदन को छोड़कर अपने शरीर पर कीचड़ क्यों मलना चाहती हैं? सूर्य के तेज को छोड़कर क्यों जुगनू की चमक पाना चाहती हैं? सुंदर, मुलायम वस्त्रों को त्यागकर क्यों चमड़े से अपने शरीर को ढंकना चाहती हैं? क्यों राजमहल को छोड़कर वनों और जंगलों में भटकना चाहती हैं? आपकी बुद्धि को क्या हो गया है जो आप देवराज इंद्र एवं अन्य देवताओं को, जो कि रत्नों के भंडार के समान हैं, छोड़कर लोहे को अर्थात शिवजी को पाने की इच्छा करती हैं। सच तो यह है कि इस समय मुझे आपके साथ शिवजी का संबंध परस्पर विरुद्ध दिखाई दे रहा है। कहां आप और कहां महादेव जी? आप चंद्रमुखी हैं तो शिवजी पंचमुखी, आपके नेत्र कमलदल के समान हैं तो शिवजी के तीन नेत्र सदैव क्रोधित दृष्टि ही डालते हैं। आपके केश अत्यंत सुंदर हैं, जो कि काली घटाओं के समान प्रतीत होते हैं वहीं भगवान शिव के सिर के जटाजूट के विषय में सभी जानते हैं। आप सुंदर कोमल साड़ी धारण करती हैं तो शिवजी कठोर हाथी की खाल का उपयोग करते हैं। आप अपने शरीर पर चंदन का लेप करती हैं तो वे हमेशा अपने शरीर पर चिता की भस्म लगाए रखते हैं। आप अपनी शोभा बढ़ाने हेतु दिव्य आभूषण धारण करती हैं, तो शिवजी के शरीर पर सदैव सर्प लिपटे रहते हैं। कहां मृदंग की मधुर ध्वनि, कहां डमरू की डमडम ? देवी पार्वती! महादेव जी सदा भूतों की दी हुई बलि को स्वीकार करते हैं। उनका यह रूप इस योग्य नहीं है कि उन्हें अपना सर्वांग सौंपा जा सके। देवी! आप परम सुंदरी हैं। आपका यह अद्भुत और उत्तम रूप शिवजी के योग्य नहीं हैं। आप ही सोचें– यदि उनके पास धन होता तो क्या वे इस तरह नंगे रहते? सवारी के नाम पर उनके पास एक पुराना बैल है। कन्या के लिए योग्य वर ढूंढ़ते समय वर की जिन-जिन विशेषताओं और गुणों को देखा-परखा जाता है, शिवजी में वह कोई भी गुण मौजूद नहीं है। और तो और आपके प्रिय कामदेव जी को भी उन्होंने अपनी क्रोधाग्नि से भस्म कर दिया था। साथ ही उस समय आपको छोड़कर चले जाना आपका अनादर करना ही था। हे देवी! उनकी जात-पात, ज्ञान और विद्या के बारे में सभी अनजान हैं । पिशाच ही उनके सहायक हैं। उनके गले में विष दिखाई देता है। वे सदैव सबसे अलग-थलग रहते हैं।
इसलिए आपको भगवान शिव के साथ अपने मन को कदापि नहीं जोड़ना चाहिए । आपके और उनके रूप और सभी गुण अलग-अलग हैं, जो कि परस्पर एक-दूसरे के विरोधी जान पड़ते हैं। इसी कारण मुझे आपका और महादेव जी का संबंध रुचिकर नहीं लगता है। फिर भी जो आपकी इच्छा हो, वैसा ही करो। वैसे मैं तो यह चाहता हूं कि आप असत की ओर से अपना मन हटा लें। यदि यह सब नहीं करना चाहती हैं तो आपकी इच्छा। जो चाहो करो। अब मुझे और कुछ नहीं कहना है ।
उन ब्राह्मण मुनि की बातों को सुनकर देवी पार्वती बहुत दुखी हुईं। अपने प्राणप्रिय त्रिलोकीनाथ शिव के विषय में कठोर शब्दों को सुनकर उन्हें बहुत बुरा लगा। वे मन ही मन क्रोधित हो गईं। लेकिन मन ही मन यह भी सोच रही थीं कि शिव के सौंदर्य को स्थूलदृष्टि से देखने-परखने का प्रयास करने वाले कैसे जान सकते हैं। संसारी व्यक्ति मंगल-अमंगल को अपने सुख के साथ जोड़कर देखता है, वह सत्य को कहां देख पाता है। इस तरह विवेक द्वारा अपने मन को समझा-बुझाकर अपने को संयत करते हुए देवी पार्वती कहने लगीं।
【श्रीरुद्र संहिता】
【तृतीय खण्ड】
सत्ताईसवाँ अध्याय
"पार्वती जी का क्रोध से ब्राह्मण को फटकारना"
पार्वती बोलीं ;- हे ब्राह्मण देवता! मैं तो आपको परमज्ञानी महात्मा समझ रही थी परंतु आपका भेद मेरे सामने पूर्णतः खुल चुका है। आपने शिवजी के विषय में मुझे जो कुछ भी बताया है वह मुझे पहले से ही ज्ञात है पर यह सब बातें सर्वथा झूठ हैं। इनमें सत्य कुछ भी नहीं है। आपने तो कहा था कि आप शिवजी को अच्छी प्रकार से जानते हैं। आपकी बातें सुनकर लगता है कि आप झूठ बोल रहे हैं क्योंकि ज्ञानी मनुष्य कभी भी त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के विषय में कोई भी अप्रिय बात नहीं कहते हैं। यह सही है कि लीलावश शिवजी कभी-कभी अद्भुत वेष धारण कर लेते हैं परंतु सच्चाई तो यह है वे साक्षात परम ब्रह्म हैं। वे ही परमात्मा हैं। उन्होंने स्वेच्छा से ऐसा वेष धारण किया है । हे ब्राह्मण! आप कौन हैं? जो ब्राह्मण का रूप धरकर मुझे छलने के लिए यहां आए हैं। आप ऐसी अनुचित व असंगत बातें करके एवं तर्क-वितर्क करके क्या साबित करना चाहते हैं? मैं भगवान शिव के स्वरूप को भली-भांति जानती हूं। वास्तव में शिवजी निर्गुण ब्रह्म हैं। समस्त गुण ही जिनका स्वरूप हों, भला उनकी जाति कैसे हो सकती है? शिवजी तो सभी विद्याओं का आधार हैं। भला, फिर उनको विद्या से क्या काम हो सकता है? पूर्वकाल में भगवान शिव ने ही श्रीहरि विष्णु को संपूर्ण वेद प्रदान किए थे। जो चराचर जगत के पिता हैं, उनके भक्तजन मृत्यु को भी जीत लेते हैं। जिनके द्वारा इस प्रकृति की उत्पत्ति हुई है, जो सभी तत्वों के आरंभ के विषय में जानते हैं, उनकी आयु का माप कैसे किया जा सकता है? भक्तवत्सल शिवजी सदा ही अपने भक्तों के वश में ही रहते हैं। वे अपने भक्तों प्रसन्न होने पर प्रभुशक्ति, उत्साहशक्ति और मंत्रशक्ति नामक अक्षय शक्तियां प्रदान करते हैं। उनके परम चरणों का ध्यान करके ही मृत्यु को जीता जा सकता है। इसलिए शिवजी को 'मृत्युंजय' नाम से जाना जाता है।
भगवान शिव की कृपा प्राप्त करके ही विष्णुजी को विष्णुत्व, ब्रह्माजी को ब्रह्मत्व और अन्य देवताओं को देवत्व की प्राप्ति हुई है। भगवान शिव महाप्रभु हैं। ऐसे कल्याणमयी भगवान शिव की आराधना करने से ऐसा कौन-सा मनोरथ है जो सिद्ध नहीं हो सकता? उनकी सेवा न करने से मनुष्य सात जन्मों तक दरिद्र होता है। वहीं दूसरी ओर उनका भक्तिपूर्वक पूजन करने से सदैव के लिए लक्ष्मी प्राप्ति होती है। भगवान शिव के समक्ष आठों सिद्धियां सिर झुकाकर इसलिए नृत्य करती हैं कि भगवान उनसे सदा संतुष्ट रहें। भला ऐसे भगवान शिव के लिए कोई भी वस्तु कैसे दुर्लभ हो सकती है? भगवान शिव का स्मरण करने से ही सबका मंगल होता है। इनकी पूजा के प्रभाव से ही उपासक की सभी कामनाएं सिद्ध हो जाती हैं। ऐसे निर्विकारी भगवान शिव में भला विकार कहां से और कैसे आ सकता है? जिस मनुष्य के मुख में सदैव 'शिव' का मंगलकारी नाम रहता है, उसके दर्शन मात्र से ही सब पवित्र हो जाते हैं। आपने कहा था कि वे अपने शरीर पर चिता की भस्म लगाते हैं। यह पूर्णतया सत्य है, परंतु उनके शरीर पर लगी हुई यह भस्म, जब जमीन पर गिरकर झड़ती है तो क्यों सभी देवता उस भस्म को अपने मस्तक पर लगाकर अपने को धन्य समझते हैं। अर्थात उनके स्पर्श मात्र से ही अपवित्र वस्तु भी पवित्र हो जाती है। भगवान शिव ही इस जगत के पालनकर्ता, सृष्टिकर्ता और संहारक हैं। भला उन्हें कैसे साधारण बुद्धि द्वारा जाना जा सकता है? उनके निर्गुण रूप को आप जैसे लोग कैसे जान सकते हैं? दुराचारी और पापी मनुष्य भगवान शिव के स्वरूप को नहीं समझ सकते। जो मनुष्य अपने अहंकार और अज्ञानता के कारण शिवतत्व की निंदा करते हैं उसके जन्म का सारा पुण्य भस्म हो जाता है। हे ब्राह्मण! आपको ज्ञानी महात्मा जानकर मैंने आपकी पूजा की है परंतु आपने शिवजी की निंदा करके अपने साथ-साथ मुझे भी पाप का भागी बना दिया है। आप घोर शिवद्रोही हैं। शास्त्रों में बताया गया है कि शिवद्रोही का दर्शन हो जाने पर शुद्धिकरण हेतु स्नान करना चाहिए तथा प्रायश्चित करना चाहिए।
यह कहकर देवी पार्वती का क्रोध और बढ़ गया और वे बोलीं ;- अरे दुष्ट! तुम तो कह रहे थे कि तुम शंकर को जानते हो, परंतु सच तो यह है कि तुम उन सनातन शिवजी को नहीं जानते हो। भगवान शिव परम ज्ञानी, सत्पुरुषों के प्रियतम व सदैव निर्विकार रहने वाले हैं। वे मेरे अभीष्ट देव हैं। ब्रह्मा और विष्णु भी सदा महादेव जी को नमन करते हैं। सारे देवताओं द्वारा शिवजी को आराध्य माना जाता काल भी सदा उनके अधीन रहता है। वे भक्तवत्सल शिवशंकर ही सर्वेश्वर हैं और हम सबके परमेश्वर हैं। वे दीन-दुखियों पर अपनी कृपादृष्टि बनाए रखते हैं। उन्हीं महादेव जी को पति के रूप में प्राप्त करने हेतु ही मैं शुद्ध हृदय से इस वन में घोर तपस्या कर रही हूं कि वे मुझे अपनी कृपादृष्टि से कृतार्थ कर मेरे मन की इच्छा पूरी करें ।
ऐसा कहकर देवी पार्वती चुप हो गईं और निर्विकार होकर पुनः शांत मन से शिवजी का ध्यान करने लगीं। उनकी बातों को सुन ब्राह्मण देवता ने जैसे ही कुछ कहना चाहा, पार्वती ने मुंह फेर लिया और अपनी सखी,,
विजया से बोलीं ;- 'सखी! इस अधम ब्राह्मण को रोको। यह बहुत देर से मेरे आराध्य प्रभु शिव की निंदा कर रहा । अब पुनः उनके ही विषय में कुछ बुरा-भला कहना चाहता है। शिव निंदा करने वाले के साथ-साथ शिव निंदा सुनने वाला भी पाप का भागी बन जाता है। अतः भगवान शिव के उपासकों को शिव निंदा करने वाले का वध कर देना चाहिए। यदि शिव-निंदा करने वाला कोई ब्राह्मण हो तो उसका त्याग कर देना चाहिए तथा उस स्थान से दूर चले जाना चाहिए।
यह दुष्ट ब्राह्मण है, अतः हम इसका वध नहीं कर सकते । इसलिए हमें इसका तुरंत त्याग कर देना चाहिए। हमें इसका मुंह भी नहीं देखना चाहिए। हम सब आज इसी समय इस स्थान को छोड़कर किसी दूसरे स्थान पर चले जाते हैं, ताकि इस अज्ञानी ब्राह्मण से पुनः हमारी भेंट न हो।
इस प्रकार कहकर देवी पार्वती ने जैसे ही कहीं और चले जाने के उद्देश्य से अपना पैर आगे बढ़ाया वैसे ही भगवान शिव अपने साक्षात रूप में उनके सामने प्रकट हो गए। देवी पार्वती ने अपने ध्यान के दौरान शिव के जिस स्वरूप का स्मरण किया था। शिवजी ने उन्हें उसी रूप के साक्षात दर्शन करा दिए। साक्षात भगवान शिव शंकर को इस तरह अनायास ही अपने सामने पाकर गिरिजानंदिनी पार्वती का सिर शर्म से झुक गया।
तब भगवान शिव देवी पार्वती से बोले ;- हे प्रिये! आप मुझे यहां अकेला छोड़कर कहां जा रही हैं? देवी! मैं आपकी इस कठोर तपस्या से अत्यंत प्रसन्न हुआ हूं। मैंने सभी देवताओं एवं ऋषि-मुनियों से आपकी तपस्या और दृढ़ निश्चय की प्रशंसा सुनी है। इसलिए आपकी परीक्षा लेने की ठानकर मैं आपके सामने चला आया हूं। अब आप मुझसे कुछ भी मांग सकती हैं क्योंकि मैं जान चुका हूं आप अप्रतिम सौंदर्य की प्रतिमा होने के साथ-साथ ज्ञान, बुद्धि और विवेक का अनूठा संगम हैं। आज आपने अपने उत्तम भक्ति भाव से मुझे अपना खरीदा हुआ दास बना दिया है। सुस्थिर चित्त वाली देवी गिरिजा मैं जान गया हूं कि आप ही मेरी सनातन पत्नी हैं। मैंने अनेकों प्रकार से बार-बार आपकी परीक्षा ली है। हे देवी! मेरे इस अपराध को आप क्षमा कर दें। हे शिवे ! इन तीनों लोकों में आपके समान अनुरागिणी कोई न है, न थी और न ही कभी हो सकती है। मैं आपके अधीन हूं। देवी! आपने मुझे पति बनाने का उद्देश्य मन में लेकर ही यह कठिन तपस्या की है। अतः आपकी इस इच्छा को पूरा करना मेरा धर्म है। देवी मैं शीघ्र ही आपका पाणिग्रहण कर आपको अपने साथ कैलाश पर्वत पर ले जाऊंगा।
देवाधिदेव महादेव जी के इन वचनों को सुनकर गिरिजानंदिनी पार्वती के आनंद की कोई सीमा नहीं रही। वे अत्यंत प्रसन्न हुईं। हर्षातिरेक से उनका तपस्या करते हुए सारा कष्ट पल में ही दूर हो गया। उनकी सारी थकावट तुरंत ही दूर हो गई। पार्वती अपनी तपस्या की सफलता और त्रिलोकीनाथ भक्तवत्सल महादेव जी के साक्षात दर्शन पाकर कृतार्थ हो गईं और उनके सभी दुख क्लेश पल भर में ही दूर हो गए।
【श्रीरुद्र संहिता】
【तृतीय खण्ड】
अठ्ठाईसवाँ अध्याय
"शिव-पार्वती संवाद"
ब्रह्माजी कहते हैं ;— नारद! परमेश्वर भगवान शिव की बातें सुनकर और उनके साक्षात स्वरूप का दर्शन पाकर देवी पार्वती को बहुत हर्ष हुआ। उनका मुख मंडल प्रसन्नता के कारण कमल दल के समान खिल उठा। उस समय वे बहुत सुख का अनुभव करने लगीं। अपने सम्मुख खड़े महादेव जी से वे इस प्रकार बोलीं- हे देवेश्वर ! आप सबके स्वामी हैं। हे प्रभो! पूर्वकाल आपने जिस प्रिया के कारण प्रजापति दक्ष के संपूर्ण यज्ञ का पलों विनाश कर दिया था, भला उसे ऐसे ही क्यों भुला दिया? हे सर्वेश्वर! हम दोनों का साथ तो जन्म-जन्मांतर का है। प्रभु ! इस समय मैं समस्त देवताओं की प्रार्थना से प्रसन्न होकर उनको तारकासुर के दुखों से मुक्ति दिलाने के लिए पर्वतों के राजा हिमालय की पत्नी देवी मैना के गर्भ से उत्पन्न हुई हूं। आपको ज्ञात ही है कि आपको पुनः पति रूप में प्राप्त करने हेतु ही मैंने यह कठोर तपस्या की है।
इसलिए देवेश! आप मुझसे विवाह कर मुझे मेरी इच्छानुसार अपनी पत्नी बना लें। भगवन् आप तो अनेक लीलाएं रचते हैं। अब आप मेरे पिता शैलराज हिमालय और मेरी माता मैना के समक्ष चलकर उनसे मेरा हाथ मांग लीजिए।
भगवन्! जब आप इन सब बातों से मेरे पिता को अवगत कराएंगे, तब वे निश्चय ही मेरा हाथ प्रसन्नतापूर्वक आपको सौंप देंगे। पूर्व जन्म में जब मैं प्रजापति दक्ष की पुत्री सती थी, उस समय मेरा और आपका विवाह हुआ था। तब मेरे पिता दक्ष ने ग्रहों की पूजा नहीं की थी। उस विवाह में ग्रहपूजन से संबंधित बहुत बड़ी त्रुटि रह गई थी। मैं यह चाहती हूं कि इस बार शास्त्रोक्त विधि से हमारा विवाह संपन्न हो। हमें विवाह से संबंधित सभी रीति-रिवाजों और रस्मों का भली-भांति पालन करना चाहिए ताकि इस बार हमारा विवाह सफल हो सके। देवेश्वर ! आप मेरे पिता हिमालय को इस संबंध में बताएं ताकि उन्हें अपनी पुत्री की तपस्या के विषय में ज्ञात हो सके।
देवी पार्वती के प्रेम और निष्ठा भरे इन शब्दों को सुनकर भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए और हंसते हुए बोले ;- हे देवी! महेश्वरी! इस संसार में हमारे आस-पास जो कुछ भी दिखाई देता है, वह सब ही नाशवान अर्थात नश्वर है। मैं निर्गुण परमात्मा हूं। मैं अपने ही प्रकाश से प्रकाशित होता हूं। मेरा अस्तित्व स्वतंत्र है। देवी आप समस्त कर्मों को करने वाली प्रकृति हैं। आप ही महामाया हैं। आपने ही मुझे इस माया-मोह के बंधनों में फंसाया है। मैंने इन सभी को धारण कर रखा है। कौन मुख्य ग्रह है? कौन ऋतु समूह हैं? हे देवी! आप और मैं दोनों ही सदैव अपने भक्तों को सुख देने के लिए ही अवतार ग्रहण करते हैं। आप सगुण और निर्गुण प्रकृति हैं। हे गिरिजे! मैं आपके पिता के पास आपका हाथ मांगने के लिए नहीं जा सकता । फिर भी आपकी इच्छा को पूरा करना मेरा कर्तव्य है। अतः आप जैसा कहेंगी मैं अवश्य करूंगा।
महादेव जी के ऐसा कहने पर देवी पार्वती अति हर्ष का अनुभव करने लगीं और शिवजी को भक्तिपूर्वक प्रणाम करके बोलीं ;- हे नाथ! आप परमात्मा हैं और मैं प्रकृति हूं। हम दोनों का अस्तित्व स्वतंत्र एवं सगुण है, फिर भी अपने भक्तों की इच्छा पूरा करना हमारा कर्तव्य है। भगवन्! मेरे पिता हिमालय से मेरा हाथ मांगकर उन्हें दाता होने का सौभाग्य प्रदान करें।
हे प्रभु! आप तो जगत में भक्तवत्सल नाम से विख्यात हैं। मैं भी तो आपकी परम भक्त हूं। क्या मेरी इच्छा को पूरा करना आपके लिए महत्वपूर्ण नहीं है? नाथ! हम दोनों जन्म-जन्म से एक-दूसरे के ही हैं। हमारा अस्तित्व एक साथ है। तभी तो आपका अर्द्धनारीश्वर रूप सभी मनुष्यों, ऋषि-मुनियों एवं देवताओं द्वारा पूज्य है। मैं आपकी पत्नी हूं। मैं जानती हूं कि आप निर्गुण, निराकार और परमब्रह्म परमेश्वर हैं। आप सदा अपने भक्तों का हित करने वाले हैं। आप अनेकों प्रकार की लीलाएं रचते हैं। भगवन्! आप सर्वज्ञ हैं। मुझ दीन पर भी अपनी कृपादृष्टि करिए और अनोखी लीला रचकर इस कार्य की सिद्धि कीजिए।
नारद! ऐसा कहकर देवी पार्वती दोनों हाथ जोड़कर और मस्तक झुकाकर खड़ी हो गईं। अपनी प्राणवल्लभा पार्वती की इच्छा का सम्मान करते हुए महादेवजी ने हिमालय से उनका हाथ मांगने हेतु अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। तत्पश्चात त्रिलोकीनाथ महादेव जी उस स्थान से अंतर्धान होकर अपने निवास कैलाश पर्वत पर चले गए । कैलाश पर्वत पर पहुंचकर शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक सारा वृत्तांत नंदीश्वर सहित अपने सभी गणों को सुनाया। यह जानकर सभी गण बहुत खुश हुए और नाचने-गाने लगे। उस समय वहां महान उत्सव होने लगा। उस समय सभी खुश थे और आनंद का वातावरण था।
【श्रीरुद्र संहिता】
【तृतीय खण्ड】
उन्नतीसवाँ अध्याय
"शिवजी द्वारा हिमालय से पार्वती को मांगना"
ब्रह्माजी बोले ;- हे महामुनि नारद! भगवान शिव के वहां से अंतर्धान हो जाने के उपरांत देवी पार्वती भी अपनी सखियों के साथ प्रसन्नतापूर्वक अपने पिता के घर की ओर चल दीं। उनके आने का शुभ समाचार सुनकर देवी मैना और हिमालय बहुत प्रसन्न हुए और तुरंत सिंहासन से उठकर देवी पार्वती से मिलने के लिए चल दिए। उनके सभी भाई भी उनकी जय-जयकार करते हुए उनसे मिलने के लिए आगे चले गए। देवी पार्वती अपने नगर के निकट पहुंचीं। वहां उन्होंने अपने माता-पिता और भाइयों को नगर के मुख्य द्वार पर अपना इंतजार करते पाया। वे अत्यंत हर्ष से विभोर होकर उनका स्वागत करने के लिए खड़े थे। पार्वती ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। हिमालय और मैना ने अपनी पुत्री को अनेकानेक आशीर्वाद देकर गले से लगा लिया। भाव विह्वल होकर उनकी आंखों से आंसू टपकने लगे। सभी उपस्थित लोगों ने उनकी मुक्त हृदय से प्रशंसा की। वे कहने लगे कि पार्वती ने उनके कुल का उद्धार किया है और अपने मनोवांछित कार्य की सिद्धि की है। इस प्रकार सभी प्रसन्न थे और उनकी प्रशंसा करते हुए नहीं थक रहे थे। लोगों ने सुगंधित पुष्पों, चंदन एवं अन्य सामग्रियों से देवी पार्वती का पूजन किया। इस शुभ बेला में उन पर स्वर्ग से देवताओं ने भी पुष्प । वर्षा की तथा उनकी स्तुति की। तत्पश्चात बहुत आदर सहित उन्हें घर की ओर जाया गया और विधि-विधान से उनका गृह प्रवेश कराया गया। ब्राह्मणों, ऋषि-मुनियों, देवताओं और प्रजाजनों ने उन्हें अनेकों शुभ व उत्तम आशीर्वाद प्रदान किए।
इस शुभ अवसर पर शैलराज हिमालय ने ब्राह्मणों एवं दीन-दुखियों को दान दिया। उन्होंने ब्राह्मणों से मंगल पाठ भी कराया। उन्होंने पधारे हुए सभी ऋषि-मुनियों, देवताओं और स्त्री पुरुषों का आदर सत्कार किया। तत्पश्चात हिमालय अपनी पत्नी मैना को साथ लेकर गंगा स्नान को चलने लगे, तभी भगवान शिव नाचने वाले नट का वेश धारण करके उनके समीप पहुंचे। उनके बाएं हाथ में सींग और दाहिने हाथ में डमरू था और पीठ पर कथरी रखी थी उन्होंने सुंदर, लाल वस्त्र पहने थे । नाचने-गाने में वे पूर्णतः मग्न थे । नट रूप धारण किए हुए शिवजी ने बहुत सुंदर नृत्य किया और अनेक प्रकार के गीत गा-गाकर सभी का मन मोह लिया। नृत्य करते समय वे बीच-बीच में शंख और डमरू भी बजा रहे थे और मनोरम लीलाएं कर रहे थे। उनकी इस प्रकार की मन को हरने वाली लीलाएं देखने के लिए पूरे नगर के स्त्री पुरुष, बच्चे-बूढ़े, वहां आ गए। नटरूपी भगवान शिव को नृत्य करते हुए देखकर और उनका गाना सुनकर सभी मंत्र मुग्ध हो गए। परंतु देवी पार्वती से भला यह कब तक छिपता? उन्होंने मन ही मन अपने प्रिय महादेव जी के साक्षात दर्शन कर लिए। शिवजी का रूप ही अलौकिक है। उन्होंने पूरे शरीर पर विभूति मल रखी थी तथा उनके शरीर पर त्रिशूल बना हुआ था। गले में हड्डियों की माला पहन रखी थी। उनका मुख सूर्य के तेज के समान शोभा पा रहा था।
उनके गले में यज्ञोपवीत के समान नाग लटका हुआ था । त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के इस सुंदर, मनोहारी स्वरूप का हृदय में दर्शन कर लेने मात्र से ही देवी पार्वती हर्षातिरेक से बेहोश हो गईं। वे जैसे उनके स्वप्न में कह रहे थे कि देवी 'अपना मनोवांछित वर मांगो।' हृदय में विराजमान इस अनोखे स्वरूप को मन ही मन प्रणाम करके पार्वती ने कहा कि भगवन्! मेरे पति बन जाइए। तब देवेश्वर ने मुस्कुराते हुए 'तथास्तु' कहा और उनके स्वप्न से अंतर्धान हो गए। जब उनकी आंखें खुलीं तो उन्होंने शिवजी को नट रूप धारण किए वहां नाचते-गाते देखा।
नट के रूप में स्वयं भक्तवत्सल भगवान शिव के नाच-गाने से प्रसन्न होकर पार्वती की माता मैना सोने की थाली में रत्न, माणिक, हीरे और सोना लेकर उन्हें भिक्षा देने के लिए आईं। उनका ऐश्वर्य देखकर शिवजी बहुत प्रसन्न हुए परंतु उन्होंने उन सुंदर रत्नों और आभूषणों को लेने से इनकार कर दिया।
वे बोले ;- देवी! भला मुझे रत्नों और आभूषणों से क्या लेना-देना। यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहती हैं तो अपनी कन्या का दान दे दीजिए । यह कहकर वे पुनः नृत्य करने लगे। उनकी बातें सुनकर देवी मैना क्रोध से उफन उठीं। वे उन्हें उसी समय वहां से निकालना चाहती थीं कि तभी गिरिराज हिमालय भी गंगा स्नान करके वापिस लौट आए। जब उनकी पत्नी मैना ने उन्हें सभी बातें बताईं तो वे भी जल्द से जल्द नट को वहां से निकालने को तैयार हो गए। उन्होंने अपने सेवकों को नट को बाहर निकालने की आज्ञा दी। परंतु यह असंभव था। वे साक्षात शिव भले ही नट का रूप धारण किए हुए थे परंतु उनका शरीर अद्भुत तेज से संपन्न था और वे परम तेजस्वी दिखाई दे रहे थे। उन्हें उठाकर निकाल फेंकना तो दूर की बात थी, उन्हें तो छूना भी कठिन था। तब उन्होंने मैना - हिमालय को अनेक प्रकार की लीलाएं रचकर दिखाईं। नट ने तुरंत ही श्रीहरि विष्णु का रूप धारण कर लिया। उनके माथे पर किरीट, कानों में कुण्डल और शरीर पर पीले वस्त्र अनोखी शोभा पा रहे थे। उनकी चार भुजाएं थीं। पूजा करते समय हिमालय और मैना ने जो पुष्प, गंध एवं अन्य वस्तुएं अर्पित की थीं वे सभी उनके शरीर और मस्तक पर शोभा पा रही थीं। यह देखकर सभी आश्चर्यचकित हो गए। तत्पश्चात नट ने जगत की रचना करने वाले ब्रह्माजी का चतुर्मुख रूप धारण कर लिया। उनका शरीर लाल रंग का था और वे वैदिक मंत्रों का उच्चारण कर रहे थे। उन सभी ने उस नट भक्तवत्सल भगवान शिव के उत्तम रूप को देखा। उनके साथ देवी पार्वती भी थीं। वे रूद्र रूप में मुस्कुरा रहे थे। उनका वह स्वरूप अत्यंत सुंदर एवं मनोहारी था। उनकी ये सुंदर लीलाएं देखकर सभी आश्चर्यचकित रह गए थे और परम आनंद का अनुभव कर रहे थे। तत्पश्चात पुनः एक बार नट रूपी शिवजी ने मैना हिमालय से उनकी पुत्री का हाथ मांगा तथा अन्य भिक्षा ग्रहण करने से इनकार कर दिया परंतु शिवजी की माया से मोहित हुए गिरिराज हिमालय ने उन्हें अपनी पुत्री सौंपने से मना कर दिया। बिना कुछ भी लिए वह नट वहां से अंतर्धान हो गया। वे सोचने लगे कि श वे स्वयं भगवान शिव ही थे, जो स्वयं यहां पधार कर हमारी कन्या का हाथ मांग रहे थे और हमें अपनी माया से छलकर अपने निवास कैलाश पर वापिस चले गए हैं। यह सोचकर हिमालय और मैना दोनों ही एक पल को बहुत प्रसन्न हुए परंतु अगले ही पल यह सोचकर उदास हो गए कि हमने स्वयं साक्षात शिवजी को, बिना कुछ दिए और उनका आदर-सम्मान किए बिना ही खाली हाथ अपने द्वार से लौटा दिया। वे अत्यंत व्याकुल हो उठे।
【श्रीरुद्र संहिता】
【तृतीय खण्ड】
तीसवाँ अध्याय
"ब्राह्मण वेष में पार्वती के घर जाना"
ब्रह्माजी बोले ;- हे नारद! गिरिराज हिमालय और देवी मैना के मन में भगवान शिव के प्रति भक्ति भाव देखकर सभी देवता आपस में विचार-विमर्श करने लगे। तब देवताओं के गुरु बृहस्पति और ब्रह्माजी से आज्ञा लेकर सभी भगवान शिव के पास कैलाश पर्वत पर गए। वहां पहुंचकर उन्होंने हाथ जोड़कर शिवजी को प्रणाम किया और उनकी अनेकानेक बार स्तुति की।
तत्पश्चात देवता बोले ;- हे देवाधिदेव! महादेव! भगवान शंकर! हम दोनों हाथ जोड़कर आपकी शरण में आए हैं। हम पर प्रसन्न होइए और हम पर अपनी कृपादृष्टि बनाइए । प्रभो! आप तो भक्तवत्सल हैं और अपने भक्तों की प्रसन्नता के लिए कार्य करते हैं। आप दीन दुखियों का उद्धार करते हैं। आप दया और करुणा के अथाह सागर हैं। आप ही अपने भक्तों को संकटों से दूर करते हैं तथा उनकी सभी विपत्तियों का विनाश करते हैं। इस प्रकार महादेव जी की अनेकों बार स्तुति करने के बाद देवताओं ने भगवान शिव को गिरिराज हिमालय और उनकी पत्नी मैना की भक्ति से अवगत कराया और आदर सहित सभी बातें उन्हें बता दीं।
तत्पश्चात भगवान शिव ने हंसते हुए उनकी सभी प्रार्थनाओं को स्वीकार कर लिया। तब अपने कार्य को सिद्ध हुआ समझकर सभी देवता प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने धाम लौट गए। जैसा कि सभी जानते हैं कि भगवान शिव को लीलाधारी कहा जाता है। वे माया के स्वामी हैं। पुनः वे शैलराज हिमालय के घर गए । उस समय राजा हिमालय अपनी पुत्री पार्वती सहित सभा भवन में बैठे हुए थे। उन्होंने ऐसा रूप धारण किया कि वे कोई ब्राह्मण अथवा साधु-संत जान पड़ते थे। उनके हाथ में दण्ड व छत्र था। शरीर पर दिव्य वस्त्र तथा माथे पर तिलक शोभा पा रहा था। उनके गले में शालग्राम तथा हाथ में स्फटिक की माला थी। वे मुक्त कंठ से हरिनाम जप रहे थे। उन्हें आया देखकर पर्वतों के राजा हिमालय तुरंत उठकर खड़े हो गए और उन्होंने ब्राह्मण को भक्तिभाव से साष्टांग प्रणाम किया। देवी पार्वती अपने प्राणेश्वर भगवान शिव को तुरंत पहचान गईं। उन्होंने उत्तम भक्तिभाव से सिर झुकाकर उनकी स्तुति की। वे मन ही मन बहुत प्रसन्न हुईं। तब ब्राह्मण रूप में पधारे भगवान शिव ने सभी को आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात हिमालय ने उन ब्राह्मण देवता की पूजा-आराधना की और उन्हें मधुपर्क आदि पूजन सामग्री भेंट की, जिसे शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किया। तत्पश्चात पार्वती के पिता हिमालय ने उनका कुशल समाचार पूछा और बोले- हे विप्रवर! आप कौन हैं?
यह प्रश्न सुनकर वे ब्राह्मण देवता बोले ;- हे गिरिश्रेष्ठ! मैं वैष्णव ब्राह्मण हूं और भूतल पर भ्रमण करता रहता हूं। मेरी गति मन के समान है। एक पल में यहां तो दूसरे पल में वहां। मैं सर्वज्ञ, परोपकारी, शुद्धात्मा हूं। मैं ज्योतिषी हूं और भाग्य की सभी बातें जानता हूं। क्या हुआ है? क्या होने वाला है? यह सबकुछ मैं जानता हूं। मुझे ज्ञात हुआ है कि आप अपनी दिव्य सुलक्षणा पुत्री पार्वती को, जो कि सुंदर एवं लक्ष्मी के समान है, आश्रय विहीन, कुरूप और गुणहीन महेश्वर शिव को सौंपना चाहते हैं। वे शिवजी तो मरघट में रहते हैं। उनके शरीर पर हर समय सांप लिपटे रहते हैं और वे अधिक समय योग और ध्यान में ही बिताते हैं। वे नंग-धड़ंग होकर ही इधर-उधर भटकते फिरते हैं। उनके पास पहनने के लिए वस्त्र भी नहीं हैं। आज कोई उनके कुल के विषय में भी नहीं जानता है। वे स्वभाव से बहुत ही उग्र हैं । बात-बात पर उन्हें क्रोध आ जाता है। वे अपने शरीर पर सदा भस्म लगाए रहते हैं। सिर पर उन्होंने जटाजूट धारण कर रखा है। ऐसे अयोग्य वर को, जिसमें अच्छा और रुचिकर कहने लायक कुछ भी नहीं है, आप क्यों अपनी पुत्री का जीवन साथी बनाना चाहते हैं?
आपका यह सोचना कि शिव ही आपकी पुत्री के योग्य हैं, सर्वथा गलत है। आप तो महान ज्ञानी हैं। आप नारायण कुल में उत्पन्न हुए हैं। भला आपकी सुंदर पुत्री को वरों की क्या कमी हो सकती है? उस परम सुंदरी से विवाह करने को अनेकों देशों के महान वीर, बलशाली, सुंदर, स्वस्थ राजा और राजकुमार सहर्ष तैयार हो जाएंगे। आप तो समृद्धिशाली हैं। आपके घर में भला किस वस्तु की कमी हो सकती है? परंतु शैलराज जहां आप अपनी पुत्री को ब्याहना चाह रहे हैं, वे बहुत निर्धन हैं। यहां तक कि उनके भाई-बंधु भी नहीं हैं। वे सर्वथा अकेले हैं। गिरिराज हिमालय! आपके पास अभी समय है। अतः आप अपने भाई-बंधुओं, पुत्रों व अपनी प्रिय पत्नी देवी मैना से इस विषय में सलाह कर लें परंतु अपनी पुत्री पार्वती से इस विषय में कोई सलाह न लें क्योंकि वे शिव के गुण-दोषों के बारे में कुछ भी नहीं जानती हैं। ऐसा कहकर ब्राह्मण देवता, जो वास्तव में साक्षात भगवान शिव ही थे, हिमालय का आदर-सत्कार ग्रहण करके आनंदपूर्वक वहां से अपने धाम को चले गए।