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शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (तृतीय खण्ड) के इकत्तीसवें अध्याय से पैंतीसवें अध्याय तक (From the thirty-first chapter to the thirty-fifth chapter of the Shiva Purana Sri Rudra Samhita (3rd volume))

 

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

इकत्तीसवाँ अध्याय 

"सप्तऋषियों का आगमन और हिमालय को समझाना"


ब्रह्माजी बोले ;- ब्राह्मण के रूप में पधारे स्वयं भगवान शिव की बातों का देवी मैना पर बहुत प्रभाव पड़ा और वे बहुत दुखी हो गईं। वे अपने पति हिमालय से कहने लगीं कि इस ब्राह्मण ने शिवजी की निंदा की है, उसे सुनकर मेरा मन बहुत खिन्न हो गया है। जब भगवान शिव का रूप और शील सभी कुत्सित हैं तथा सभी उनके विषय में बुरा ही सोचते हैं और उन्हें मेरी पुत्री के सर्वथा अयोग्य मानते हैं, तो मैं अपनी प्रिय पुत्री का हाथ कदापि उनके हाथ में नहीं दूंगी। मुझे अपनी पुत्री अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय है। यदि आपने मेरी बात नहीं मानी तो मैं इसी समय विष खा लूंगी और अपने प्राण त्याग दूंगी। साथ ही अपनी बेटी पार्वती को लेकर इस घर से चली जाऊंगी। मैं पार्वती के गले में फांसी लगा दूंगी, उसे वनों में ले जाऊंगी अथवा किसी सागर में डुबो दूंगी परंतु किसी भी हालत में उसका ब्याह पिनाकधारी शिव के साथ नहीं होने दूंगी ।

यह कहकर देवी मैना रोती हुई तुरंत कोप भवन में चली गईं और उन्होंने कीमती वस्त्रों आभूषणों का त्याग कर दिया और जमीन पर लेट गईं। जब इस विषय में भगवान शिव को जानकारी हुई तो उन्होंने सप्तऋषियों को याद किया। वे तुरंत ही वहां आ गए। तब त्रिलोकीनाथ भगवान शिव ने सप्तऋषियों को देवी मैना को समझाने की आज्ञा देकर उनके घर भेजा।

त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का आदेश मिलने पर सप्तऋषि उन्हें श्रद्धापूर्वक प्रणाम करके आकाश मार्ग से पर्वतों के राजा हिमालय के राज्य की ओर चल दिए । सप्तऋषि जब हिमालय के नगर के निकट पहुंचे तो वहां का ऐश्वर्य देखकर उसकी प्रशंसा करने लगे। वे सातों ऋषि आकाश में सूर्य के समान चमकते हुए जान पड़ते थे। उन्हें आकाश मार्ग से आता देखकर हिमालय को बहुत आश्चर्य हुआ। शैलराज सोचने लगे कि इन तेजस्वी सप्तऋषियों के आगमन से आज मेरा संपूर्ण राज्य धन्य हो गया।

तभी सूर्यतुल्य तपस्वी सप्तऋषि आकाश से उतरकर पृथ्वी पर खड़े हो गए। गिरिराज हिमालय ने दोनों हाथ जोड़कर और अपना मस्तक झुकाकर आदरपूर्वक उन्हें प्रणाम किया और उनका पूजन तथा स्तुति की। तत्पश्चात गिरिराज हिमालय ने कहा कि आज मेरा घर आपके चरणों की रज पाकर पवित्र हो गया है। मेरा जीवन आपके दर्शनों से धन्य हो गया है। फिर आदरपूर्वक हिमालय ने सप्तऋषियों को आसनों पर बैठाया। 

हिमालय बोले ;- आज मेरा जीवन सफल हो गया है। आज मेरा सम्मान इस संसार में बहुत बढ़ गया है। जिस प्रकार अनेक तीर्थों के दर्शनों को पुण्य कमाने का स्रोत माना जाता है उसी प्रकार आज मैं भी पवित्र तीर्थों के समान वंदनीय हो गया हूं। हे ऋषिगणो! आप साक्षात भगवान विष्णु के समान हैं। आपने हम दीनों के घरों की शोभा बढ़ा दी है। आज मैं स्वयं को संसार का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति मान रहा हूं। यद्यपि मैं एक तुच्छ अदना-सा मनुष्य हूं, फिर भी मेरे योग्य कोई सेवा हो तो मुझे अवश्य बताएं। आपका कार्य करके मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी।

सप्तऋषि कहने लगे ;– हे शैलराज! भगवान शिव इस संपूर्ण जगत के पिता हैं। वे निर्गुण और निराकार हैं। वे सर्वज्ञ हैं। वे ही परम ब्रह्म परमात्मा हैं और वे ही सर्वेश्वर हैं। वे ही इस जगत का आदि और अंत हैं। आप भली-भांति त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के विषय में सबकुछ जानते ही हैं। वे भक्तवत्सल हैं और सदा ही अपने भक्तों के अधीन हैं। तुम्हारी परम प्रिय पुत्री देवी पार्वती ने भगवान शिव को अपनी कठोर तपस्या से प्रसन्न करके अपना मनोवांछित वर प्राप्त कर लिया है। उन्होंने प्रभु शिव को पति रूप में पाने का वर प्राप्त किया है। जिस प्रकार भगवान शिव को इस जगत का पिता माना जाता है, उसी प्रकार शिवा जगत माता कही जाती हैं। अतः आप अपनी कन्या पार्वती का विवाह महात्मा शिव शंकर से कर दीजिए। ऐसा करके आपका जन्म सफल हो जाएगा और आप गुरुओं के भी गुरु बन जाएंगे।

सप्तऋषियों के ऐसे वचन सुनकर हिमालय बोले ;- हे महर्षियो ! मेरे अहोभाग्य हैं, जो आपने मुझे इस योग्य समझकर मुझसे यह बात कही। सच कहूं तो मेरी हार्दिक इच्छा भी यही है कि मेरी पुत्री का विवाह भगवान शिव के साथ ही हो परंतु एक परेशानी यह है कि कुछ दिनों पूर्व एक ब्राह्मणदेव हमारे घर पधारे थे। उन्होंने भक्तवत्सल भगवान शिव के विषय में अनेक उल्टी-सीधी बातें कीं। उस वैष्णव ब्राह्मण ने शिवजी की घोर निंदा की। उन्हें अमंगलकारी बताया। ये सब बातें सुनकर मेरी पत्नी देवी मैना की बुद्धि पलट गई है। उनका समस्त ज्ञान भ्रष्ट हो गया है। अब वे अपनी पुत्री पार्वती का विवाह परम योगी रुद्रदेव से कदापि नहीं करना चाहती हैं। हे सप्तऋषियो, वे जिद करके बैठीं हैं कि वे अपनी पुत्री पार्वती का विवाह भगवान शिव से नहीं करेंगी। इसलिए वे लड़-झगड़कर, सभी आभूषणों तथा राजसी वस्त्रों को त्यागकर कोप भवन में जाकर लेट गई हैं। मेरे बहुत समझाने पर भी वे कुछ नहीं समझ रही हैं। आपसे सच-सच अपने दिल की इच्छा कहूं तो उन वैष्णव ब्राह्मण की बातें सुनकर अब मैं भी नहीं चाहता कि मेरी पुत्री का विवाह शिवजी से हो।

नारद! इस प्रकार भगवान शिव की माया से मोहित होकर गिरिराज हिमालय ने ये सब बातें कहीं और यह कहकर चुप हो गए। तब सप्तऋषियों ने कोप भवन में लेटी हुई देवी मैना को समझाने के लिए देवी अरुंधती को भेजा। अपने पति की आज्ञा पाकर देवी अरुंधती उस कोप भवन में पहुंचीं, जहां देवी मैना रुष्ट होकर पृथ्वी पर लेटी हुई थीं और पार्वती उनके पास ही बैठकर उन्हें समझा रही थीं। 

साध्वी अरुंधती बड़े ही मधुर स्वर में बोलीं ;– देवी मैना! उठिए मैं अरुंधती और सप्तऋषि तुम्हारे घर पधारे हैं। देवी अरुंधती को वहां अपने कक्ष में देखकर देवी मैना उठकर बैठ गईं और साक्षात लक्ष्मी के समान उन परम तेजस्विनी को देख उनके चरणों में अपना सिर रखकर बोलीं- आज हमारे घर में ब्रह्माजी की पुत्रवधू और महर्षि वशिष्ठ की पत्नी अरुंधती सहित सप्तऋषियों ने पधार कर हमें किस पुण्य का फल दिया है? आपके आने से हमारा कुल धन्य हो गया है। मैं आपसे यह जानना चाहती हूं कि आपके इस तरह यहां आने का क्या उद्देश्य है? देवी मैना के ऐसा कहने पर देवी अरुंधती मुस्कुराईं और उन्हें समझाकर कोपभवन से बाहर उस स्थान पर ले गईं जहां सप्तऋषियों सहित गिरिराज हिमालय बैठे हुए थे। तब देवी मैना को वहां आया देखकर श्रेष्ठ और परम ज्ञानी सप्तर्षि भगवान शिव को मन में स्मरण कर समझाने लगे।

सप्तऋषि बोले ;- हे शैलराज! तुम अपनी पुत्री पार्वती का विवाह त्रिलोकीनाथ - भक्तवत्सल भगवान शिव से कर दो। वे तो सर्वेश्वर हैं, वे कभी भी किसी से याचना नहीं करते। जगत की रचना के स्रोत ब्रह्माजी ने तारकासुर को यह वरदान दिया है कि केवल शिव पुत्र के हाथों ही उसका वध होगा। इस समय तारकासुर के कारण तीनों लोकों में हाहाकार मचा हुआ है। उसने देवराज इंद्र सहित सभी देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया है। साथ ही वह निर्दोष लोगों का भी शत्रु बन बैठा है। साधुओं और ऋषि-मुनियों को यज्ञ नहीं करने देता तथा उनकी पूजा-उपासना को तारकासुर के सैनिक समय-समय पर नष्ट कर देते हैं। उन्होंने सभी के जीवन को कष्टकारी बना रखा है। इस संसार में व्याप्त बुराइयों और दुष्प्रवृत्तियों के विनाश के लिए संहारक रुद्रदेव का पुत्र ही सबसे उपयुक्त है। उस वीर और बलवान पुत्र' की प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि भगवान शिव विवाह कर लें। इसलिए ब्रह्माजी ने भगवान शिव से विवाह करने की प्रार्थना की है। यह सर्वविदित है कि भगवान शिव परम योगी हैं और विवाह के लिए उत्सुक नहीं हैं । तुम्हारी पुत्री पार्वती ने भगवान शिव की कठोर तपस्या करके शिव को अपना पति बनाने के लिए वर प्राप्त किया था। यही कारण है कि महादेवजी देवी पार्वती का पाणिग्रहण करना चाहते हैं।

सप्तऋषियों की यह बात सुनकर हिमालय विनयपूर्वक बोले ;- हे ऋषिगण! आपकी बातें सहीं हैं। परंतु जहां तक मैं जानता हूं शिवजी के पास न तो रहने के लिए घर है, न ही कोई नाते-रिश्तेदार हैं और न ही बंधु-बांधव हैं। उनके पास कोई राजपाट भी नहीं है और न ही वे ऐश्वर्य और विलासिता का जीवन ही जीते हैं। आप वेद विधाता ब्रह्माजी के पुत्र हैं। इसलिए मैं आपका आदर और सम्मान करता हूं। आप परम ज्ञानी हैं और यह जानते हैं कि जो पिता काम, मोह, भय अथवा लोभ के कारण अपनी कन्या का विवाह अयोग्य वर से कर देते हैं वे मरने के बाद नरक के भागी होते हैं। इसलिए मैं कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहता, जिससे मैं नरक का भागी बनूं। मैं अपनी प्रिय पुत्री पार्वती का विवाह स्वेच्छा से कभी भी शूलपाणि शिव के साथ नहीं करूंगा। यही मेरा और मेरी पत्नी मैना दोनों का फैसला है। हे महर्षियो । आप परम ज्ञानी और समझदार हैं। इसलिए हमारे लिए उचित विधान को बताकर हमें कृतार्थ करें।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

बत्तीसवाँ अध्याय 

"वशिष्ठ मुनि का उपदेश"


ब्रह्माजी बोले ;– हे नारद! हिमालय के कहे वचनों को सुनकर महर्षि वशिष्ठ बोले ;– हे शैलराज! भगवान शंकर इस संपूर्ण जगत के पिता हैं और देवी पार्वती इस जगत की जननी हैं। शास्त्रों की जानकारी रखने वाला उत्तम मनुष्य वेदों में बताए गए तीन प्रकार के वचनों को जानता है। पहला वचन सुनते ही बड़ा प्रिय लगता है परंतु वास्तविकता में वह असत्य व अहितकारी होता है। इस प्रकार का कथन हमारा शत्रु ही कह सकता है। दूसरा वचन सुनने में अच्छा नहीं लगता परंतु उसका परिणाम सुखकारी होता है। तीसरा वचन सुनने में अमृत के समान लगता है तथा वह परिणामतः हित करने वाला होता है। इस प्रकार नीति शास्त्र में किसी बात को कहने के तीन प्रकार बताए गए हैं। आप इन तीनों प्रकार में किस तरह का वचन सुनना चाहते हैं? मैं आपकी इच्छानुसार ही बात करूंगा। भगवान शंकर सभी देवताओं के स्वामी हैं, उनके पास दिखावटी संपत्ति नहीं है। वे महान योगी हैं और सदैव ज्ञान के महासागर में डूबे रहते हैं। वे ही सबके ईश्वर हैं। गृहस्थ पुरुष राज्य और संपत्ति के स्वामी मनुष्य को ही अपनी पुत्री का वर चुनता है। ऐसा न करके यदि वह किसी दीन-हीन को अपनी कन्या ब्याह दे तो उसे कन्या के वध का पाप लगता है।

शैलराज! आप शिव स्वरूप को जानते ही नहीं हैं। धनपति कुबेर आपका सेवक है। कुबेर को यहां धन की कौन-सी कमी है? जो स्वयं सारे संसार की उत्पत्ति, पालन और संहार करते हैं, उन्हें भोजन की भला क्या कमी हो सकती है? ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रदेव सभी भगवान शिव का ही रूप हैं। शिवजी से प्रकट हुई प्रकृति अपने अंश से तीन प्रकार की मूर्तियों को धारण करती है। उन्होंने मुख से सरस्वती, वक्ष स्थल से लक्ष्मी एवं अपने तेज से पार्वती को प्रकट किया है। भला उन्हें दुख कैसे हो सकता है? तुम्हारी कन्या तो कल्प-कल्प में उनकी पत्नी होती रही है एवं होती रहेगी। अपनी कन्या सदाशिव अर्पण कर दो। तुम्हारी कन्या के तपस्या करते समय देवताओं की प्रार्थना पर सदाशिव तुम्हारी कन्या के समीप पहुंचकर, उन्हें उनका मनोवांछित वर प्रदान कर चुके हैं। तुम्हारी पुत्री पार्वती के कहे अनुसार शिवजी तुमसे तुम्हारी कन्या का हाथ मांगने के लिए तुम्हारे घर दो बार पधारे थे पर तुम उन्हें नहीं पहचान सके। वे नटराज और ब्राह्मण वेशधारी शिव ही थे जो तुम्हारी कन्या का हाथ मांगने आए थे पर तुमने मना कर दिया। यह तुम्हारा दुर्भाग्य नहीं है तो क्या है?

अब यदि तुमने प्रेम से शिवजी को अपनी कन्या का दान न किया तो भगवान शंकर बलपूर्वक ही तुम्हारी कन्या से विवाह कर लेंगे। शैलेंद्र! यह बात अगर आप ठीक से नहीं समझेंगे तो आपका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। आपको शायद ज्ञात नहीं है कि पूर्व में देवी शिवा ने ही प्रजापति दक्ष की पत्नी के गर्भ से जन्म लिया था और सती के नाम से प्रसिद्ध हुई थीं। उन्होंने कठोर तपस्या करके भक्तवत्सल भगवान शिव को वरदान स्वरूप पति के रूप में प्राप्त किया था परंतु अपने पिता दक्ष द्वारा आयोजित महान यज्ञ में अपने पति त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की अवहेलना एवं निंदा होते देखकर उन्होंने स्वेच्छा से अपने शरीर को त्याग दिया था। वही साक्षात जगदंबा इस समय आपकी पत्नी मैना के गर्भ से प्रकट हुई हैं और कल्याणमयी भगवान शिव को जन्म-जन्मांतर की भांति पति रूप में पाना चाहती हैं। अतः गिरिराज हिमालय, आप स्वयं अपनी इच्छा से अपनी पुत्री का हाथ महादेव जी के हाथों में सौंप दीजिए। इन दोनों का साथ इस जगत के लिए मंगलकारी है।

शैलराज! यदि आप स्वेच्छा से शिवजी व देवी पार्वती का विवाह नहीं करेंगे तो पार्वती स्वयं अपने आराध्य भगवान शिव के धाम कैलाश पर्वत चली जाएंगी। आपकी प्रिय पुत्री पार्वती की इच्छा का सम्मान करते हुए ही भगवान शिव स्वयं आपसे पार्वती का हाथ मांगने के लिए वेश बदलकर आपके घर आए थे परंतु आपने उनको नहीं पहचाना और अपनी कन्या देने से इनकार कर दिया। आपके शिखर पर तपस्या के लिए पधारे भगवान शिव की देवी पार्वती ने जब सेवा की थी तो आप भी उनके इस निर्णय में उनके साथ थे। आपकी आज्ञा प्राप्त करके ही देवी पार्वती भगवान शिव को पति रूप में पाने की इच्छा लेकर तपस्या करने हेतु वन में गई थीं। उनके इस प्रण और कार्य को आपने सराहा था। फिर आज ऐसा क्या हो गया कि आप अपने ही वचनों से पीछे हट रहे हैं ।

भगवान शिव ने देवताओं की प्रार्थना स्वीकार करके हम सप्तऋषियों को और देवी अरुंधती को आपके पास भेजा है। इसलिए हम आपको यह समझाने आए हैं कि आप पार्वती जी का हाथ भगवान शिव के हाथों में दे दें। ऐसा करके आपको बहुत आनंद मिलेगा। भगवान शिव ने तपस्या के पश्चात प्रसन्न होकर देवी पार्वती को यह वरदान दिया है कि वे उनकी पत्नी हों। भगवान शिव परमेश्वर हैं। उनकी वाणी कदापि असत्य नहीं हो सकती। उनका वरदान अवश्य सत्य सिद्ध होगा। इसलिए हम सप्तऋषि आपसे यह अनुरोध कर रहे हैं कि आप इस विवाह हेतु प्रसन्नतापूर्वक अपनी स्वीकृति प्रदान करें। ऐसा करके आप अपने परिवार का ही नहीं समस्त मानवों और देवताओं का कल्याण करेंगे।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

तेंतीसवाँ अध्याय 

"अनरण्य राजा की कथा"


ब्रह्माजी बोले ;- हे नारद! कुल की रक्षा करने के लिए किसी एक का त्याग कर देना ही नीति शास्त्र कहलाता है। जिस प्रकार राजा अनरण्य ने अपने राज-पाट, संपत्ति और अपने परिवार की रक्षा के लिए अपनी पुत्री का विवाह एक ब्राह्मण से कर दिया था। इसी प्रकार लोक कल्याण के लिए आपको भी स्वीकृति दे ही देनी चाहिए। राजा अनरण्य के बारे में सुनकर शैलराज हिमालय ने पूछा- हे महर्षि! मैं राजा अनरण्य की कथा सुनना चाहता हूं। गिरिराज हिमालय के ऐसे वचन सुनकर मुनि वशिष्ठ बोले"

हे पर्वतराज! महाराजा मनु की चौदहवीं संतान इंद्रासावर्णि के वंश में ही राजा अनरण्य का जन्म हुआ था। वे भगवान शिव के परम भक्त थे। सातों द्वीपों पर उनका राज था। राजा अनरण्य ने भृगु मुनि को अपना आचार्य बनाकर सौ यज्ञ पूर्ण कराए थे। राजा अनरण्य की पांच रानियां, सौ पुत्र व एक साक्षात लक्ष्मीस्वरूपा परम सुंदरी कन्या थी, जिसका नाम पद्मा था। पद्मा इकलौती पुत्री होने के कारण बहुत लाडली थी। राजा अनरण्य और उनकी पांचों रानियां पद्मा को बहुत प्यार करते थे। राजा बहुत ही सरल, न्यायप्रिय व उदार थे। देवताओं द्वारा स्वर्ग का सिंहासन दिए जाने पर उन्होंने उसे ग्रहण करने से इनकार कर दिया था।

जब राजा अनरण्य की प्रिय पुत्री पद्मा विवाह के योग्य हुई तो राजा अनरण्य को उसके विवाह की चिंता सताने लगी। पद्मा के लिए योग्य वर की खोज शुरू हो गई। चारों दिशाओं में सुयोग्य वर की तलाश की जा रही थी। अनेकों राजाओं को पत्र लिखे गए। एक दिन संयोगवश देवी पद्मा वन में विहार के लिए अपनी सखियों के साथ गई हुई थी। वहां तपस्या करके लौट रहे ऋषि पिप्पलाद की दृष्टि पद्मा नाम की उस सुंदरी पर पड़ गई, वे उसकी सुंदरता पर मोहित हो गए। वे उस सुंदरी को मन में बसाए हुए ही अपनी कुटिया पर पहुंच गए। सुंदरी का सौंदर्य पिप्पलाद के मन-मस्तिष्क में धंस गया था। एक दिन ऋषि पिप्पलाद पुष्पा भद्रा नामक नदी में स्नान करने गए। संयोगवश राजा अनरण्य की परम सुंदरी पुत्री पद्मा भी वहां उपस्थित थी। उसे पुनः देखकर ऋषि पिप्पलाद के मन की इच्छा पूरी हो गई। उन्होंने पद्मा की सखियों और सैनिकों से उसका परिचय प्राप्त कर लिया। वहीं कुछ मनुष्यों ने ऋषि की हंसी उड़ाते हुए कहा कि ऋषि जी आपका मन देवी पद्मा पर मुग्ध हो गया है तो आप महाराज से उन्हें मांग क्यों नहीं लेते? इस प्रकार के वचन सुनकर पिप्पलाद लज्जित तो हुए परंतु उनके दिल में सुंदरी पद्मा को पाने की इच्छा कम न होकर और बलवती हो गई।

स्नान, नित्यकर्म और शिव पूजन आदि से निवृत्त होकर मुनि पिप्पलाद राजा अनरण्य की सभा में चले गए। अपने दरबार में मुनि को पधारा देखकर राजा अनरण्य ने चरण छूकर उनका अभिवादन किया तथा विधिवत पूजन करने के पश्चात उन्हें आसन पर बैठाया तथा पूछा कि मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं? इस पर ऋषि पिप्पलाद बोले, राजा आप अपनी कन्या पद्मा को मुझे सौंप दीजिए। यह सुनकर राजा चुप हो गए। इस पर पिप्पलाद मुनि कहने लगे कि राजा यदि शीघ्र ही तुमने अपनी कन्या मुझे नहीं दी तो मैं क्षण भर में ही तुम्हें और तुम्हारे कुल को भस्म कर दूंगा । यह बात सुनकर राजा, उनकी रानियां, नौकर चाकर, दासियां सभी रोने लगे। राजा अनरण्य यह सोच अत्यंत व्याकुल हो उठे कि कैसे वे अपनी फूलों से भी कोमल पुत्री का हाथ एक बूढ़े ऋषि को दें। राजा इसी चिंता में डूबे हुए थे कि वे क्या करें कि तभी वहां उनके पुरोहित और राजगुरु आ पहुंचे। राजा ने सारा वृत्तांत उन्हें सुनाया। इस पर राजगुरु बोले कि राजन, आपको अपनी कन्या का विवाह किसी से तो करना ही है, तो क्यों न उसका विवाह ऋषि पिप्पलाद से ही कर दिया जाए। इससे आपके कुल की भी रक्षा हो जाएगी। यह ब्राह्मण इस कुल का विनाश कर दे इससे तो अच्छा है कि पद्मा का विवाह इन्हीं से हो जाए ।

इस प्रकार अपने राजपुरोहित और राजगुरु के वचन सुनकर राजा अनरण्य ने अपने कुल की रक्षा करने के लिए अपनी कन्या को वस्त्र, आभूषणों से अलंकृत करा उसे ऋषि पिप्पलाद को अर्पित कर दिया। तत्पश्चात देवी प‌द्मा और ऋषि पिप्पलाद का वैदिक रीति से परिणयोत्सव संपन्न हुआ तथा राजा ने प्रसन्नतापूर्वक अपनी पुत्री को विदा कर दिया। राजा अनरण्य से विदा लेकर ऋषि पिप्पलाद अपनी पत्नी पद्मा को साथ लेकर अपने आश्रम पर पहुंचे। इस शोक में कि हमने अपनी पुत्री को एक वनवासी बूढ़े को सौंप दिया है, राजा अनरण्य राजपाट छोड़कर वन में चले गए। अपने पति और पुत्री की याद में रो-रोकर रानी ने अपने प्राण त्याग दिए। उनके घर-परिवार में चारों ओर दुख ही दुख था । राजा अनरण्य ने शिव कृपा से शिवलोक को प्राप्त किया। तत्पश्चात उनके पुत्र कीर्तिमान ने राज्य किया और उनके कुल का नाम चारों ओर फैला । इसलिए हे हिमालय राज ! आप अपनी पुत्री को भगवान शिव को अर्पण करके अपने राज्य, कुल और धन की रक्षा करके सभी देवताओं को अपने अधीन कर लीजिए।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

चौंतीससवाँ अध्याय 

"पद्मा-पिप्पलाद की कथा"

ब्रह्माजी बोले ;- नारद जी ! शैलराज हिमालय राजा अनरण्य की कथा सुनकर बोले कि हे मुनि वशिष्ठ! आपने मुझे बहुत ही उत्तम कथा सुनाई है। अब मुझ पर कृपा करके मुझे ऋषि पिप्पलाद और देवी पदमा के विवाह से आगे की भी कथा सुनाइए। पदमा को पत्नी बनाकर ऋषि कहां गए और उन्होंने क्या किया?

शैलराज हिमालय के इस प्रकार कहे प्रश्नों को सुनकर मुनि वशिष्ठ बोले ;- पर्वतराज! ऋषि पिप्पलाद अत्यंत वृद्ध थे, उनकी कमर झुकी हुई थी तथा वे कांप-कांप कर आगे चल पाते थे। इस प्रकार बूढ़े ऋषि की पत्नी बनकर देवी पद्मा उनके साथ उनकी कुटिया में आ गई। पद्मा रूपवती होने के साथ-साथ गुणवती भी थी। वह साक्षात लक्ष्मी का रूप थी। अपने पति को वह साक्षात विष्णु समझकर उनकी सेवा करती थी। एक दिन की बात है देवी पद्मा स्वर्णदा नामक नदी में स्नान करने गई, तभी धर्मराज वहां आ पहुंचे और उनके मन में पद्मा की परीक्षा लेने की बात आई। धर्मराज ने राजसी वस्त्रों एवं आभूषणों को धारण किया और रथ में बैठ गए। रथ में बैठे वे साक्षात कामदेव प्रतीत हो रहे थे। देवी पद्मा को मार्ग में ही रोककर उन्होंने कहा"

देवी! आप तो परम सुंदरी हैं। आपकी सुंदरता को देखकर तो चांद भी शरमा जाए। आप तो राजरानी बनने योग्य हैं। आप इस भयानक जंगल में उस बूढ़े पिप्पलाद के साथ क्या कर रही हैं? वह बूढ़ा तो मृत्यु के बहुत पास है? देवी! आप उसको त्यागकर मेरे साथ चलें। मैं आपको अपने हृदय में स्थान दूंगा। आप मेरी रानी बनकर राज करेंगी। आपकी सेवा करने के लिए हजारों दासियां होंगी, जो आपकी हर आज्ञा को शिरोधार्य करेंगी। मैं स्वयं आपका दास बनकर रहूंगा। यह कहकर धर्मराज रथ से नीचे उतरकर देवी पद्मा का हाथ पकड़ने हेतु आगे बढ़े। यह देखकर पद्मा क्रोधित हो गईं और पीछे हटकर जोर से बोलीं- अरे मूर्ख! अज्ञानी! अधर्मी!

पापी! दूर हट जा। यदि तूने मुझे स्पर्श भी किया तो तू नष्ट हो जाएगा। तू काम में अंधा होकर मेरे पतिव्रत धर्म को भ्रष्ट करना चाहता है। तू क्या सोचता है कि तेरा यह राजसी रूप और धन देखकर मैं अपने परम पूज्य महातेजस्वी ऋषि पिप्पलाद को त्याग दूंगी? नहीं, कदापि नहीं। याद रख, यदि तू मुझे बुरी नजर से देखेगा भस्म हो जाएगा। देवी पद्मा के शाप को सुनकर धर्मराज भयभीत हो गए। उन्होंने तुरंत राजा का वेश त्याग दिया और अपने असली रूप में आकर बोले- माता! मैं धर्म हूं। मैं ज्ञानियों का गुरु हूं और हर स्त्री को सदैव अपनी माता मानता हूं। मैंने यह सब आपकी परीक्षा लेने के लिए ही कि है। मेरा जन्म ही इसलिए हुआ है कि मैं धर्मात्मा मनुष्यों की धर्म संबंधी परीक्षा लेकर उन्हें धर्म में दृढ़ करूं परंतु देवी आपने मुझे शाप दे दिया है, अब मेरा क्या होगा? यह कहकर धर्मराज चुपचाप खड़े हो गए।

तब देवी पद्मा ने कहा ;- हे धर्मराज! आप तो इस संसार के सभी जीवों के कर्मों के साक्षी हैं। फिर मेरी परीक्षा लेने के लिए आपको यह सब ढोंग करने की क्या आवश्यकता थी? अब तो शब्द मेरे मुंह से निकल चुके हैं। जिस प्रकार कमान से निकला तीर कमान में वापिस नहीं जा सकता, उसी प्रकार मेरा शाप मिथ्या नहीं हो सकता। धर्म आपके चार पाद हैं। सतयुग में तुम्हारे चारों पाद होंगे, त्रेता युग में तीन पाद होंगे और द्वापर युग में दो पाद होंगे। कलियुग में एक भी पाद नहीं होगा परंतु जब पुनः सतयुग शुरू होगा तो तुम्हारे चारों पाद पूर्व की भांति वापिस आ जाएंगे।

पद्मा के वचनों को सुनकर धर्मराज प्रसन्न हो गए और कहने लगे ;- देवी! आप धन्य हैं। आप अति पतिव्रता हैं। आपका अपने पति से अटूट प्रेम है। आप सदा ही उनके चरणों से प्रेम करोगी। मैं आपके पतिव्रत धर्म से प्रसन्न होकर आपको वरदान देता हूं कि आपके पति जवान हो जाएं तथा उनकी जवानी स्थिर रहे। वे मार्कण्डेय के समान दीर्घायु हों, कुबेर के समान धनवान तथा इंद्र के समान सुंदर एवं वैभव संपन्न हों। देवी! आपको शीघ्र ही दस पुत्रों की प्राप्ति होगी, जो कि गुणवान व दीर्घायु होंगे।

यह कहकर धर्म अंतर्धान हो गए और देवी पद्मा अपने घर वापिस आ गई। उसने घर पहुंचकर देखा तो उसके पति धर्म के वरदान के अनुसार जवान हो गए थे। उनके घर में सुख विलास की सभी वस्तुएं मौजूद थीं। इस प्रकार पिप्पलाद और पदमा सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे। कुछ समय पश्चात देवी पद्मा को दस पुत्रों की प्राप्ति हुई, जिन्हें पाकर दंपति का जीवन खुशियों से भर गया।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

पैंतीसवाँ अध्याय 

"हिमालय का शिवजी के साथ पार्वती के विवाह का निश्चय करना"

ब्रह्माजी बोले ;– नारद! महर्षि वशिष्ठ ने राजा अनरण्य की पुत्री पद्मा और ऋषि पिप्पलाद के विवाह तथा धर्मराज द्वारा पद्मा को प्रदान किए गए वरदान की कथा सुनाकर कि पिप्पलाद स्थिर रहने वाले यौवन के स्वामी होंगे, इंद्र के समान सुंदर व वैभव से संपन्न होंगे और दस सर्वगुण संपन्न पुत्रों की उन्हें प्राप्ति होगी, शैलराज हिमालय से कहा कि राजन! मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आपके और आपकी पत्नी मैना के मन में, जो भी नाराजगी है, उसे भूलकर आप अपनी पुत्री पार्वती का विवाह त्रिलोकीनाथ महादेव जी के साथ कर दें। आज से एक सप्ताह बाद का मुहूर्त जब रोहिणी नक्षत्र में चंद्रमा अपने पुत्र बुध के साथ लग्न में स्थित होंगे, अत्यंत शुभ है। मार्गशीर्ष माह के सोमवार को लग्न में सभी शुभ ग्रहों की दृष्टि होगी। उस समय बृहस्पति भी सौभाग्य के वश में होंगे। ऐसे शुभ मुहूर्त में अपनी पुत्री पार्वती, जो कि साक्षात जगदंबा का अवतार हैं, का पाणिग्रहण भक्तवत्सल भगवान शिव से कर देने पर आप अपने आपको धन्य समझेंगे।

यह कहकर ज्ञान शिरोमणि मुनि वशिष्ठ चुप हो गए। उनकी बात सुनकर मैना और हिमालय आश्चर्यचकित रह गए और अन्य पर्वतों से बोले - गिरिराज मेरु! मंदराचल, मैनाक, गंधमादन, सह्य, विंध्य आप सभी ने मुनिराज वशिष्ठ के वचनों को सुना है। कृपया आप सब मुझे यह बताइए कि इन परिस्थितियों में मुझे क्या करना चाहिए? आप सभी इस संबंध में मुझे अपने विचारों से अवगत कराइए।

शैलराज हिमालय के कहे इन वचनों को सुनकर सभी पर्वतों ने आपस में विचार-विमर्श किया और बोले ;- हे गिरिराज हिमालय ! इस समय ज्यादा सोच-विचार करने से कुछ नहीं होगा। अच्छा यही है कि हम सप्तऋषियों द्वारा कही गई बात को मानकर देवी पार्वती का विवाह शिवजी से करा दें। क्योंकि वास्तव में पार्वती का जन्म ही देवताओं के कार्यों को पूरा करने के लिए हुआ है। अतः हमें शीघ्र ही उनकी अमानत उनके हाथों में सौंपकर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाना चाहिए ।

तब सुमेरु तथा अन्य पर्वतों की बात सुनकर हिमालय प्रसन्न हुए और देवी पार्वती भी मन ही मन मुस्कुराने लगीं। देवी अरुंधती ने भी विविध प्रकार की कथाओं को सुनाकर पार्वती की माता मैना को समझाने का प्रयत्न किया। मैना जब समझ गई तो बहुत प्रसन्न हुई और उन्होंने सभी को उत्तम भोजन कराया। उनके मन का सारा संदेह और भय दूर हो गया। शैलराज हिमालय ने दोनों हाथ जोड़कर उन सप्तऋषियों से कहा कि आपकी बातों को सुनकर मेरे मन का सारा शक दूर हो गया है। मैं भली-भांति जान गया हूं कि शिवजी ही ईश्वरों के भी ईश्वर अर्थात सर्वेश्वर हैं। वे इस जगत के कण-कण में व्याप्त हैं। वे अतुलनीय हैं। इस संसार की हर वस्तु एवं हर प्राणी उन्हीं का है। यह कहकर हिमालय ने अपनी पुत्री पार्वती का हाथ पकड़कर उसे सप्तऋषियों के पास खड़ा कर दिया और बोले कि आज से मेरी पुत्री शिवजी की अमानत है । वे जब चाहें इसे यहां से ले जा सकते हैं।

ऋषिगण शैलराज की बातें सुनकर प्रसन्न हुए और बोले ;- भगवान शिवजी आपकी पुत्री को स्वयं मांगकर आपको सौभाग्य प्रदान कर रहे हैं। यह कहकर वे ऋषिगण पार्वती को आशीर्वाद देने लगे और बोले- देवी! आपका कल्याण हो तथा आपके गुणों में निरंतर वृद्धि हो। आप शिवजी की अर्द्धांगिनी बनकर उनका जीवन खुशियों से भर दें। सप्तऋषियों ने सुविचार करके चार दिनों के बाद का शुभ मुहूर्त विवाह के लिए निकाला । तब शैलराज हिमालय और देवी मैना से आज्ञा लेकर वे सप्तऋषि देवी अरुंधती सहित वहां से भगवान शिव के पास चले गए।

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