Type Here to Get Search Results !

Shop Om Asttro

1 / 3
2 / 3

ad

कुंडलिनी शक्ति

 भारतीय अध्यात्म जगत का यह सबसे बड़ा एवं महत्वपूर्ण प्रश्न है ।जिसका सटीक उत्तर दे पाना हर किसी आध्यात्मिक गुरु के बस की बात नहीं क्योंकि उन गुरुओं को इस प्रश्न का वास्तविक उत्तर मालूम ही नहीं ।सत्य कहूं तो इस प्रश्न का वास्तविक उत्तर देने की शक्ति मुझमें भी नहीं है क्योंकि अब तक मै एक साधक हूँ। सिद्ध पुरुष नहीं। इस प्रश्न का पूर्णतया सत्य जवाब वही सिद्ध महापुरुष दे सकता है। जिसने इस महा शक्ति का पूर्णतया साक्षात्कार कर लिया हो किंतु आदरणीय गुरुजनों ,माताओं ,बहनों ,भाइयों! यहां पर मैंने अब तक जो जाना है और स्व अनुभव में जो किया है और जिस पथ का साक्षात्कार अब तक मैं कर चुका हूं ।उस ज्ञान को आप तक पहुंचाना चाहूंगा।

कुंडलिनी शक्ति क्या है?

👉 कुंडलिनी शक्ति कोई देवी देवता या फिर भूत-पिशाच नहीं है। यह शक्ति हमारे संपूर्ण शरीर में समायी हुई समस्त नाड़ियों का सूक्ष्म चेतनात्मक ऊर्जा तत्व है। हमारे शरीर के प्रत्येक अंग एवं अवयव में चेतना शक्ति का संचार हो रहा है और प्रत्येक स्थान में चेतन तत्व विद्यमान है किंतु संपूर्ण शरीर में से मूलाधार चक्र जहां पर जनन ग्रंथियां हैं वहां पर हमारे शरीर की सर्वाधिक ऊर्जा संग्रहित होती है। यही केंद्र ऐसा है जहां पर नवजीवन सृजन करने की शक्ति संग्रहित होती है। साधारणतया हमारी मूलाधार चक्र की शक्ति अधोगामी अर्थात बाहर की ओर निकलने के लिए ही होती है किंतु जब साधक योग साधना का सहारा लेता है तो उसकी वह ऊर्जा उर्ध्वगामी होने लगती है। यहां पर सबसे बड़ी समझने की बात यह है कि शरीर में विद्यमान वीर्य ऊपर खींचे ऐसा आवश्यक नहीं बल्कि मूलाधार चक्र जो हमारे सूक्ष्म शरीर में विद्यमान है। उसके अंदर जो चेतन तत्व है। उसकी ऊर्जा ऊपर की ओर उठने लगती है जबकि वीर्य हमारे स्थूल शरीर की वस्तु है ।वीर्य का सिर्फ सूक्ष्म चेतना तत्व ही कुंडलिनी शक्ति के द्वारा ग्रहण किया जाता है। कुंडलिनी शक्ति वीर्य की शक्ति नहीं बल्कि यह प्राण शक्ति है। प्राण अर्थात वायु ।हमारे शरीर के अंदर विद्यमान वायु की शक्ति।

👉हमारे शरीर के अलग-अलग भागों में प्राण, अपान ,समान, व्यान ,उदान आदि प्रकार की अलग-अलग वायु का प्रवाह होता है । सामान्यतया हमारे शरीर में स्थूल जड़ तत्व की प्रधानता होती है किंतु जब हम प्राणायाम का अभ्यास करते हैं । आंतरिक एवं बाह्य कुंभक क्रिया करते हैं तो हमारे शरीर में जड़त्व के स्थान पर सूक्ष्म तत्वों का आधिक्य होने लगता है। जैसे जैसे हमारी कुंभक क्रिया अधिक होती जाती है अर्थात प्राण के निरोध की शक्ति बढ़ती जाती है, वैसे वैसे हमारे समस्त शरीर की नाड़ियों में दिव्यता बढ़ती जाती है, जैसे-जैसे दिव्यता बढ़ती जाती है वैसे-वैसे साधक का मन- मस्तिष्क एकाग्र होने लगता है। ध्यान पूर्ण एकाग्रता के साथ लगने लगता है, अब साधक जिस चक्र या स्थान पर भी अपने ध्यान को एकाग्र करता है उसी चक्र या स्थान पर शरीर के अंदर अद्भुत उर्जा उत्पन्न होने लगती है। यह ऊर्जा उस चक्र के क्षेत्र में आने वाली समस्त नाड़ियों को दिव्य प्रकाश से भर देती है। इस दिव्य प्रकाश के प्रभाव से उस क्षेत्र की नाड़ियों में विद्यमान दिव्य शक्तियां जागृत होने लगती है जिन्हें उस चक्र की देव शक्तियां कहा जाता है ,जैसे-जैसे साधक अलग-अलग चक्रों में अपने ध्यान की ऊर्जा को बढ़ाता जाता है वैसे वैसे उसका संपूर्ण शरीर सिद्धावस्था को प्राप्त करता जाता है। साधक बाहर से बहुत कुछ बदला हुआ दिखाई नहीं देता बस उसका शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा हो जाता है एवं आंखों एवं चेहरे में तेज दिखाई देने लगता है किंतु आंतरिक स्तर पर साधक के प्रत्येक अंग प्रत्यंग में आमूलचूल परिवर्तन हो चुका होता है। जब साधना करते हुए मूलाधार चक्र से लेकर आज्ञा चक्र तक के संपूर्ण चक्रों में ऊर्जा का प्रवाह सुचारू रूप से होने लगता है तो उर्जा सहस्रार चक्र तक पहुंचने लगती है। ऐसी स्थिति में साधक जब मूलाधार चक्र में ध्यान करता है तो कंपन सहस्रार चक्र में अनुभव होने लगते हैं एवं संपूर्ण सहस्रार चक्र प्रकाशित होता हुआ अनुभव होता है। जिस प्रकार एक लंबे पाइप में पानी का प्रवाह एक सिरे पर जोड़ने पर दूसरे सिरे में पानी स्वतःही निकलने लगता है ।उसी प्रकार जब समस्त चक्र जागृत हो जाते हैं तो मूलाधार चक्र में ध्यान करने पर ऊर्जा का प्रवाह सहस्रार चक्र में प्रवाहित होने लगता है। यही कुंडलिनी शक्ति का जागरण है ,जिससे प्राण का प्रवाह मूलाधार चक्र से सहस्रार चक्र तक होने लगता है।

👉 अज्ञानी गुरुओं ने ऐसी हवा बना रखी है कि कुंडलिनी जागरण एक बहुत ही खतरनाक एवं कठिन प्रक्रिया है इसे नहीं करना चाहिए ।निश्चित ही कुंडलिनी जागरण एक कठोर एवं श्रमसाध्य प्रक्रिया है किंतु जो साधक मानवता के हित में इस साधना को करने के लिए तैयार हो उन्हें इसका सौभाग्य मिलना चाहिए । दूसरी बात कुंडलिनी जागृत हो जाना ही समस्त दिव्य शक्तियों को प्राप्त कर लेने की निश्चित शर्त नहीं है। यह ऊर्जा का प्रवाह है जो मूलाधार चक्र से सहस्रार चक्र तक होने लगा है ,इससे सिर्फ इतना सा कहा जा सकता है कि साधक अब उस परब्रह्म परमात्मा से संपर्क साध सकता है। इसके आगे आप ज्यो ज्यो साधना को बढ़ाते हैं वैसे वैसे संपूर्ण ब्रह्मांड में आप की साधना की ऊर्जा प्रसारित होने लगती है और जो परिणाम आप साधना से लेना चाहते हैं वैसी स्थितियां एवं परिस्थितियां उत्पन्न होने लगती है।

👉जो मनुष्य अपने व्यक्तिगत जीवन में जितना अधिक क्रियाशील दिखाई देता है ,उसकी कुंडलिनी शक्ति उतनी ही जागृत है ।अब जो मनुष्य जितना अधिक आलसी ,अकर्मण्य एवं दुर्व्यसनों से घिरा हुआ है उसकी चेतना शक्ति कुंडलिनी उतनी ही सुषुप्त है।

👉 जब हम योग साधना एवं मंत्र जप का सहारा लेते हैं तो हमारे अंदर ऊर्जा का प्रवाह बढ़ जाता है। हमारी समस्त नाड़ियों में क्रियाशीलता बढ़ जाती है। हमारे शरीर के प्रत्येक अवयवों में एक सूक्ष्म चेतन शक्ति का संचार होने लगता है। ज्यो-ज्यो हमारी योग साधना एवं मंत्र जप बढ़ता जाता है त्यों त्यों हमारी प्रत्येक नाड़ी में दिव्यता बढ़ती जाती है एवम हमारे शरीर में मौजूद स्थूल तत्व के स्थान पर दिव्य तत्व का आविर्भाव होने लगता है। हमारी शारीरिक ,मानसिक एवं आध्यात्मिक क्रियाशीलता दिनों दिन बढ़ती जाती है। हम शारीरिक रूप से समस्त आदि व्याधियों से मुक्त ,मानसिक रूप से अत्यधिक बुद्धिमान तर्क एवं आत्मिक उन्नति के चर्म शिखर की ओर बढ़ने लगते है। हमें खुदगर्जी के स्थान पर परोपकार में आनंद आने लगता है।

👉 यदि साधना पथ पर बढ़ते हुए साधक से कभी कुछ गलत हो जाता है तो आत्मचेतना मार्ग में अवरोध पैदा करती है एवं ऐसा करने से रोकती है।

👏 यह कुंडलिनी महाशक्ति का सामान्य परिचय है ।इसके आगे अद्भुत एवं अनिर्वचनीय परिणाम है ,जिसके बारे में बताना फिलहाल उचित नहीं है क्योंकि उस संबंध में मुझे कोई ज्ञान नहीं है।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.